Wednesday, January 14, 2009

अनिष्ट से आशंकित एक कली !


सूबे-मुल्क की राजधानी में 
हुमायु के मकबरे के पास,
माली के छोटे से उपवन में
बैठी थी एक कली उदास !

कली खिलकर किसी भी पल
फूल बनने के कगार पर खड़ी थी,
भवितव्यता चिंता की लकीरें
 
तमाम उसके माथे पर पडी थी !

पूछा जो उलझन का सबब,
वो बोली  भाव-विभोरकर,
मुझे बलि चढ़ाया जाएगा
संभवतया अगली भोर पर !


मृत्यु-शय्या पर है शठ नेता, 
कुटिल जुट रहे उसकी गेह पर,
मैं गिरना नहीं चाहती मगर
 भ्रष्ट सियासतदानों की देह पर !


3 comments:

  1. अच्छी कविता है भाई... बधाई स्वीकारें...

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  2. बहुत अच्छी कविता लिखते हैं आप. गलतियों पर ध्यान नही दें, बस रचना सुन्दर होनी चाहिए. बधाई आपको.

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संशय!

इतना तो न बहक पप्पू ,  बहरे ख़फ़ीफ़ की बहर बनकर, ४ जून कहीं बरपा न दें तुझपे,  नादानियां तेरी, कहर  बनकर।