Thursday, June 27, 2013

उत्तराखंड त्रासदी- कुछ अनुत्तरित सवाल !


१६ -१७ जून को उत्तराखंड के ऊपर वर्षी आसमानी विपदा ने इस देश की इक्कीसवीं सदी की तथाकथित विकास-परस्त सरकारों के चूले उखाड़ फेंके है। नि:संदेह एक बड़ा सवाल यह खडा हो गया है कि विकास सिर्फ देश और समाज  केन्द्रित होना चाहिए या फिर प्रकृति केन्द्रित भी। यह सवाल तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, खासकर जब अपने देश में विकास के माड़ल के संदर्भ में तमाम संसदीय राजनैतिक दलों की समझ एक सी ही है। 'उखाड़ फेंके है' से याद आया कि आजकल एक ख़ास राजनैतिक पार्टी "फेंकू" के फोबिया से काफी परेशान है। उसे शायद नींद में सपने भी फेंकू के ही आते होंगे। स्वाभाविक भी है कि जो फेंकू काम यह राजनैतिक पार्टी आजादी से भी दो दशक पहले, इनके दादाजी द्वारा इस पार्टी की कमान संभालने के बाद से ही कर रही थी, उसे चुनौती देने वाला इनसे भी 'ग्रेट फेंकू' सिर्फ १०-१२ सालों में  ही पैदा हो गया और अपनी साख बना भी ली।खैर, देश के वे तमाम लोग जिन्होंने इस आपदा को झेला है, कम से कम इस तथाकथित 'ग्रेट फेंकू' का इसलिए तहेदिल से शुक्रिया अदा कर रहे होंगे कि उसने भले ही खुद कुछ ख़ास न किया हो मगर इस सुप्त पडी सरकार को राजनैतिक प्रतियोगिता के बहाने ही सही, मगर कुछ करने के लिए कम से कम जगाया तो। वरना तो ये रोज की भांति साधनों की कमी का ही  रोना रोये जा रहे थे।              

हालांकि मैं भी एक संतुलित विकास का पक्षधर रहा हूँ किन्तु साथ ही इस बात का भी पुरजोर समर्थक हूँ कि आर्थिक विकास वास्तविक मायने में समूची मानवता के लिए विकासकारी होना चाहिए, विनाशकारी नहीं। साथ ही यह बात भी अपनी जगह पूर्णत; सत्य है कि इंसान यदि विकास चाहता है तो उसे कुछ तो कुर्बानियां भी देनी ही होंगी।  उत्तराखंड त्रासदी का एक अलग पहलू यह भी रहा कि इस दुखद त्रासदी के बहाने ही सही, किन्तु दुनिया के समक्ष हमारी मौकापरस्त सरकारों और प्रशासन की पोल खुल गई। जैसा कि कुछ दिन पहले मैंने अपने एक लेख में कहा था कि बाँध भी बनने चाहिए, लेकिन संतुलित आधार पर। ऐसा नहीं कि एक बाँध तो निर्मित होने के लिए पिछले बत्तीस सालों से इन्तजार कर रहा है, और दूसरी तरफ आप १५० नए बाँध बनाने की स्वीकृति देकर क्षेत्र की प्राकृतिक संरचना को अनाप-शनाप तरीके से नुकशान पहुचाओ।

संक्षेप में कहने का तात्पर्य यह है कि विकास कार्य भी निरंतर जारी रहने चाहिए किन्तु सलीखे से। "बाद में देखी जायेगी" वाला रवैया छोड़कर हमें लम्बी अवधि के परिणामो, दुष्परिणामो  का आंकलन योजना का खाका खींचने  से पहले ही करना होगा। जानता हूँ कि बहुत से लोग मेरी इस बात से शायद सहमत नहीं भी होंगे।  आजकल मीडिया पर भी अनेक ज्ञानी, विद्धवान ढेर सारी बातें कर अपनी दुकान चमकाने में लगे है।  जैसा कि मैं कह चुका कि इस देश के जड़बुद्धि लोगो, गैर-जिम्मेदाराना हुकुमरानो और अकर्मण्य तथा भ्रष्ट स्थानीय प्रशासन की वजह से प्रकृति को अपूरणीय क्षति पहुंचाई गई है, और बहुत कुछ ये आपदाए उसी पृष्ठभूमि की परिणिति हो सकती है, किन्तु इन ज्ञानी लोगो से मेरे भी चंद सवालात है;

१. आज तक आप कहते आये थे कि उत्तराखंड में जंगलों के अंधाधुंध कटाव और भूमि के दोहन से वर्षा पर इसका प्रभाव पडेगा, यानि कि वर्षा नहीं होगी या फिर बहुत कम होगी। फिर १६-१७ जून को उत्तराखंड में सामान्य से ४६० गुना अधिक वर्षा कैसे हुई ?

२. आप कहते है कि पहाड़ों में नदी के तटों ( रीवर बेड ) पर खनन नहीं होना चाहिए। कृपया उपाय बताएं कि जो रेत  और पत्थर इस आपदा में बहकर आये है और निचले भागों में रिहायशी इलाकों के आसपास तट की परत को ऊपर उठा गए है, यदि खनन नहीं हुआ और तट के लेबल को नीचे नहीं किया गया तो आगे चलकर बारिश के दिनों में नदी में थोड़ा सा भी जल-स्तर बढेगा तो वह सीधे रिहायशी इलाकों में घुसेगा,उसे कैसे रोक जाए? अभी गुप्तकाशी और गौरी कुण्ड के मध्य नदी के किनारे बसे जो कस्बे  इस आपदा की भेंट सिर्फ इसलिए चढ़े क्योंकि मंदाकिनी ने अपना रास्ता बदला।  उसकी बुनियाद में अगर आप झांकेंगे तो इसकी एक ख़ास वजह यह भी पांएगे कि काफी वक्त से रीवर- बेड में खनन कार्य बंद होने की वजह से वह ऊपर उठ चुका था और पानी को तट तोड़कर रास्ता बदलने में आसानी हुई।
         
३.यह भी सोचनीय बात है कि अगर पहाड़ों पर सड़क मार्गों का जाल न बिछाया गया, और जिस तरह सिर्फ चंद पुलों के बह जाने और टूटने से पूरा उत्तराखंड ही ठप पड  गया तो कभी चीन की तबियत ज्यादा ही बिगड़ जाए  तो उसे  उत्तराखंड के रास्ते दिल्ली पहुँचने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। ऐसा नहीं भी हुआ तो भी क्या वहाँ मौजूद हमारे सैनिकों की गिनी-चुनी रसद लाइन काटने में उसको ख़ास दिक्कत होगी क्या ? उसके लिए हमारे पास अन्य क्या विकल्प हैं ?  

४. जो राज्य सिर्फ जल और पर्यटन पर ही निर्भर है, अगर ये दोनों ही उसके लिए चुनौती बन जाएँ तो उसका आर्थिक विकास कैसे होगा ? क्या बाकी देश उसकी तमाम आर्थिक जिम्मेदारियां उठाने को तैयार है ?     

और अंत में, यह भी गौर करने लायक बात है कि अभी जो कुछ वहाँ हुआ, वो किसी निर्माणाधीन अथवा निर्मित परियोजना के नष्ट होने से नहीं हुआ।  विशेषज्ञ तो यहाँ तक कह रहे है कि अगर टिहरी बाँध नहीं बना होता तो मैदानी क्षेत्रों को जन-धन की भारी क्षति पहुँच सकती थी। उसने भागीरथी में आई बाढ़ को रोककर उसे अलंकनंदा के साथ मिलकर तवाही मचाने से रोक दिया।    
अंत में बस यही कहूँगा ;
          

छवि आजतक से साभार !

9 comments:

  1. फेंकू का धत फोबिया, व्याधि व्यथा विकराल |
    राल घोंटते गान्धिभक्त, है चुनाव का साल |

    है चुनाव का साल, विदेशी दौरे छोड़े |
    चले अढाई कोस, नहीं नौ दिन हैं थोड़े |

    बेतरतीब विकास, गधह'रा हुल'के रेंकू |
    किसका वह व्यक्तव्य, मीडिया असली फेंकू ||


    श्लेष अलंकार पहचाने
    गधह'रा हुल'के = बच्चे रेंकने के लिए हुलकते हैं

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  2. आपने बडे ही सटीक सवाल और चिंताएं जाहिर की हैं, पर इस देश का कोई मालिक ही नही है तो उन पर विचार कौन और कैसे करेगा?

    सारे नेता चैतुएं हैं, फ़सल काटने आते हैं, देश से उन्हें क्या लेना देना?

    रामराम.

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  3. आपकी दर्शायी गईं चिंताओं से पहले भी कई चिंताएं हैं। चीन तो तब आक्रमण करेगा, जब तबाही की पूरी पिक्‍चर से विश्‍व बचेगा। ऐसे ही खतरनाक प्राकृतिक दोहन होता रहा तो चिंता करनेवाला भारत क्‍या शायद दुनिया में कोई नहीं बचेगा।

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  4. वाजिब प्रश्न खड़े किये हैं आपने ... विकास जरूर होना चाहिए पर विकास के नाम पे अपनी जेबें भरने का काम और विनाश के लिए नहीं होना चाहिए ...

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  5. आप के प्रश्न बहुत संजीदा और सामयिक हैं...स्थिति चिंताजनक है और शासन का रवैया लचर...

    @मानवता अब तार-तार है

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  6. उत्कृष्ट संजीदा और सामयिक प्रस्तुति .

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  7. काश यह सवाल शासन प्रशासन चलाने वाले समझ पाते ....
    सार्थक सामयिक चिंतन प्रस्तुति ...आभार

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  8. समस्या इतनी सीधी साधी नहीं है जितनी लोग व्यक्त कर देते हैं। सशक्त तार्किक आलेख...

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