Thursday, June 27, 2013

उत्तराखंड त्रासदी- कुछ अनुत्तरित सवाल !


१६ -१७ जून को उत्तराखंड के ऊपर वर्षी आसमानी विपदा ने इस देश की इक्कीसवीं सदी की तथाकथित विकास-परस्त सरकारों के चूले उखाड़ फेंके है। नि:संदेह एक बड़ा सवाल यह खडा हो गया है कि विकास सिर्फ देश और समाज  केन्द्रित होना चाहिए या फिर प्रकृति केन्द्रित भी। यह सवाल तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, खासकर जब अपने देश में विकास के माड़ल के संदर्भ में तमाम संसदीय राजनैतिक दलों की समझ एक सी ही है। 'उखाड़ फेंके है' से याद आया कि आजकल एक ख़ास राजनैतिक पार्टी "फेंकू" के फोबिया से काफी परेशान है। उसे शायद नींद में सपने भी फेंकू के ही आते होंगे। स्वाभाविक भी है कि जो फेंकू काम यह राजनैतिक पार्टी आजादी से भी दो दशक पहले, इनके दादाजी द्वारा इस पार्टी की कमान संभालने के बाद से ही कर रही थी, उसे चुनौती देने वाला इनसे भी 'ग्रेट फेंकू' सिर्फ १०-१२ सालों में  ही पैदा हो गया और अपनी साख बना भी ली।खैर, देश के वे तमाम लोग जिन्होंने इस आपदा को झेला है, कम से कम इस तथाकथित 'ग्रेट फेंकू' का इसलिए तहेदिल से शुक्रिया अदा कर रहे होंगे कि उसने भले ही खुद कुछ ख़ास न किया हो मगर इस सुप्त पडी सरकार को राजनैतिक प्रतियोगिता के बहाने ही सही, मगर कुछ करने के लिए कम से कम जगाया तो। वरना तो ये रोज की भांति साधनों की कमी का ही  रोना रोये जा रहे थे।              

हालांकि मैं भी एक संतुलित विकास का पक्षधर रहा हूँ किन्तु साथ ही इस बात का भी पुरजोर समर्थक हूँ कि आर्थिक विकास वास्तविक मायने में समूची मानवता के लिए विकासकारी होना चाहिए, विनाशकारी नहीं। साथ ही यह बात भी अपनी जगह पूर्णत; सत्य है कि इंसान यदि विकास चाहता है तो उसे कुछ तो कुर्बानियां भी देनी ही होंगी।  उत्तराखंड त्रासदी का एक अलग पहलू यह भी रहा कि इस दुखद त्रासदी के बहाने ही सही, किन्तु दुनिया के समक्ष हमारी मौकापरस्त सरकारों और प्रशासन की पोल खुल गई। जैसा कि कुछ दिन पहले मैंने अपने एक लेख में कहा था कि बाँध भी बनने चाहिए, लेकिन संतुलित आधार पर। ऐसा नहीं कि एक बाँध तो निर्मित होने के लिए पिछले बत्तीस सालों से इन्तजार कर रहा है, और दूसरी तरफ आप १५० नए बाँध बनाने की स्वीकृति देकर क्षेत्र की प्राकृतिक संरचना को अनाप-शनाप तरीके से नुकशान पहुचाओ।

संक्षेप में कहने का तात्पर्य यह है कि विकास कार्य भी निरंतर जारी रहने चाहिए किन्तु सलीखे से। "बाद में देखी जायेगी" वाला रवैया छोड़कर हमें लम्बी अवधि के परिणामो, दुष्परिणामो  का आंकलन योजना का खाका खींचने  से पहले ही करना होगा। जानता हूँ कि बहुत से लोग मेरी इस बात से शायद सहमत नहीं भी होंगे।  आजकल मीडिया पर भी अनेक ज्ञानी, विद्धवान ढेर सारी बातें कर अपनी दुकान चमकाने में लगे है।  जैसा कि मैं कह चुका कि इस देश के जड़बुद्धि लोगो, गैर-जिम्मेदाराना हुकुमरानो और अकर्मण्य तथा भ्रष्ट स्थानीय प्रशासन की वजह से प्रकृति को अपूरणीय क्षति पहुंचाई गई है, और बहुत कुछ ये आपदाए उसी पृष्ठभूमि की परिणिति हो सकती है, किन्तु इन ज्ञानी लोगो से मेरे भी चंद सवालात है;

१. आज तक आप कहते आये थे कि उत्तराखंड में जंगलों के अंधाधुंध कटाव और भूमि के दोहन से वर्षा पर इसका प्रभाव पडेगा, यानि कि वर्षा नहीं होगी या फिर बहुत कम होगी। फिर १६-१७ जून को उत्तराखंड में सामान्य से ४६० गुना अधिक वर्षा कैसे हुई ?

२. आप कहते है कि पहाड़ों में नदी के तटों ( रीवर बेड ) पर खनन नहीं होना चाहिए। कृपया उपाय बताएं कि जो रेत  और पत्थर इस आपदा में बहकर आये है और निचले भागों में रिहायशी इलाकों के आसपास तट की परत को ऊपर उठा गए है, यदि खनन नहीं हुआ और तट के लेबल को नीचे नहीं किया गया तो आगे चलकर बारिश के दिनों में नदी में थोड़ा सा भी जल-स्तर बढेगा तो वह सीधे रिहायशी इलाकों में घुसेगा,उसे कैसे रोक जाए? अभी गुप्तकाशी और गौरी कुण्ड के मध्य नदी के किनारे बसे जो कस्बे  इस आपदा की भेंट सिर्फ इसलिए चढ़े क्योंकि मंदाकिनी ने अपना रास्ता बदला।  उसकी बुनियाद में अगर आप झांकेंगे तो इसकी एक ख़ास वजह यह भी पांएगे कि काफी वक्त से रीवर- बेड में खनन कार्य बंद होने की वजह से वह ऊपर उठ चुका था और पानी को तट तोड़कर रास्ता बदलने में आसानी हुई।
         
३.यह भी सोचनीय बात है कि अगर पहाड़ों पर सड़क मार्गों का जाल न बिछाया गया, और जिस तरह सिर्फ चंद पुलों के बह जाने और टूटने से पूरा उत्तराखंड ही ठप पड  गया तो कभी चीन की तबियत ज्यादा ही बिगड़ जाए  तो उसे  उत्तराखंड के रास्ते दिल्ली पहुँचने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। ऐसा नहीं भी हुआ तो भी क्या वहाँ मौजूद हमारे सैनिकों की गिनी-चुनी रसद लाइन काटने में उसको ख़ास दिक्कत होगी क्या ? उसके लिए हमारे पास अन्य क्या विकल्प हैं ?  

४. जो राज्य सिर्फ जल और पर्यटन पर ही निर्भर है, अगर ये दोनों ही उसके लिए चुनौती बन जाएँ तो उसका आर्थिक विकास कैसे होगा ? क्या बाकी देश उसकी तमाम आर्थिक जिम्मेदारियां उठाने को तैयार है ?     

और अंत में, यह भी गौर करने लायक बात है कि अभी जो कुछ वहाँ हुआ, वो किसी निर्माणाधीन अथवा निर्मित परियोजना के नष्ट होने से नहीं हुआ।  विशेषज्ञ तो यहाँ तक कह रहे है कि अगर टिहरी बाँध नहीं बना होता तो मैदानी क्षेत्रों को जन-धन की भारी क्षति पहुँच सकती थी। उसने भागीरथी में आई बाढ़ को रोककर उसे अलंकनंदा के साथ मिलकर तवाही मचाने से रोक दिया।    
अंत में बस यही कहूँगा ;
          

छवि आजतक से साभार !

Tuesday, June 25, 2013

कार्टून कुछ बोलता है- उत्तराखंड त्रासदी !
















निकले तो थे गुपचुप दर्द बांटने 
बाढ़ पीड़ितों का,  
दर्मियाँ सफर तो भेद उनका 
किसी पे उजागर न हुआ, 

 मगर खुला भी तो कब, 
जब मंजिल पे वो पूछ बैठे;  
"आखिर इस जगह हुआ क्या था ?"   

Monday, June 24, 2013

प्रभु, चाह न रही मुझे अब तीरथ की।


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देखी ऐसी जो गत, 
तेरे दर,सत-पथ की,
प्रभु,चाह न रही, 
मुझे अब तीरथ की।

धाम तेरे आने की,
जो थी मन अभिलाषा,
दुखियारे जन को,
देते ख़त्म हुई दिलासा। 

हुई खण्डित धुन,
जोश,मुराद,मनोरथ की,
प्रभु,चाह न रही, 
मुझे अब तीरथ की।

पुण्य-सफर दुष्कर होगा,

अनजाने थे वो, 
वैकुण्ठ में पग धारण को 

दीवाने थे वो। 
   
खिले-अधखिले सब ही 

लील गई नदिया,
कुम्पित-मुरझाए से,

बचे फूल हैं बगिया। 

थर-थर कांपी तो होगी,

रूह भगीरथ की,
प्रभु,चाह न रही, 
मुझे अब तीरथ की।

उन्हें इल्म न था, 

जाकर तेरे द्वारे,
वक्त भी दे जाएगा 

उन्हें जख्म करारे। 

लुटेगी लाज प्रांगण 

तेरे, नथ-नथ की,   
प्रभु,चाह न रही, 
मुझे अब तीरथ की।

बनकर तलवार,

छड़ी कुदरत की घूमी,
विध्वंसित हो गई, 

जो थी देव-भूमि।  

घुले ही जा रही, 

बेकली मन-मथ की,
प्रभु,चाह न रही, 
मुझे अब तीरथ की।

Saturday, June 22, 2013

अब तो नहीं जाओगे न पहाड़ों पर ? जाना भी नहीं, प्लीज !




सर्वप्रथम हर उम्र  के उन दिवंगतों को मेरी भावभीनी श्रृद्धांजली, जिन्होंने 16-17 जून, 2013 को आये पहाड़-प्रलय में न सिर्फ अपनी जान गंवाई अपितु बहुत ही कष्टकारी माहौल में अपनी अंतिम साँसे गिनी। अब ये चाहे मानव निर्मित हो या फिर दैविक प्रलय, किन्तु आपदा से उपजी विपदा की इस घड़ी में हर इंसान का यह पहला कर्तव्य बनता है कि पीड़ितों का दुःख-दर्द समझे और उन्हें हर संभव मदद पहुंचाए। 

 अब बात उत्तराखंड की , मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से यह  जानकार मन को थोड़ा शान्ति का अनुभव हुआ कि स्थानीय लोगो ने अपनी तमाम कठिनाइयों को दरकिनार कर अपने पास मौजूद  सीमित साधनों से ही सही किन्तु बाहर से आये तमाम सैलानियों और धार्मिक श्रद्धालुओं की यथा-संभव मदद की। अच्छे लोंगो के बीच कुछ बुरे लोग भी अवश्य होते है और ऐसे  धुर्त लोग किसी भी मौके का फायदा उठाने से नहीं चूकते, वे यह भी भूल जाते है कि जिन मजबूर लोगो से वो आज फायदा उठाने की कोशिश कर रहे है, उन्ही के जैसी मजबूरी कभी उनके साथ भी तो आ सकती है। ऐसे ही कुछ वाकिये सुनने को मिले कि केदारनाथ में मौजूद कुछ नेपाली मजदूरों ने इन्सानियत नाम की चीज को शर्मशार किया। साथ ही कुछ दुकानदार लोगो ने इन असहाय लोगो से मन-माफिक दाम वसूले। खैर, अच्छा बुरा वक्त सबका आता है।  भगवान् से यही प्रार्थना  करूंगा कि ऐसा करने वालों को भी सबक अवश्य मिले। 

एक और बात उन सैलानियो और  तीर्थयात्री लोगो से भी कहना चाहूँगा जिन्हें यह शिकायत भी रही होगी कि स्थानीय लोग, खासकर वे लोग जो चार धामों के मार्गों के आस-पास आशियाने बनाए हुए है, गर्मजोशी के साथ उनकी मदद को आगे नहीं आये। इसकी एक ख़ास वजह है जिसका भुक्तभोगी कुछ सालों तक मैं भी रहा हूँ, बताना चाहूँगा । इस मार्ग पर चार-से छह महीने भिक्षुओं और पैदल यात्रियों ने इन लोगो का जीना मुहाल किया रहता है। गर्मी के दिनों में दोपहर में ज़रा आँख लगाने की कोशिश करो तब तक बाहर गेट पर ख़ट-ख़ट की आवाज आने लगती है। या तो कोई साधू, या फिर भखारी या फिर एक ख़ास स्थानीय ब्रेन्ड के भिक्षु, जिन्हें स्थानीय भाषा में लोग फिक्वाळ कहते है, बड़े-बड़े धार्मिक नारों के साथ भीख मांगते नजर आते है। एक सीमित आय वाला इन्सान इनके रोज-रोज के इस व्यवहार से कुपित हुआ रहता है, अत: उस तरह का उत्साह नहीं दिखा पाते जिसकी ऐसे ख़ास मौकों पर अपेक्षा की जाती है।  साथ ही एक निवेदन उन लोगो से भी करूंगा जो बद्रीनाथ धाम की यात्रा के वक्त अपना अता-पता  वहाँ के पंडों को लिखवा आते है और फिर सर्दियों के मौसम के दौरान ये पण्डे लोग मैदानों में उनके बिन बुलाये मेहमान बनकर आ जाते है। इन्हें ख़ास कुछ न भेंट करें, क्योंकि इस अंधी कमाई को ही ये लोग फिर अनाप-शनाप ढंग से वहाँ होटलों, धर्मशालाओं के नाम पर इन्वेस्ट करते है, जिससे पर्यावरण को भारी नुकशान पहुंचता है।           
                 
बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि वह चाहे किसी भी राजनैतिक दल की ही क्यों न हो, किन्तु आज के इस लोकतंत्र की ज्यादातर सरकारे अचैतन्य अवस्था में चली गई प्रतीत होती है। सत्ता में बैठे भ्रष्ट किसी उपलब्धि का श्रेय लेने तो तत्काल पहुँच जाते है, किन्तु  विपदा की घड़ी में अपनी गर्हा और अकर्मण्यता छुपाने हेतु दोषारोपण के लिए बली के बकरे ढूढ़ते फिरते है। इनकी बेशर्मी और पाजीपन की हद ये है कि इन्हें इनका राज-धर्म बताने के लिए लोकतंत्र के अन्य स्तंभों को समय-समय पर बीच में आकर इनको जगाना पड़ता है। राजनैतिक और प्रशासनिक गलियारों में कुंडली मारे बैठे कुछ भ्रष्टो के लिए तो यह पहाडी-प्रलय मानो सुनहरे ख्वाबों और भविष्य की संभावनाओं की सौगात लेकर आ गया है। ख्वाब बुने जा रहे होंगे कि इतना स्विस बैंक में रखूंगा/रखूँगी, इतना रियल एस्टेट में लगाऊंगा/लगाऊँगी, इतना बीबी/शोहर और मासुका को खुश करने हेतु खर्च करुगा/करूंगी, बेटे के लिए बँगला और बेटी के लिए दूर के रिश्तेदार के नाम से गोवा में होटल। थोड़ा बहुत जो बचेगा उसे अपनी राजनीति चमकाने के लिए राहत के नाम पर चुनिन्दा प्रसंशको में वितरित कर दूंगा/दूंगी, इत्यादि-इत्यादि।             
माँ धारी देवी मंदिर - तब
माँ धरै देवी अम्न्दिर- अब 
अर्धनिर्मित श्रीनगर डैम 



सत्ता में बैठे लोग संवेदनहीन हो चुके है, इन्हें जनता की जेब से अपने ऐशो-आराम के लिए सिर्फ पैसा चाहिए, बस। यह स्पष्ट कर दूं कि मैं उत्तराखंड में बांध बनाए जाने का विरोधी नहीं हूँ, लेकिन इस बात का पुरजोर विरोध करता हूँ कि अव्यवस्थित तरीके से विकास और परियोजनाओं के नाम पर प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ नहीं की जानी चाहिए। एक-दो परियोजनाओं को पहले ढंग से पूरा करो फिर तीसरी परियोजना पर हाथ डालो।  यह नहीं की तुम अपनी जेबे गरम करने हेतु और तात्कालिक राजनैतिक फायदे के लिए एक साथ १५० परियोजनाए शुरू कर दो। मुझे याद है कि जिस श्रीनगर ( कोटेश्वर) परियोजना की वजह से धारी देवी माँ के मंदिर को शिफ्ट करने की नौबत आज आयी और कुछ अति-अन्धविश्वासी हलकों में जिसे इस पहाडी प्रलय की एक ख़ास वजह माना जा रहा है, (बता दूं कि १६ जून की शाम को सरकार ने चुपके से माता की मूर्तिया मंदिर से शिफ्ट कर दी थी, और उसी रात यह तांडव हुआ ).   इस परियोजना की नीव १९८१-८२  में रखी गई थी, सोचिये कितना पैसा बर्बाद कर दिया गया होगा इस पर 3२  सालों में ? और इसे पूरा करने की बजाये कई और बाँध परियोजनाए शुरू कर दी गई।   


देश की फ़िक्र किसे है ? बस हर कोई अपनी तात्कालिक पूर्तियों और जेब की फ़िक्र लिए फिर रहा है। तमाम झूठ, फरेव, मक्कारी करते रहो ताउम्र और फिर पुण्य प्राप्ति की आस लगाए मुह उठाये चले जाओ भगवान् के दरवार में।  अभी कुछ सालों  से , जबसे यहाँ के लिए हैलीकॉप्टर सेवा प्रारम्भ हुई थी, ऐसा भी सुनने में आ रहा था कि नवविवाहित जोड़े हनीमून के लिए भी केदारनाथ का रुख करने लगे थे। अरे भाई इन तीर्थ स्थानों में जाने का समय सिर्फ वृद्ध लोगों का होता था, और आपने नोट किया होगा कि केदारनाथ में होटलों और व्यावसायिक धर्मशालाओं का पिछले एक दशक में एक सैलाब सा आ गया था।  इन्हें बनाने की मंजूरी आखिर दी किसने ? और यदि वो अनधिकृत बने थे तो तोड़ा क्यों नहीं गया? कुछ दशकों पहले तक केदारनाथ में रात रुकने की अनुमति यात्रियों को नहीं होती थी, उन्हें वापस गौरीकुंड आना पड़ता था, अगर वही सिस्टम अनुसरित किया जाता तो शायद इतना जानमाल  का नुकशान नहीं होता।  बारह-तेरह साल से उत्तराखंड में बीजेपी और कौंग्रेस की सरकारे रही है, क्या इनका सिर्फ मंदिर के खजाने तक ही हक़ जताने का अधिकार बनता था, कर्तव्य कुछ नहीं थे क्या ?        अब मैं आपको एक उदाहरण देना चाहूँगा, हालाँकि जो उदाहरण मैं देंने जा रहा हूँ वह स्तरीय नहीं कह सकता, किन्तु दूंगा जरूर;

मान लीजिये कि सुहानी भोर पर आप किसी एकांत में या पार्क के कोने में बैठे ध्यान मग्न है, तभी बहुत सारे गली के कुत्तों का झुण्ड उधर आपके इर्द-गिर्द घूमने लगें तो आप की प्रतिक्रया होती है, हट-हट कहकर उन्हें भगाने की। अब फर्ज कीजिये कि जब आप ध्यान मग्न है और  ये धूर्त कुत्ते भागने की बजाये आपके ऊपर ही,,,,,,,,,,,,,,,,. सोचिये आप किस हद तक जा सकते है ऐसी परिस्थितियों में? जैसा कि मीडिया के ख़बरों से आपको ज्ञात हो ही गया होगा कि वहाँ उस छोटे से पहाडी क्षेत्र में पैंतालिस से पचास हजार तक लोग हर रोज ठहरते थे, उनका मल-मूत्र ? ,,,,,,,उनके द्वारा फैलाई जाने वाली अन्य गंदगियां ? भाई मेरे , अगर भोलेनाथ पर विश्वास करते हो तो यह भी तो जानते होंगे आप कि भोलेनाथ उस पहाडी जगह पर क्यों गए होंगे  ? उन्हें एकांत चाहिये था। और यह मनुष्य का अतिक्रमण आखिर वे भी कब तक बर्दाश्त करते ?

अंत में, अब आगे यदि उत्तराखंड या अन्य पहाडी जगहों  पर लोग , सैलानी, भक्त इत्यादि नही  जाते, तो निश्चित तौर पर वहाँ के  अनेकों लोगो के रोजगार पर असर पड़ेगा, वहाँ की अर्थव्यवस्था पर असर पडेगा।  किन्तु यही कहूंगा कि आप लोग अपनी सेहत की चिंता कीजिये, अपने परिवारों की चिंता कीजिये और जहां तक हो सके वहाँ जाने की चेष्ठा कम ही करे, प्लीज ! मन चंगा तो बहती रहे कठौती में गंगा, अपने कर्मों पर ध्यान अधिक दीजिये और भगवान् की दया पर निर्भर रहना कम कीजिये।  भाड  में गई अर्थव्यवस्था। जहां इतने घोटालों , चोरी , लूटमार से देश की अर्थव्यवस्था चल ही रही है तो वैसे ही उन परदेशो  की भी चल जायेगी। वहाँ के मूल निवासियों को भी कृपया थोड़ा शकुन की जिन्दगी जीने दें। आप को शायद ही पता हो कि यात्रा सीजन शुरू होते ही स्थानीय लोगो को कोई वाहन उन दुर्गम रास्तों पर अपने घर जाने के लिए  नहीं मिलता क्योंकि  सभी सार्वजनिक वाहन यात्रियों की सेवाभक्ति में झोंक दिए जाते है।  जब मैदानों से लोग नहीं जायेंगे, तभी इन सुप्त और भ्रष्ट सरकारों की भी नींद खुलेगी और वो आम इंसानों की जान को भी तबज्जो देंगे।                
  
    
          

Wednesday, June 19, 2013

उत्तराखंड त्रासदी -'प्रलय' और क्या है ?


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सृष्टि को उपहित न कर,
वरना कुदरत भी कहर देगा,
कभी किसी गाँव-खलियान,
कभी किसी शहर देगा। 

अखंड,भंगुर वसन्त,वैभव,
तय है उजड़ना एक दिन, 
छल-कपट,बेईमानियों को,
कब तलक न ठहर देगा। 

लांघते ही रहे अगर हद को,
जो तय की है प्रकृति ने,
अमृत हमें जो दिया है उसने,
बनाके उसे जहर देगा। 

बाढ़,सूखा,तूफाँ,भूकंप,
ये अचूक हैं हथियार उसके,    
कहीं बहेगा सैलाब बनकर,
तो  कहीं वो लहर देगा। 

'प्रलय' और क्या है, यही है, 
जो दृष्ठिगौचर हो रहा,   
करेंगे न पथ दुरस्त हम,
वो प्रतिकार हर पहर देगा। 
  
अद्भुत सामर्थ्य है 'परचेत',
कुदरत की हर कृति में,  
निसर्ग,सुघर गजल को, 
वो क्यों नई बहर देगा।



अंत में एक चिट्ठी उत्तराखंड से ( सौजन्य से आज तक ( साभार ):


इधर, फेसबुक और टि्वटर पर भी लोगों ने मदद की अपील शुरू कर दी है. कई मर्मस्‍पर्शी संदेश पढ़ने को मिल रहे हैं. उन्‍हीं संदेशों में से एक संदेश उत्तराखंड के लोहघाट से श्रीनिवास ओली का है. आप भी पढ़ें और वहां के लोगों के लिए दुआ करें...


सैलानियो, आपका शुक्रिया!

तीर्थयात्रा पर आए श्रद्धालुओं, आपका भी शुक्रिया! आप सभी का शुक्रिया कि आपकी मौजूदगी से ही सही, हमारा दर्द दुनिया को दिखने तो लगा है. कुछ महीनों के बाद यात्रा सीजन खत्म हो जाएगा. उसके बाद, हम भी इन तबाह खेतों के बीच फिर से अपने सपनों की फसलें रोपेंगें, बर्बाद हो चुके अस्पतालों में जिंदगी की उम्मीद खोजेंगे और खंडहरनुमा स्कूलों में बच्चों के मासूम सवालों के जवाब सोचेंगे. क्योंकि, आप सभी के लौटने के साथ ही ये तमाम तामझाम और चमकते कैमरे भी यहां से विदा ले लेंगे, हमेशा की तरह.


यहां उपजे इस अंधेरे को दूर करना कुछ मुश्किल जरूर होगा, क्योंकि रोशनी के लिए पहाड़ों की देह को छलनी कर सुरंगों का जाल बनाने की औकात हमारी नहीं है. हमारे पास दैत्याकार मशीनें नहीं, बल्कि मामूली सी कुदालें ही हैं. पहाड़ों को सीढ़ीनुमा खेतों में बदलने में ही हमारी कई पीढ़ियां गुजर जाती हैं. इससे पहले कि वहां से दो मुट्ठी अनाज हमारे घरों तक पहुंचे, सब कुछ मलबे के ढेर में बदल जाता है... और ऐसा यहां कभी-कभी नहीं बल्कि अक्‍सर होता है. अब आप ये ना कहना कि, फिर भी यहीं रहना क्यों जरूरी है. बस यूं समझ लीजिए कि ये हमारा घर है, ठीक वैसा ही घर जहां पहुंचने का आप सभी को बेसब्री से इंतजार है. ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ आपका एक बार फिर से शुक्रिया!


श्रीनिवास ओली- लोहघाट, उत्तराखंड














Tuesday, June 18, 2013

यथा सरकार तथा मौसम विभाग ! (लघु व्यंग्य)


कल मंत्रिमंडल विस्तार के बाद हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी ने अपना कीमती भाषण दिया, जिसमे उन्होंने देश की वर्तमान और भविष्य की राजनीति से सम्बंधित काफी उपयोगी बाते कहीं।  या यूं कह लीजिये कि उन्होंने कुछ राजनीतिक सर्टिफिकेट अपने भाषण में बांटे और कुछ राजनीतिक भविष्यवाणियाँ भी की। मैं बड़ी टकटकी लगाए महोदय के बोल सुन रहा था। वैसे भी जब कोई महत्वपूर्ण पद पर बैठा इंसान देश से सम्बंधित ज्वलंत मुद्दों पर साल में एक-आदा बार आने वाले किन्हीं त्यौहारों की ही भांति अपना मुह खोले, तो उस ख़ास पल की उपयोगिता स्वत: बढ़ जाती है। कुछ दिनों से  मॉनसून की प्रचंडता और उद्विग्नता के समाचार हमारे अतिविश्वश्नीय मीडिया की सुर्खियाँ बनी हुई थी, अत: मैं यह उम्मीद भी कर रहा था कि मौसम  और मॉनसून के हालिया व्यवहार पर वे शायद यह भी अवश्य कहेंगे कि पश्चिमी देशों के मौसमों की ही तरह यहाँ के मॉनसून और तूफानों को भी मर्यादा में रहकर  भारतीय मौसम विभाग की भविष्यवाणी की कद्र करनी होगी, लेकिन वे ऐसा कुछ नहीं बोले। खैर, मैं इसके लिए उन्हें कोई दोष नहीं दूंगा,  वो क्या है कि शुरू से ही ज्वलंत मुद्दों पर तत्काल प्रतिक्रिया  देने की उनकी आदत नहीं है न । और  वैसे भी वे बहुत बुद्धिमान और चालाक किस्म के इंसान है, मन ही मन भांप लिया होगा कि जिस उदंडी मॉनसून ने  उत्तराखंड में खुद शिवजी की नहीं सुनी वो मेरी अथवा हमारे मौसम विभाग की क्या सुनेगा? वो कोई श्री लालकृष्ण आडवाणी तो हैं नहीं जो मना-बुझा के अपना विकराल रूप त्याग दें,  इसलिए खुद चुप रहना ही बेहतर।    


उत्तरकाशी में 75 लोग और कई मकानों के साथ हेलिकॉप्टर भी बहा ले गई बाढ़13 तस्‍वीरों में देखि‍ए बारि‍श ने कैसे मचाई उत्‍तराखंड में तबाही

खैर, बात यहीं खत्म हो जाती तो वो बात ही कुछ और थी, किन्तु कमबख्त बातें हैं कि यूंपीए सरकार के घोटालों की ही भांति खत्म होने का नाम ही नहीं लेती। आदरणीय मनमोहन सिंह जी एक प्रधानमंत्री के रूप में तो अब जाके विश्वविख्यात हुए है, उनकी पुरानी छवि तो एक निहायत ईमानदार और प्रख्यात अर्थशास्त्री की थी। वो बात और है कि हमारे मौसम विभाग की ही तरह शायद उनकी भी राशि में मंगल दोष होने की वजह से मुद्रास्फीति और देश की आर्थिक विकास की उनकी भविष्यवाणियों  ने भी हमारे मौसम विभाग के मौसम से सम्बंधित पूर्वानुमानो की ही तरह उनके अर्थशास्त्र की भी हवा निकाल दी।

ये भरोसा (क्रेडिविलिटी) भी बड़ी कुत्ती चीज होती है। एक बार खो दिया तो दोबारा इसे हासिल करना बड़ी टेड़ी खीर है। अब चाहे उसके लिए आप अपनी जगह  कितने ही सही क्यों न हों और चाहे कितनी ही ईमानदारी से प्रयास क्यों न कर रहे हों, मगर डिगा हुआ भरोसा वापस लौटा लाना एवरेस्ट फतह करने जैसा है। ठीक यही विडंबना हमारे मौसम विभाग की भी है,  उसने  चाहे अल्पकालिक पूर्वानुमान हो या दीर्घकालीन पूर्वानुमान, लोगों का खुद  पर भरोसा कायम करने के लिए उसने कोई कसर बाकी नहीं छोडी, लेकिन यहाँ के ज़िद्दी, अनाडी लोग है कि उस पर उसकी भविष्यवाणी  के  ठीक विपरीत भरोसा जताते है।  जिस दिन उसने कहा कि आज धूप खिली रहेगी,  लोग उस दिन छाता और रेनकोट लेकर घर से बाहर  निकलते है। अब यहीं देख लो, उसने ७ जुलाई को मॉनसून के उत्तर भारत पहुँचने का पूर्वानुमान लोगो को बताया था, सोचा होगा तमाम विश्व ही इस वक्त आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है, मॉनसून पर भी जरूर इसका कुछ असर पडा होगा, अत: भारी भरकम मॉनसून जब दक्षिण भारत से चलेगा तो पैसे बचाने के चक्कर में सड़क मार्ग से होकर जाएगा, १०-१५ दिन तो लगेंगे ही। कौन जानता था कि उसके पास भी इतना पैसा है कि वह चार्टड-विमान से अगले ही दिन उत्तरभारत पहुँच जाएगा। हो सकता है पिछले कुछ सालों में जो घोटाले यहाँ हुए उसमे से कुछ हिस्सा उसे भी दक्षिणा स्वरुप मिला हो। सुने को अनसुना करोगे तो भुगतना तो आखिरकार आम आदमी को ही पड़ता है, इसलिए पहाड़ों में बैठ के भुगतो, वहां की सड़कें तो सब मॉनसून जी उठाकर साथ ले गए, अब पहाडो की  ठंडी हवा ही तो बाकी बची है खाने के लिए।       

और अब एक निवेदन अपने उत्तराखंडी भाई-बहनों से :-


जैसा कि आप लोग भी जानते ही है कि इस बार सचमुच में मॉनसून ने आते ही कहर बरपा दिया है, और वहाँ पर जन-जन त्रस्त है।  वहाँ पर आवश्यक सामान की बहुत तंगी महसूस की जा रही है। खैर, एक पहाडी होने के नाते मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि वहाँ के निवासियों को इन मुसीबतों से जूझना आता है, और वे इस मुसीबत का भी डटकर मुकाबला करेंगे। किन्तु, आप सब जानते है कि यात्रा का पीक सीजन होने की वजह से मैदानी क्षेत्रों और देश के विभिन्न भागों के यात्री  और पर्यटक भी असमय आयी इस बरसात की वजह से हजारों की संख्या में वहाँ फंस गए है, और उनको वहाँ पर किन- किन मुसीबतों का सामना करना पड़  रहा होगा, आप भी भलीभांति जानते है। बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री और हेमकुंड साहिब के रास्ते में करीब 30 हजार से ज्यादा यात्री फंसे हुए हैं। अत: इस विपदा की घड़ी में हम उत्तराखंडियों का यह कर्तव्य बनता है कि हम जहां तक हो सके उन्हें हर संभव मदद पहुंचाएं। वैसे भी यह हम उत्तराखंडियों  के लिए एक गौरव का विषय रहा है कि मानवता की कसौटी पर हम हमेशा अग्रिम पंक्ति में रहे है। अत: एक ब्लोगर की हैसियत से मेरा आपसे यह विनम्र निवेदन है कि इस क्षण भी हम आगे आयें। जो लोग उत्तराखंड से बाहर है वे अपने सम्बन्धियों, परिचितों, खासकर वहाँ के युवावर्ग को फोन कर इस बात के लिए प्रेरित करें कि वे फंसे हुए यात्रियों की मदद के लिए आगे आये। और उनको यथासम्भव आर्थिक अंशदान देने की हम पैरवी करें। हालाँकि उत्तराखंड की ज्यादातर टेलीफोन लाइने बाधित हो गई है, फिर भी यकीन मानिए, मैं भी अपनी तरफ से वहाँ रह रहे अपने परिचितों और सम्बन्धियों से इस बारे में संपर्क बनाने की पूरी कोशिश कर रहा हूँ। 

Friday, June 14, 2013

मुश्किल



















बड़ा अजब दस्तूर है 
इस बेदर्द जमाने का,
घर की चौखट तो कभी 
लांघी ही नहीं  हमने 
और लोग कहते है 
कि हम गुम-राह हो गए है। 


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जब उदासी की बदली,
तेरे आशियाने पे घिरे,
यादों की बारिश,
जज्बातों के ओले,
सब मेरे ही अंगना गिरें। 
आरजू खुदा से है , 
सलामत रहे तेरी 
उम्मीदों का आसमां, 
तेरे अरमानो की जमीं पे, 
न कभी पानी फिरे।।  

Saturday, June 1, 2013

ऐ दुनियादारी !





अपना भी न पाये तुझे ढंग से, हुई भी न तू हमारी,       
अलगा भी न सके खुद से, तुझको ऐ दुनियादारी।

छोड़ देते जो अगर साथ तेरा, तो ही अच्छा होता,
न सीने में बेचैनी होती और न  दिल में बेकरारी।

क्या बाहर, क्या घर में,लटके रहे सिर्फ अधर में,
 रिश्तों-वास्तों की ही हर तरफ, रही मारामारी।    

पार्थिव होकर के पड़े जब, तेरे चक्करों में हम, 
जिन्दगी तमाम हमने, उलझनों में ही गुजारी।   

खातिर मर्जे-उदासी खोले,हमदर्दी के दवाखाने,  
मुफ्त में औषध बांटी, छुपाकर अपनी लाचारी।

सहचर बनके संग चले, मिला जो कोई अकेला, 
किंतु कांधा भी न मिला परचेत, हमें अपनी बारी।






जख्म हमको न अगर गहरा, तुमने दिया होता,
तो फिर भला क्यों ये ज़हर हमने भी पिया होता,    
अगर  तुम उन जख्मों पे नमक ही न छिड़कते,
तो कुछ सहारा मरहमों का हमने भी लिया होता। 

प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।