Saturday, November 13, 2021

शहर मेरा धुआं-धुआं सा है..

 









सहरा मे पसरा हुआ कुहासा है,

और शहर मेरा धुआं-धुआं सा है।

कोई कहे ये 'दिवाली' का रोष है,

कोई  दे रहा 'पराली' को दोष है,

मुफ्त़जीवी, मुरीद हैं गिरगिटों के,

विज्ञापनों से खाली हुआ कोष है।

नेत्र पट्टी क्षुब्ध, तराजू रुआंसा है,

और शहर मेरा धुआं-धुआं सा है।


सभ्य समाज के माथे पर दाग है,

जमुना मे बहता नीर नहीं झाग है,

महामारी से ठंडे पडे है कई चूल्हें,

असहज सीनो मे धधकती आग है।

सोचकर खुश है 'आत्ममुग्धबौना',

नर,खर,गदर्भ, सभी को फा़ंसा है,

और शहर मेरा धुआं-धुआं सा है।



13 comments:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार
    (14-11-21) को " होते देवउठान से, शुरू सभी शुभ काम"( चर्चा - 4248) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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  2. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 14 नवम्बर 2021 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. हकीकत को बयां करती हुई बेहतरीन रचना

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  4. आभार, आप सभी स्नेहिल मित्रों का।🙏

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  5. वाकई प्रदूषण से बहुत बुरा हाल है।

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  6. पर्यावरण पर चीखती हुई रचना...। मन में कहीं गहन दर्द जब उठता है तब ऐसी ही रचना का सृजन होता है। खूब बधाई आपको गहन और जरुरी रचना के लिए।

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  7. आभार आप सभी मित्रों का🙏

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  8. आज के परिदृष्य का यथार्थ चित्रण । इसी विषय पर मैने भी कुछ पंक्तियां लिखी हैं, समय मिले तो ब्लॉग पर पधारें ।हार्दिक नमन ।

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  9. आज का सटीक वर्णन, कम पंक्तियों में गहन कथन ।
    सुंदर।

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।