क्षद्म-दाम-वाम के नापतोल बहुत हो गए, क्या करें,
सब रंग फीके पड़ गए घोल बहुत हो गए, क्या करें।
कलतलक जिन्हें जानता न था, श्वान भी गली का,
ऐसे दुर्बुद्धिवृन्दों के मोल बहुत हो गए , क्या करें।
जिसको भी देखो,यहां से वहाँ लुढ़कता ही जा रहा,
ये थालियों के बैंगन गोल बहुत हो गए, क्या करें।
कथानक अंतर्निहित मद का खो दिया संचार ने,
डुगडुगी बजाने को ढोल बहुत हो गए , क्या करें।
हरतरफ से उद्विकास की छिजने लगी अब "आश",
'परचेत' तृभूमि में "होल"बहुत हो गए, क्या करे।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (03-11-2015) को "काश हम भी सम्मान लौटा पाते" (चर्चा अंक 2149) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सार्थक पंक्तियाँ
ReplyDeleteकथानक अंतर्निहित मद का खो दिया संचार ने,
ReplyDeleteडुगडुगी बजाने को ढोल बहुत हो गए , क्या करें।
...बहुत सही ...