Saturday, June 22, 2013

अब तो नहीं जाओगे न पहाड़ों पर ? जाना भी नहीं, प्लीज !




सर्वप्रथम हर उम्र  के उन दिवंगतों को मेरी भावभीनी श्रृद्धांजली, जिन्होंने 16-17 जून, 2013 को आये पहाड़-प्रलय में न सिर्फ अपनी जान गंवाई अपितु बहुत ही कष्टकारी माहौल में अपनी अंतिम साँसे गिनी। अब ये चाहे मानव निर्मित हो या फिर दैविक प्रलय, किन्तु आपदा से उपजी विपदा की इस घड़ी में हर इंसान का यह पहला कर्तव्य बनता है कि पीड़ितों का दुःख-दर्द समझे और उन्हें हर संभव मदद पहुंचाए। 

 अब बात उत्तराखंड की , मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से यह  जानकार मन को थोड़ा शान्ति का अनुभव हुआ कि स्थानीय लोगो ने अपनी तमाम कठिनाइयों को दरकिनार कर अपने पास मौजूद  सीमित साधनों से ही सही किन्तु बाहर से आये तमाम सैलानियों और धार्मिक श्रद्धालुओं की यथा-संभव मदद की। अच्छे लोंगो के बीच कुछ बुरे लोग भी अवश्य होते है और ऐसे  धुर्त लोग किसी भी मौके का फायदा उठाने से नहीं चूकते, वे यह भी भूल जाते है कि जिन मजबूर लोगो से वो आज फायदा उठाने की कोशिश कर रहे है, उन्ही के जैसी मजबूरी कभी उनके साथ भी तो आ सकती है। ऐसे ही कुछ वाकिये सुनने को मिले कि केदारनाथ में मौजूद कुछ नेपाली मजदूरों ने इन्सानियत नाम की चीज को शर्मशार किया। साथ ही कुछ दुकानदार लोगो ने इन असहाय लोगो से मन-माफिक दाम वसूले। खैर, अच्छा बुरा वक्त सबका आता है।  भगवान् से यही प्रार्थना  करूंगा कि ऐसा करने वालों को भी सबक अवश्य मिले। 

एक और बात उन सैलानियो और  तीर्थयात्री लोगो से भी कहना चाहूँगा जिन्हें यह शिकायत भी रही होगी कि स्थानीय लोग, खासकर वे लोग जो चार धामों के मार्गों के आस-पास आशियाने बनाए हुए है, गर्मजोशी के साथ उनकी मदद को आगे नहीं आये। इसकी एक ख़ास वजह है जिसका भुक्तभोगी कुछ सालों तक मैं भी रहा हूँ, बताना चाहूँगा । इस मार्ग पर चार-से छह महीने भिक्षुओं और पैदल यात्रियों ने इन लोगो का जीना मुहाल किया रहता है। गर्मी के दिनों में दोपहर में ज़रा आँख लगाने की कोशिश करो तब तक बाहर गेट पर ख़ट-ख़ट की आवाज आने लगती है। या तो कोई साधू, या फिर भखारी या फिर एक ख़ास स्थानीय ब्रेन्ड के भिक्षु, जिन्हें स्थानीय भाषा में लोग फिक्वाळ कहते है, बड़े-बड़े धार्मिक नारों के साथ भीख मांगते नजर आते है। एक सीमित आय वाला इन्सान इनके रोज-रोज के इस व्यवहार से कुपित हुआ रहता है, अत: उस तरह का उत्साह नहीं दिखा पाते जिसकी ऐसे ख़ास मौकों पर अपेक्षा की जाती है।  साथ ही एक निवेदन उन लोगो से भी करूंगा जो बद्रीनाथ धाम की यात्रा के वक्त अपना अता-पता  वहाँ के पंडों को लिखवा आते है और फिर सर्दियों के मौसम के दौरान ये पण्डे लोग मैदानों में उनके बिन बुलाये मेहमान बनकर आ जाते है। इन्हें ख़ास कुछ न भेंट करें, क्योंकि इस अंधी कमाई को ही ये लोग फिर अनाप-शनाप ढंग से वहाँ होटलों, धर्मशालाओं के नाम पर इन्वेस्ट करते है, जिससे पर्यावरण को भारी नुकशान पहुंचता है।           
                 
बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि वह चाहे किसी भी राजनैतिक दल की ही क्यों न हो, किन्तु आज के इस लोकतंत्र की ज्यादातर सरकारे अचैतन्य अवस्था में चली गई प्रतीत होती है। सत्ता में बैठे भ्रष्ट किसी उपलब्धि का श्रेय लेने तो तत्काल पहुँच जाते है, किन्तु  विपदा की घड़ी में अपनी गर्हा और अकर्मण्यता छुपाने हेतु दोषारोपण के लिए बली के बकरे ढूढ़ते फिरते है। इनकी बेशर्मी और पाजीपन की हद ये है कि इन्हें इनका राज-धर्म बताने के लिए लोकतंत्र के अन्य स्तंभों को समय-समय पर बीच में आकर इनको जगाना पड़ता है। राजनैतिक और प्रशासनिक गलियारों में कुंडली मारे बैठे कुछ भ्रष्टो के लिए तो यह पहाडी-प्रलय मानो सुनहरे ख्वाबों और भविष्य की संभावनाओं की सौगात लेकर आ गया है। ख्वाब बुने जा रहे होंगे कि इतना स्विस बैंक में रखूंगा/रखूँगी, इतना रियल एस्टेट में लगाऊंगा/लगाऊँगी, इतना बीबी/शोहर और मासुका को खुश करने हेतु खर्च करुगा/करूंगी, बेटे के लिए बँगला और बेटी के लिए दूर के रिश्तेदार के नाम से गोवा में होटल। थोड़ा बहुत जो बचेगा उसे अपनी राजनीति चमकाने के लिए राहत के नाम पर चुनिन्दा प्रसंशको में वितरित कर दूंगा/दूंगी, इत्यादि-इत्यादि।             
माँ धारी देवी मंदिर - तब
माँ धरै देवी अम्न्दिर- अब 
अर्धनिर्मित श्रीनगर डैम 



सत्ता में बैठे लोग संवेदनहीन हो चुके है, इन्हें जनता की जेब से अपने ऐशो-आराम के लिए सिर्फ पैसा चाहिए, बस। यह स्पष्ट कर दूं कि मैं उत्तराखंड में बांध बनाए जाने का विरोधी नहीं हूँ, लेकिन इस बात का पुरजोर विरोध करता हूँ कि अव्यवस्थित तरीके से विकास और परियोजनाओं के नाम पर प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ नहीं की जानी चाहिए। एक-दो परियोजनाओं को पहले ढंग से पूरा करो फिर तीसरी परियोजना पर हाथ डालो।  यह नहीं की तुम अपनी जेबे गरम करने हेतु और तात्कालिक राजनैतिक फायदे के लिए एक साथ १५० परियोजनाए शुरू कर दो। मुझे याद है कि जिस श्रीनगर ( कोटेश्वर) परियोजना की वजह से धारी देवी माँ के मंदिर को शिफ्ट करने की नौबत आज आयी और कुछ अति-अन्धविश्वासी हलकों में जिसे इस पहाडी प्रलय की एक ख़ास वजह माना जा रहा है, (बता दूं कि १६ जून की शाम को सरकार ने चुपके से माता की मूर्तिया मंदिर से शिफ्ट कर दी थी, और उसी रात यह तांडव हुआ ).   इस परियोजना की नीव १९८१-८२  में रखी गई थी, सोचिये कितना पैसा बर्बाद कर दिया गया होगा इस पर 3२  सालों में ? और इसे पूरा करने की बजाये कई और बाँध परियोजनाए शुरू कर दी गई।   


देश की फ़िक्र किसे है ? बस हर कोई अपनी तात्कालिक पूर्तियों और जेब की फ़िक्र लिए फिर रहा है। तमाम झूठ, फरेव, मक्कारी करते रहो ताउम्र और फिर पुण्य प्राप्ति की आस लगाए मुह उठाये चले जाओ भगवान् के दरवार में।  अभी कुछ सालों  से , जबसे यहाँ के लिए हैलीकॉप्टर सेवा प्रारम्भ हुई थी, ऐसा भी सुनने में आ रहा था कि नवविवाहित जोड़े हनीमून के लिए भी केदारनाथ का रुख करने लगे थे। अरे भाई इन तीर्थ स्थानों में जाने का समय सिर्फ वृद्ध लोगों का होता था, और आपने नोट किया होगा कि केदारनाथ में होटलों और व्यावसायिक धर्मशालाओं का पिछले एक दशक में एक सैलाब सा आ गया था।  इन्हें बनाने की मंजूरी आखिर दी किसने ? और यदि वो अनधिकृत बने थे तो तोड़ा क्यों नहीं गया? कुछ दशकों पहले तक केदारनाथ में रात रुकने की अनुमति यात्रियों को नहीं होती थी, उन्हें वापस गौरीकुंड आना पड़ता था, अगर वही सिस्टम अनुसरित किया जाता तो शायद इतना जानमाल  का नुकशान नहीं होता।  बारह-तेरह साल से उत्तराखंड में बीजेपी और कौंग्रेस की सरकारे रही है, क्या इनका सिर्फ मंदिर के खजाने तक ही हक़ जताने का अधिकार बनता था, कर्तव्य कुछ नहीं थे क्या ?        अब मैं आपको एक उदाहरण देना चाहूँगा, हालाँकि जो उदाहरण मैं देंने जा रहा हूँ वह स्तरीय नहीं कह सकता, किन्तु दूंगा जरूर;

मान लीजिये कि सुहानी भोर पर आप किसी एकांत में या पार्क के कोने में बैठे ध्यान मग्न है, तभी बहुत सारे गली के कुत्तों का झुण्ड उधर आपके इर्द-गिर्द घूमने लगें तो आप की प्रतिक्रया होती है, हट-हट कहकर उन्हें भगाने की। अब फर्ज कीजिये कि जब आप ध्यान मग्न है और  ये धूर्त कुत्ते भागने की बजाये आपके ऊपर ही,,,,,,,,,,,,,,,,. सोचिये आप किस हद तक जा सकते है ऐसी परिस्थितियों में? जैसा कि मीडिया के ख़बरों से आपको ज्ञात हो ही गया होगा कि वहाँ उस छोटे से पहाडी क्षेत्र में पैंतालिस से पचास हजार तक लोग हर रोज ठहरते थे, उनका मल-मूत्र ? ,,,,,,,उनके द्वारा फैलाई जाने वाली अन्य गंदगियां ? भाई मेरे , अगर भोलेनाथ पर विश्वास करते हो तो यह भी तो जानते होंगे आप कि भोलेनाथ उस पहाडी जगह पर क्यों गए होंगे  ? उन्हें एकांत चाहिये था। और यह मनुष्य का अतिक्रमण आखिर वे भी कब तक बर्दाश्त करते ?

अंत में, अब आगे यदि उत्तराखंड या अन्य पहाडी जगहों  पर लोग , सैलानी, भक्त इत्यादि नही  जाते, तो निश्चित तौर पर वहाँ के  अनेकों लोगो के रोजगार पर असर पड़ेगा, वहाँ की अर्थव्यवस्था पर असर पडेगा।  किन्तु यही कहूंगा कि आप लोग अपनी सेहत की चिंता कीजिये, अपने परिवारों की चिंता कीजिये और जहां तक हो सके वहाँ जाने की चेष्ठा कम ही करे, प्लीज ! मन चंगा तो बहती रहे कठौती में गंगा, अपने कर्मों पर ध्यान अधिक दीजिये और भगवान् की दया पर निर्भर रहना कम कीजिये।  भाड  में गई अर्थव्यवस्था। जहां इतने घोटालों , चोरी , लूटमार से देश की अर्थव्यवस्था चल ही रही है तो वैसे ही उन परदेशो  की भी चल जायेगी। वहाँ के मूल निवासियों को भी कृपया थोड़ा शकुन की जिन्दगी जीने दें। आप को शायद ही पता हो कि यात्रा सीजन शुरू होते ही स्थानीय लोगो को कोई वाहन उन दुर्गम रास्तों पर अपने घर जाने के लिए  नहीं मिलता क्योंकि  सभी सार्वजनिक वाहन यात्रियों की सेवाभक्ति में झोंक दिए जाते है।  जब मैदानों से लोग नहीं जायेंगे, तभी इन सुप्त और भ्रष्ट सरकारों की भी नींद खुलेगी और वो आम इंसानों की जान को भी तबज्जो देंगे।                
  
    
          

12 comments:

  1. मन चंगा तो बहती रहे कठौती में गंगा, अपने कर्मों पर ध्यान अधिक दीजिये और भगवान् की दया पर निर्भर रहना कम कीजिये। भाड में गई अर्थव्यवस्था। जहां इतने घोटालों , चोरी , लूटमार से देश देश की अर्थव्यवस्था भी चल ही रही है वैसे उन परदेशो की भी चल ही जायेगी।

    बहुत सटीक.

    रामराम.

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  2. कुछ अंधविश्वास , कुछ लोगों की लालची प्रवृति और कुछ सम्बंधित विभागों की लापरवाही से पर्यावरण नष्ट हो रहा है। फिर परिणाम तो भुगतना ही पड़ेगा।

    आक्रोश जायज़ है।

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  3. बहुत सही आकलन -पर लोग औचित्य पर विचार न कर मनमानी पर उतारू रहते है,तात्कालिक सुख की चाह होती है केवल !

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  4. बहुत ही सुन्दर और यथार्थ परक आलेख . मैं आपकी बात से पूर्णतः सहमत हूँ . दरअसल तीर्थ यात्राएँ अब पिकनिक मात्र बनकर रह गयी हैं .

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  5. जब ईश्वर सर्वत्र है तो उनके लिए पहाड़ों में जाना अधविश्वास के अलावा कुछ नहीं. धर्मान्धता और राजनीति देश को पतन की ओर ले जा रहा है
    latest post परिणय की ४0 वीं वर्षगाँठ !

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  6. .एकदम सही कहा आपने आभार गरजकर ऐसे आदिल ने ,हमें गुस्सा दिखाया है . आप भी जानें संपत्ति का अधिकार -४.नारी ब्लोगर्स के लिए एक नयी शुरुआत आप भी जुड़ें WOMAN ABOUT MAN

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  7. आपकी भावना समझी जा सकती है। हमारी लोभी प्रवृत्ति ने पूरे देश को ही नर्क बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है, फिर दुर्गम तीर्थ-स्थल कैसे बचें? धारी देवी का ही नहीं, कोई भी मंदिर, घर, गाँव बचना चाहिए लेकिन यदि धारी देवी को यदि मूर्ति हटाने का कोप करना होता तो वे उसे मूर्ति हटाने वालों तक सीमित कर सकती थीं। घटना के बाद लुटेरे केदारनाथ मंदिर की हुंडियाँ तक लाशों के बीच से लूटकर ले गए, लानत है ऐसी राक्षसी प्रवृत्ति पर ...

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  8. हर उम्र के उन दिवंगतों को मेरी भावभीनी श्रृद्धांजली, जिन्होंने 16-17 जून, 2013 को आये पहाड़-प्रलय में न सिर्फ अपनी जान गंवाई अपितु बहुत ही कष्टकारी माहौल में अपनी अंतिम साँसे गिनी। अब ये चाहे मानव निर्मित हो या फिर दैविक प्रलय, किन्तु आपदा से उपजी विपदा की इस घड़ी में हर इंसान का यह पहला कर्तव्य बनता है कि पीड़ितों का दुःख-दर्द समझे और उन्हें हर संभव मदद पहुंचाएँ...!
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    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज रविवार (23-06-2013) को मौत से लेते टक्कर : चर्चा मंच 1285 में "मयंक का कोना" पर भी है!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  9. आपके आलेख से शतप्रतिशत हूँ ! पर्यावरण विनाश की कीमत पर विकास नहीं चाहिए हमें और आगे से चली आ रही ऐसी व्यवस्थाओं को क्यों बदला जा रहा है जिनका संबध पर्यावरण में संतुलन बनाए रखने से था !

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  10. सटीक लेख .... अब भी नहीं सोचा तो और न जाने क्या कहर होगा ।

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  11. अब तो ठहरा रहेगा आस्था का बहाव, न जाने कितने दिनों तक।

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  12. एक बहुगुणा है, एक गि‍रधर गोमांग था और एक था नीरो...

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।