Saturday, June 1, 2013

ऐ दुनियादारी !





अपना भी न पाये तुझे ढंग से, हुई भी न तू हमारी,       
अलगा भी न सके खुद से, तुझको ऐ दुनियादारी।

छोड़ देते जो अगर साथ तेरा, तो ही अच्छा होता,
न सीने में बेचैनी होती और न  दिल में बेकरारी।

क्या बाहर, क्या घर में,लटके रहे सिर्फ अधर में,
 रिश्तों-वास्तों की ही हर तरफ, रही मारामारी।    

पार्थिव होकर के पड़े जब, तेरे चक्करों में हम, 
जिन्दगी तमाम हमने, उलझनों में ही गुजारी।   

खातिर मर्जे-उदासी खोले,हमदर्दी के दवाखाने,  
मुफ्त में औषध बांटी, छुपाकर अपनी लाचारी।

सहचर बनके संग चले, मिला जो कोई अकेला, 
किंतु कांधा भी न मिला परचेत, हमें अपनी बारी।






जख्म हमको न अगर गहरा, तुमने दिया होता,
तो फिर भला क्यों ये ज़हर हमने भी पिया होता,    
अगर  तुम उन जख्मों पे नमक ही न छिड़कते,
तो कुछ सहारा मरहमों का हमने भी लिया होता। 

16 comments:

  1. सहचर बनके संग चले, मिला जो कोई अकेला,
    किंतु कांधा भी न मिला परचेत,हमें अपनी बारी।
    ...अपनी बारी पर ऐसे ही हो जाती है दुनिया दारी ... फिर भी निभाना तो पड़ती ही है ..
    बहुत बढ़िया प्रस्तुति

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  2. बड़ी उदास है जिन्‍दगी, एक सच्‍चा साथी चाहिए।

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  3. खातिर मर्जे-उदासी खोले,हमदर्दी के दवाखाने,
    मुफ्त में औषध बांटी, छुपाकर अपनी लाचारी।,,वाह बहुत उम्दा,,


    Recent post: ओ प्यारी लली,

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  4. धीर धरें, वह देख रहा है, कोई घर तक आता होगा।

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  5. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (02-06-2013) के चर्चा मंच 1263 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ

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  6. बहुत भावात्मक अभिव्यक्ति मन को छू गयी .आभार . ''शादी करके फंस गया यार ,...अच्छा खासा था कुंवारा .'' साथ ही जानिए संपत्ति के अधिकार का इतिहास संपत्ति का अधिकार -3महिलाओं के लिए अनोखी शुरुआत आज ही जुड़ेंWOMAN ABOUT MAN

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  7. क्या बाहर, क्या घर में , लटकते रहे अधर में,
    हर तरफ रिश्तों-वास्तों की ही, रही मारामारी।--------

    बहुत सार्थक और सटीक बात कही है
    वाह बहुत खूब प्रस्तुति


    आग्रह है पढें,ब्लॉग का अनुसरण करें
    तपती गरमी जेठ मास में---
    http://jyoti-khare.blogspot.in

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  8. अच्छी रचना, बहुत सुंदर


    नोट : आमतौर पर मैं अपने लेख पढ़ने के लिए आग्रह नहीं करता हूं, लेकिन आज इसलिए कर रहा हूं, ये बात आपको जाननी चाहिए। मेरे दूसरे ब्लाग TV स्टेशन पर देखिए । धोनी पर क्यों खामोश है मीडिया !
    लिंक: http://tvstationlive.blogspot.in/2013/06/blog-post.html?showComment=1370150129478#c4868065043474768765

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  9. वाह लाजवाब गजल, शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  10. क्या बाहर, क्या घर में , लटकते रहे अधर में,
    हर तरफ रिश्तों-वास्तों की ही, रही मारामारी ...

    सच कहा है रिश्ते आजकल बहुत कीमती हो गए हैं .... खरीदने पड़ते हैं ... नहीं तो अधर में ही लटकते हैं ...


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  11. ACHCHHI RACHNA...
    खातिर मर्जे-उदासी खोले,हमदर्दी के दवाखाने,
    मुफ्त में औषध बांटी, छुपाकर अपनी लाचारी।
    BAHUT KHUB.

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  12. भाई जी, ठीक कहा आपने....
    जब आई हमारी बारी
    चारों ओर मिली लाचारी ...
    शुभकामनायें !

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  13. quite realistic creation...

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  14. वाह! दुविधा में दोऊ गए, माया मिली न राम ...

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।