उनकी पहली मुलाकात गर्मियों के दिनों में गाँव में खेली जा रही रामलीला के सेट पर हुई थी। इस रामलीला में कृष्णा सूपर्णखा का और मुकेश लक्ष्मण का पाठ अदा कर रहे थे। पहली ही नजर दो दिलों को इसकदर भेद जायेगी, दोनों ने शायद सपने में भी नहीं सोचा होगा। गर्मियों की छुट्टियों के बाद जब स्कूल खुले तो चूँकि दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे, मुकेश बारहवी में था और कृष्णा दसवी कक्षा में थी, तो दोनों का मिलना-जुलना जारी रहा। अब तक वे दोनों एक दूसरे को मन ही मन चाहने भी लगे थे। पहाडी इलाका होने की वजह से सर्दियों के दिनों में स्कूल के अध्यापक गुनगुनी धूप सेखने के उद्देश्य से बच्चो की अलग-अलग कक्षाएं, बाहर स्कूल के प्रागण में लगाते थे । दसवी, ग्यारहवी और बारहवी की कक्षाए पास-पास ही लगती थी । जब भी कृष्णा घर से कोई ख़ास पकवान बनाकर लंच के लिए टिफिन में लाती, तो मुकेश को लंच-ब्रेक पर इशारों-इशारों में स्कूल के पीछे की सीढीनुमा क्यारियों में बुला लेती, और फिर दोनों वहीँ बैठकर लंच करते ।
दोनों का प्यार परवान चढ़ता गया और मुकेश के बारहवी पास कर जाने के बाद भी मिलना-जुलना जारी रहा। चंडीगढ़ से होटल मैनेजमेंट का डिप्लोमा करने के तुंरत बाद मुकेश को रियाद, सऊदी अरब के एक होटल में नौकरी मिल गई, और वह साउदी अरब चला गया। इतनी दूर जाकर उसे अपने देश, गाँव, परिवार और कृष्णा की याद हमेशा सताती रहती। वह वहाँ नौकरी तो कर रहा था, मगर दिल में हर वक्त अपने वतन की ही खुसबू समेटे रहता। और सच बात यह थी कि उसे वहाँ की आबो-हवा, रहनसहन, वहाँ के शेखो का , वहाँ काम करने वाले एशियाई मूल के लोगों, खासकर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के लोगों के साथ किया जाने वाला पक्षपातपूर्ण बर्ताव ज़रा भी रास नहीं आता था।
वहाँ पहुँचकर उसने उसी होटल में काम करने वाले केरल के अपने एक साथी के मार्फ़त,शहर के एक कोने पर मकान किराये पर लिया था । जबसे उस केरल के मित्र ने वहाँ के रीति रिवाज और कुछ भेदभावपूर्ण बातों के बारे में उसे बताया था, उसे खुद पर खीझ सी आने लगी थी , मगर क्या करता, एक तो रोजी-रोटी का सवाल और ऊपर से उस कंपनी के साथ दो साल का लिखित अनुबंध ।
दो साल दो जुगों की तरह बीते। और आखिरकार वह घड़ी आई, जब वह घर को लौट चला। दिल्ली एअरपोर्ट से रात को टैक्सी पकड़कर सुबह ऋषिकेश पहुँच गया और फिर वहां से आगे के सफ़र के लिए पहाडी बस पकड़ी और अपने पहाडी गाँव के समीप के कसबे, जो कि गाँव से तकरीबन ३० किलोमीटर दूर था, वहाँ तकरीबन सुबह ११ बजे पहुँच गया था। उस कस्बे से उसके गाँव के लिए रोजाना दिन में सिर्फ़ दो ही बसे जाती थी, एक १० बजे सुबह और दूसरी ४ बजे शाम को । शाम वाली बस का कोई निश्चित तौर पर जाने का कार्यक्रम नही होता था , सिर्फ सवारियों की तादाद पर उसका जाना निर्भर होता था। चूंकि प्रात: १० बजे वाली बस निकल चुकी थी और वहाँ कोई टैक्सी भी उपलब्ध नही थी, अतः उसने बिना समय गंवाए, अपनी अटेची अपने कंधे में रखी और पैदल ही गाँव को कूच कर गया।
उसके गाँव पहुँचने के लिए पहले एक खड़ी पहाडी चढ़ाई पार करनी पड़ती थी , और फिर ढलान उतरकर नीचे तलहटी में उसका गाँव पड़ता था। गाँव से करीब तीन किलोमीटर दूर जब वह लगभग वह चढ़ाई शिखर पार करने के बिल्कुल करीब था तो उसने देखा कि उससे कुछ दूरी पर एक युवती जंगल से घास काटकर, घास की गठरी अपनी पीठ पर लादे, उसी रास्ते पर आगे बढ़ी जा रही थी । जब वह उसके करीब पहुँचा तो यह देख उसकी खुसी का ठिकाना नही रहा कि वह कोई और नही बल्कि कृष्णा ही थी, उसकी वही कृष्णा, जिसे वह दिलोजान से चाहता था । जैसे ही उसने उसे उसके नाम से पुकारा, कृष्णा ने तुंरत घास की गठरी पीठ पर से उतार जमीन पर रख दी और मुकेश से प्रेमालिंगन हो गई और उसके गले में अपनी बाहों का फंदा बनाकर जी-भरकर रोई ।
पांच बज चुके थे , पहाडी खाइयों में शाम दस्तक देने लगी थी । वहाँ से ऊपर पहाड़ की चोटी पर पहुँचकर वे लोग एक पेड़ के पास बैठ गए और फिर कुछ देर तक बातें करते रहे । जब अँधेरा छाने लगा तो मुकेश ने उसे चलने को कहा, कृष्णा ने फिर घास की गठरी पीठ पर रखी और मुकेश से अटेची भी उसकी पीठ पर ही रखने को कहा । मुकेश ने मना किया तो वह जिद करने लगी , न चाहते हुए भी मुकेश ने अटेची भी कृष्णा की पीठ पर घास की गठरी के उपर रख दी ।
हौले-हौले डग बढाते जब दोनों मुकेश के गाँव से करीब पहुंचे तो कृष्णा रुक गई। , उसने बड़े ही उदास चेहरे और सुर्ख आँखों से मुकेश की ओर देखा । इस जगह, जहाँ वे खड़े थे, मुकेश और कृष्णा के गाँव के रास्ते अलग हो जाते थे । मुकेश ने उसकी पीठ से अपनी अटेची उतारी और उसके सिर पर ज्यो ही हाथ फेरा वह फिर से फफककर रो पड़ी । मुकेश ने उसे पुचकारा, समझाया और जल्दी ही उसे उसके साथ परिणय-सूत्र में बंधने का आश्वासन देते हुए कहा कि अब तुम रुको मत, अँधेरा होने लगा है, फटाफट घर जावो। सुबकती कृष्णा एक बार पुन; उससे आलिंगनबद्ध गई, और कुछ देर उपरान्त दोनों ही अपने-अपने रास्ते पर चल दिए। काफ़ी दूर तक दोनों एक दूसरे को मुड-मुड़कर देखते भी रहे थे।
घर पहुंचकर मुकेश अपने माता-पिता और परिजनों से मिलकर बहुत खुश हुआ, मानो वह उसके लिए कोई दिवा-स्वपन हो। कृष्णा से हुई मुलाकात ने मुकेश को कुछ ज्यादा ही उतावला कर दिया था। घर के सभी सदस्यों से मिलने के बाद, उसने तुंरत माँ और बापूजी से कृष्णा के साथ अपनी शादी की बात छेड़नी चाही तो माँ पल्लू से अपना मुहँ ढककर दूसरे कमरे में चली गई और बापूजी ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, बेटे अभी आराम कर, इतनी दूर से यात्रा करके आया है। खाना खा और फिर सो जा, हम लोग इसके बारे में कल सुबह बात करेंगे ।
सुबह जब मुकेश उठा तो नहा-धोकर, नाश्ता करने के बाद पुनः बापूजी के पास गया, और थोड़ा इधर-उधर की बातें करने के बाद उसने सीधे कृष्णा की बात उठाई। हुक्का गुडगुडाते उसके पिता ने हुक्के का नाय्चा अपनी बगल में रखते हुए एक लम्बी साँस छोड़ते हुए बुजुर्गिया अंदाज में उसे समझाते हुए कहना शुरू किया। ब्योरेवार विवरण उसके समक्ष रखते हुए उन्होंने कहा; बेटा, तू अब कृष्णा को भूल जा, वह अब इस दुनिया से बहुत दूर चली गई है। अभी एक साल पहले की तो बात है, कृष्णा के बारहवी पास करने के बाद, मैंने उन लोगो से बहुत कहा,बहुत गुजारिश की, मगर उसके मां-बाप तेरे इन्तजार में अपनी जवान बेटी को घर पर रखने को तैयार नहीं थे। उसके सगे-संबधियों ने उसका रिश्ता बगल वाले गाँव के एक परिवार के साथ तय कर दिया था। सगाई के दूसरे ही दिन कृष्णा घर से जंगल घास लेने के बहाने गई और वही एक पेड से लटककर उसने आत्महत्या कर ली।
पिता के मुहं से यह सब सुनकर मुकेश हक्का-बक्का सा रह गया था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर वो उनसे क्या कहे, क्या करे। रूढ़िवादिता और भूत-प्रेत पर उसे तनिक भी विश्वास नहीं था, और गाँव वाले अगर कोई ऐसी बात कभी उसके समक्ष करते तो वह उनका मजाक उडाता नहीं थकता था। इस वक्त वह कभी अपने बापूजी को और कभी माँ को देखे जा रहा था । अवाक सा खड़ा मुकेश अपने माँ-बाप को अब यह भी कैसे बताये कि अभी पिछली ही शाम को तो कृष्णा रास्ते में उसे मिली थी और वे तकरीबन एक घंटा साथ रहे। कृष्णा उससे चिपककर रोई भी थी, उसने उसे समझाया-बुझाया भी था। हाँ, उसे इतना जरूर अनुभव हो रहा था कि उसे उस वक्त यह महसूस नही हुआ था कि कोई उसके शरीर से लिपटा हुआ है। तो क्या वो वही थी, क्या वह कृष्णा ही थी ? वो-वो-वो……… वह बस, अपना दाहिना हाथ हवा में उठाये वो… वो. ही किये जा रहा था, और घर के सभी सदस्य एकटक उसका मुहं देखे जा रहे थे।
bahut hi adbhut or marmik......kya ye sach hai...kya ye ho sakta hai
ReplyDeletewell composed story
ReplyDeleteThanks a lot Manvinder ji and Makrand ji, आप लोगो के उत्साह वर्धन से ही आगे लिखने की प्रेरणा मिलती है !
ReplyDeleteपुनश्च धन्यवाद !
गोदियाल
मुकेश कुछ याद करने की कोशिश कर रहा था कि जब कृष्णा उससे चिपट कर रोई थी तो उसको यह महसूस नही हुआ था कि कोई उससे लिपटा हुआ है, तो क्या वो वही थी ? उसको लगा कि उसका दिल जोर-जोर से कह रहा था, हाँ वो वही थी !
ReplyDelete" इस कहानी को पढ़ कर दिल एक अजीब सी कल्पना की दुनिया में खो गया और एक रोमांचक सी अनुभूति भी.... कहतें है की प्यारा कभी मरता नही है...शायद ये उनकी प्यार या चाहत की शिद्दत रही होगी की मुकेश से क्रष्णा मरने के बाद भी मिली....पता नही मगर कई बार ऐसी घटनाओं पर यकीन करने की दिल करता है...."
Regards
मै किसी और ब्लॉग को पढ़ते समय वहां के लिंक से इस कहानी तक आया ..... बेहद मार्मिक और प्रेम को परिभाषित करने वाली कथा है .... प्यार तो बस प्यार होता है .. वो जीवन के पहले भी होता और बाद भी ....
ReplyDeleteThanks a lot, Abhishek ji ! We are generally used to receive/read Blog-world types of comments. but your comment was really a pleasant surprise for me.
Delete