Saturday, December 9, 2017

दिल्ली/एनसीआर, क्या चिकित्सा मर्ज का मूल मेदांता सरीखे अस्पताल नहीं ?

 चूँकि दिल्ली के मैक्स और हरियाणा  के  फोर्टिस अस्पताल का मुद्दा गरम है, इसलिए इस प्रसंग को उठाना जायज समझता हूँ। पिछले कुछ दशकों से अधिक मुनाफे की लालसा में देश के हर कोने में  निजी चिकित्सकों और चिकित्सालयों का गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार जग-जाहिर हो चुका है। हालांकि यह बात १००% सत्य भी नहीं है क्योंकि  मैं ऐसे बहुत से निजी चिकित्सकों को भी जानता हूँ, जो न्यूनतम लागत पर नि:स्वार्थ भाव से आज भी जनता की सेवा कर रहे है।   

जहां तक दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों की चिकित्सासंहिता की बात है, मुख्य बात पर आने से पहले आपको याद दिलाना चाहूंगा कि नब्बे के दशक मे  दिल्ली की, खासकर बाहरी दिल्ली, फरीदाबाद, गुडगांव, नोएडा और  गाजियाबाद में हर कस्बे में एक नर्सिंगहोम होता था।   जहां तब चिकित्सा व्यापार एक असंगठित क्षेत्र था, वहीँ  छोटे स्तर पर ही सही, किन्तु बाई-पास सर्जरी और अन्य बड़े ऑपरेशनों तक की सुविधा इन नर्सिंगहोमों में उपलब्ध होती थी। 

नब्बे के दशक में ही दिल्ली के मथुरा रोड पर निजी क्षेत्र का एक बड़ा पांचसितारा अस्पताल, अपोलो का उदय हुआ था।  और सन दो हजार आते-आते इसी अस्पताल से सम्बद्ध कुछ नामी-गिनामी डाक्टरों ने पलायन कर मेदांता की नीव रखी थी। जैसा की अमूमन होता है, शुरू के सालों में  मरीजों और उनके सगे-सम्बन्धियों को उत्कृष्ठ चिकित्सकीय सेवा प्रदान किये जाने के बड़े-बड़े सब्जबाग दिखाए गए। किन्तु समय के साथ धीरे-धीरे सच्चाई सामने आती गई। 

इन पंचतारा अस्पतालों के अस्तित्व में आने का सबसे बड़ा खामियाजा मध्यम और गरीब वर्ग को उठाना पड़ा। दो हजार के दशक के शुरुआत से ही धीरे-धीरे  नर्सिंगहोम और छोटे अस्पताल, खासकर वो नर्सिंगहोम और अस्पताल जो हृदयरोग के उपचार से सम्बद्ध थे, एकदम से गायब ही हो गए।  संक्षेप में बताऊँ तो काफी हद तक   इसकी मुख्य वजह थी इन पंचतारा अस्पतालों का कदाचार। इन छोटे अस्पतालों के डाक्टरों को जब एक मोटी  रकम किसी मरीज को सिर्फ इन पंचतारा अस्पतालों में रेफर करने पर ही मिल जाया करती  हो तो भला वे मरीज का उपचार अपने यहाँ करने की जहमत क्यों उठाएंगे ?  

मेदांता अस्पताल मे इस कदाचारी वेदना का शिकार खुद मैं और मेरे सगे-सम्बन्धी भी हुए हैं।  और दोनों ही बार एक मोटी रकम खर्च करने के बावजूद हमें अपने परिजन खोने पड़े।  दो अक्टूबर दो हजार बारह, शाम के वक्त मेरे ४५ वर्षीय बहनोई, स्व० सतीश उनियाल को दिल का दौरा पड़ा।  मेरी छोटी बहन उन्हें तुरंत गुडगाँव मे ही नजदीक के एक छोटे अस्पताल ले गई जहाँ के डॉक्टर ने खुद ही मेदांता को एम्बुलेंस भेजने का फोन कर  और मेरे बहनोई को उसी वक्त मेदांता रेफर कर दिया।  वहाँ पर चार  दिन उनका इलाज हुआ। डाक्टर के अनुसार दो स्टेंट डाले गये थे और कुल बिल बना ३.६२ लाख रुपये।  चौथे दिन हम उन्हें घर ले आये थे और फिर डाक्टर के निर्देशानुसार उन्हें जांच के लिए ले जाते और फिर डाक्टर ने कहा कि ये अब बिलकुल ठीक है कुछ प्रिकॉशंस बरतते रहिये । 

१७ अप्रैल २०१३ की मध्य रात्रि को उन्हें फिर से दिल का दौरा पड़ा और इस बार मेरी बहन उन्हें सीधे ही मेदांता ले गई। करीब साढे  बारह बजे रात को वे मेदांता अस्पताल पहुंच गए थे किन्तु अस्पताल ने पहले एक लाख रूपये जमा कराने को कहा, जिसका इंतजाम मेरी बहन  उस समय नहीं कर पाई।  उसने तुरंत मुझे फोन किया, जैसे ही उसका फोन आया, मैं और मेरी पत्नी तुरंत गुडगाँव के लिए निकल गए। किन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी थी।  सुबह के करीब  तीन बजे जब बहनोई  की हालत और बिगड़ी और मेरी बहन  एमरजेंसी वार्ड के डाक्टर के पास गिड़गिड़ाई, उसने कहा मेरा भाई पैसे लेकर आ रहा है,  तब जाकर उसने उन्हें विस्तर दिया  और एक इंजेक्शन लगाया। इंजेक्शन लगने के कुछ ही देर बाद बहनोई ने उल्टी की और बेहोश हो गए और थोड़ी देर में ही डाक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। जब हम वहाँ पहुंचे तो वे शव को शवगृह में स्थानांतरित भी कर चुके थे।  सुबह  के वक्त आसपास के हमारे सगे-सम्बन्धी पहुंचे तो मैंने शव को डिस्चार्ज कराने की दौड़भाग शुरू की। और इस अस्पताल ने मुझे शव को तीन से चार घंटे रखने का बिल थमाया, लगभग एक लाख सात हजार रूपये। खैर, मरता क्या नहीं करता, मैंने अपने क्रेडिटकार्ड से बिल  भुगतान कर शव को वहाँ से छुड़वाया। 

१८ जुलाई, २०१६, मेरे वृद्ध ससुरजी के  बाएं पैर के तलवे में खून जमा हो गया था, या यूं कहूँ कि रक्तसंचार रुक गया था।  मेरे जेठू ( पत्नी के बड़े भाई)  जो फरीदाबाद में रहते है, वो उस वक्त उनके साथ रह रहे थे। वहाँ भी वही कहानी दोहराई गई।  हालांकि जब उन्होंने मुझे मेदांता अस्पताल से फोन किया तो मेरा पहला सवाल उनसे  यही था  कि आप उन्हें वहां क्यों ले गए  क्योंकि ड्यूटी पर तैनात डाक्टर ने सीधे ही  ससुरजी का पैर काटने की बात कही थी।   मुझे उस अस्पताल पर ज़रा भी भरोसा नहीं रह गया था।  खैर, उस लोगो की सहमति से डाक्टरों के अगले दिन घुटने के ऊपर से उनका पैर काट दिया। तकरीबन साढ़े छह लाख रुपये के बिल थमाने के बाद आठवे या नवे दिन उन्होंने कहा कि पैर  इनका धीरे-धीरे ही ठीक होगा बेहतर होगा कि आप घर पर ही इनकी देखभाल करें अन्यथा उन्हें यही एडमिट रखोगे तो अनावश्यक आपका बिल बढ़ता जाएगा। 

एम्बुलेंस कर उन्हें घर ले आये मग़र, घाव पर हल्का रक्तस्राव अभी भी जारी था।  फिर दो दिन बाद यकायक पीड़ा असहनीय हुई तो भाईसहाब और उनके छोटे भाई उन्हें अपोलो ले गए।  वहां एक परिचित के माध्यम से डाक्टर से मिले तो डा०  ने  अच्छे से पैर  का निरीक्षण करने के बाद कहा कि केस बिगड़ चुका है और अब उनके उपचार से परे है।  उन्होंने कहा की आप अनावश्य यहां पर भी ३-४ लाख रूपये खर्च करोगे मगर नतीजा बहुत पोजेटिव नहीं मिलने वाला, अत: बेहतर होगा कि आप एक बार अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में दिखा दो।  अगले दिन हम लोग उन्हें एम्स ले गए।  दिनभर लाइन में लगने के बाद करीब दो बजे डाक्टर के पास नबर आया।  महिला डॉक्टर, जोकि काफी अनुभवी प्रतीत हो रही थी, ने घाव का निरीक्षण करने के बाद पहला सवाल हमसे ये किया कि ये ऑपरेशन किसने किया ? मैंने हॉस्पीटल और डाक्टर का नाम बताया तो महिला डॉक्टर साहिबा कुछ बड़बड़ाने लगी।  उस वक्त जितना मैं  समझ सका, वह उस ऑपरेशन करने वाले डाक्टर को कोस रही थी। उन्होंने कहा कि अगर आपको बिस्तर  मिल जाता है तो इनका पैर घाव के थोड़े ऊपर से फिर से काटना पडेगा।  शाम तक हम बेड पाने की जद्दोजहद में लगे रहे किन्तु सफलता हासिल न होने पर उन्हें वापस घर ले आये।  यहाँ से उनको भी जीने की उम्मीद ख़त्म हो चुकी थी और ९ अगस्त, २०१६ के तड़के उन्होंने प्राण त्याग दिए।  

इन दो घटनाओं का जिक्र करने का मेरा उद्देश्य यही था कि आपको बता सकूँ कि डाक्टर के पंचतारा अस्पताल से इलाज करने से मरीज को उतनी सफलता नहीं मिलती जितनी कि छोटे से क्लिनिक से मिलती है।  साथ ही सरकार से भी अनुरोद करूंगा कि इस 'उच्च-स्तरीय चिकित्सा व्यापार' पर  उचित लगाम लगाने और इसके लिए एक प्रभावी  आचारसंहिता तैयार करने के तुरंत  जरुरत है ताकि हाल में हुई शर्मनाक घटनाओं, जिनमे से एक मेदांता अस्पताल की भी है किन्तु  शायद  प्रभावी लॉबी की वजह से वो इतना प्रचारित नहीं हो रही, को दोहराया न जा सके।  और हर कोई भगवान् से यही दुआ मांगे कि इन पंचतारा अस्पतालों का मुँह न देखना पड़े। वो तो ये कुछ घटनाएं मीडिया में उछाल गई अन्यथा कौन जानता है कि ऐसे कितनी घटनाएं रोज होती होंगी।      
                                                                   





  








                      

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (11-12-2017) को "स्मृति उपवन का अभिमत" (चर्चा अंक-2814) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।