सहरा मे पसरा हुआ कुहासा है,
और शहर मेरा धुआं-धुआं सा है।
कोई कहे ये 'दिवाली' का रोष है,
कोई दे रहा 'पराली' को दोष है,
मुफ्त़जीवी, मुरीद हैं गिरगिटों के,
विज्ञापनों से खाली हुआ कोष है।
नेत्र पट्टी क्षुब्ध, तराजू रुआंसा है,
और शहर मेरा धुआं-धुआं सा है।
सभ्य समाज के माथे पर दाग है,
जमुना मे बहता नीर नहीं झाग है,
महामारी से ठंडे पडे है कई चूल्हें,
असहज सीनो मे धधकती आग है।
सोचकर खुश है 'आत्ममुग्धबौना',
नर,खर,गदर्भ, सभी को फा़ंसा है,
और शहर मेरा धुआं-धुआं सा है।
वाह
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार
(14-11-21) को " होते देवउठान से, शुरू सभी शुभ काम"( चर्चा - 4248) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 14 नवम्बर 2021 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
हकीकत को बयां करती हुई बेहतरीन रचना
ReplyDeleteआभार, आप सभी स्नेहिल मित्रों का।🙏
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteसटीक
वाकई प्रदूषण से बहुत बुरा हाल है।
ReplyDeleteगहन रचना।
ReplyDeleteपर्यावरण पर चीखती हुई रचना...। मन में कहीं गहन दर्द जब उठता है तब ऐसी ही रचना का सृजन होता है। खूब बधाई आपको गहन और जरुरी रचना के लिए।
ReplyDeleteसटीक रचना
ReplyDeleteआभार आप सभी मित्रों का🙏
ReplyDeleteआज के परिदृष्य का यथार्थ चित्रण । इसी विषय पर मैने भी कुछ पंक्तियां लिखी हैं, समय मिले तो ब्लॉग पर पधारें ।हार्दिक नमन ।
ReplyDeleteआज का सटीक वर्णन, कम पंक्तियों में गहन कथन ।
ReplyDeleteसुंदर।