अपना भी न पाये तुझे ढंग से, हुई भी न तू हमारी,
अलगा भी न सके खुद से, तुझको ऐ दुनियादारी।
छोड़ देते जो अगर साथ तेरा, तो ही अच्छा होता,
न सीने में बेचैनी होती और न दिल में बेकरारी।
क्या बाहर, क्या घर में,लटके रहे सिर्फ अधर में,
रिश्तों-वास्तों की ही हर तरफ, रही मारामारी।
पार्थिव होकर के पड़े जब, तेरे चक्करों में हम,
जिन्दगी तमाम हमने, उलझनों में ही गुजारी।
खातिर मर्जे-उदासी खोले,हमदर्दी के दवाखाने,
मुफ्त में औषध बांटी, छुपाकर अपनी लाचारी।
सहचर बनके संग चले, मिला जो कोई अकेला,
किंतु कांधा भी न मिला परचेत, हमें अपनी बारी।
जख्म हमको न अगर गहरा, तुमने दिया होता,
तो फिर भला क्यों ये ज़हर हमने भी पिया होता,
अगर तुम उन जख्मों पे नमक ही न छिड़कते,
तो कुछ सहारा मरहमों का हमने भी लिया होता।
ये दुनिया है ही ऐसी.
ReplyDeleteसहचर बनके संग चले, मिला जो कोई अकेला,
ReplyDeleteकिंतु कांधा भी न मिला परचेत,हमें अपनी बारी।
...अपनी बारी पर ऐसे ही हो जाती है दुनिया दारी ... फिर भी निभाना तो पड़ती ही है ..
बहुत बढ़िया प्रस्तुति
बड़ी उदास है जिन्दगी, एक सच्चा साथी चाहिए।
ReplyDeleteखातिर मर्जे-उदासी खोले,हमदर्दी के दवाखाने,
ReplyDeleteमुफ्त में औषध बांटी, छुपाकर अपनी लाचारी।,,वाह बहुत उम्दा,,
Recent post: ओ प्यारी लली,
धीर धरें, वह देख रहा है, कोई घर तक आता होगा।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (02-06-2013) के चर्चा मंच 1263 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
ReplyDeleteबहुत भावात्मक अभिव्यक्ति मन को छू गयी .आभार . ''शादी करके फंस गया यार ,...अच्छा खासा था कुंवारा .'' साथ ही जानिए संपत्ति के अधिकार का इतिहास संपत्ति का अधिकार -3महिलाओं के लिए अनोखी शुरुआत आज ही जुड़ेंWOMAN ABOUT MAN
ReplyDeleteक्या बाहर, क्या घर में , लटकते रहे अधर में,
ReplyDeleteहर तरफ रिश्तों-वास्तों की ही, रही मारामारी।--------
बहुत सार्थक और सटीक बात कही है
वाह बहुत खूब प्रस्तुति
आग्रह है पढें,ब्लॉग का अनुसरण करें
तपती गरमी जेठ मास में---
http://jyoti-khare.blogspot.in
अच्छी रचना, बहुत सुंदर
ReplyDeleteनोट : आमतौर पर मैं अपने लेख पढ़ने के लिए आग्रह नहीं करता हूं, लेकिन आज इसलिए कर रहा हूं, ये बात आपको जाननी चाहिए। मेरे दूसरे ब्लाग TV स्टेशन पर देखिए । धोनी पर क्यों खामोश है मीडिया !
लिंक: http://tvstationlive.blogspot.in/2013/06/blog-post.html?showComment=1370150129478#c4868065043474768765
वाह लाजवाब गजल, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
क्या बाहर, क्या घर में , लटकते रहे अधर में,
ReplyDeleteहर तरफ रिश्तों-वास्तों की ही, रही मारामारी ...
सच कहा है रिश्ते आजकल बहुत कीमती हो गए हैं .... खरीदने पड़ते हैं ... नहीं तो अधर में ही लटकते हैं ...
ACHCHHI RACHNA...
ReplyDeleteखातिर मर्जे-उदासी खोले,हमदर्दी के दवाखाने,
मुफ्त में औषध बांटी, छुपाकर अपनी लाचारी।
BAHUT KHUB.
भाई जी, ठीक कहा आपने....
ReplyDeleteजब आई हमारी बारी
चारों ओर मिली लाचारी ...
शुभकामनायें !
quite realistic creation...
ReplyDeleteउम्दा ग़ज़ल !
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