Thursday, March 22, 2012

धन-शोहरत की चकाचौंध को शहर कहते है लोग !

इस माह के द्वितीय सप्ताह में, किसी काम से दक्षिण को जाते हुए एक दिन के लिए मुंबई में रुका था ! मुंबई में गंतव्य की ओर बढ़ते हुए टैक्सी की पिछली सीट पर खामोश बैठा उस शहर को बस यूँ ही बारीकी से निहार रहा था, तो सहसा उर्दू के मशहूर शायर अखलाक़ मौहम्मद खान 'शहरयार' , जिनका गत माह ७६ साल की उम्र में निधन हो गया था, और जिन्होंने आम आदमी के जीवन से जुड़ी तल्ख हकीकत को बड़ी सादगी से अपने गीतों में शब्द दिए, उनकी वे पंक्तियाँ " ...इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है..." बरबस याद आ गई! उनकी इन पंक्तियों को ही गुनगुना रहा था कि अचानक अपने शहर के लिए भी बस यूं ही गजल की दो लाइने बन पडी और मैंने उन्हें उसी वक्त अपने मोबाइल फोन में टाईप कर संचित कर लिया था! कल जब उस पर फिर से नजर गई तो जो चंद और लाइने बन पडी, आपकी खिदमत में पेश है ;


उजले हैं वसन, सुनहरे बदन, दिल काला क्यों है,
यहाँ हर शख्स के मुंह पे पडा ये ताला क्यों है।


धन-शोहरत की चकाचौंध को शहर कहते है लोग,
शठ-शैतानो के ही महलों में मगर उजाला क्यों है।


सीने में कपट, निगाहों में हवस लिए फिरते हैं,
चोरी के माल पे रौब जमाता हरेक लाला क्यों है।


दहशत जीते लम्हों के साए में सभी खामोश हैं,
अपनी ही विपदा रोती मगर ये खाला क्यों है।


नाम साफ़-सुथराई के जो झगड़ने का बहाना ढूंढें,
देहरी से निकलता उसी के ये गंदा नाला क्यों है।


सुत संग सुल्तानों ने भी जाम छलकाया हैं जबसे,
यहाँ अकुलाई सी नजर आती ये हाला क्यों है।


शरीफों के लिए अब कोई ठिकाना न रहा 'परचेत'
देखकर कुछ ऐसा ही यकीं, होता ये साला क्यों है।
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छवि गुगुल से साभार !

14 comments:

  1. बागी दिल से चला ये तीर ...निशाने पर !
    शुभकामनाये भाई जी !

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  2. बहुत ही बढि़या।

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  3. उजले हैं वसन, सुनहरे बदन, दिल काला क्यों है,
    यहाँ हर शख्स के मुंह पे पडा ये ताला क्यों है।
    बढ़िया ग़ज़ल .यह कुछ इस तरह है -

    फुलवारी का शौक़ीन मिला ,हर घर पत्थर का बना हुआ ,

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  4. बढ़िया गजल प्रस्तुत की है आपने!

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  5. धन-शोहरत की चकाचौंध को शहर कहते है लोग,
    शठ-शैतानो के ही महलों में मगर उजाला क्यों है।


    बहुत बढ़िया सवाल पूछा है ।
    शानदार ग़ज़ल ।

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  6. नाम साफ़-सुथराई के जो झगड़ने का बहाना ढूंढें,
    देहरी से निकलता उसी के ये गंदा नाला क्यों है ..

    बहुत खूब ... अपने घर को साफ़ नहीं रख पाते और दूसरों से सफाई की बात करना या झगडना ... क्या बात कह दी शहरयार जी की याद में ...

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  7. नाम साफ़-सुथराई के जो झगड़ने का बहाना ढूंढें,
    देहरी से निकलता उसी के ये गंदा नाला क्यों है।
    bahut badhiya

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  8. उजले हैं वसन, सुनहरे बदन, दिल काला क्यों है,
    यहाँ हर शख्स के मुंह पे पडा ये ताला क्यों है।

    धन-शोहरत की चकाचौंध को शहर कहते है लोग,
    शठ-शैतानो के ही महलों में मगर उजाला क्यों है।

    शरीफों के ठहरने का कोई ठिकाना न रहा 'परचेत'
    देखके कुछ ऐसा ही यकीं होता ये साला क्यों है।


    वाह वाह !
    बहुत खूबसूरत ग़ज़ल है
    मुबारकबाद !

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  9. वाह !
    बहुत खूबसूरत ग़ज़ल |

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  10. बहुत सुन्दर प्रस्तुति| नवसंवत्सर २०६९ की हार्दिक शुभकामनाएँ|

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  11. खुबसूरत अशार... उम्दा ग़ज़ल...
    सादर.

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  12. बड़े शहरों की पीड़ा भी बड़ी होती है।

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।