Wednesday, May 14, 2025

वक्त की परछाइयां !


उस हवेली में भी कभी, वाशिंदों की दमक हुआ करती थी,

हर शय मुसाफ़िर वहां,हर चीज की चमक हुआ करती थी,

अतिथि,आगंतुक,अभ्यागत, हर जमवाडे का क्या कहना,

रसूखदार हवेली के मालिकों की, धमक हुआ करती थी।

वक्त की परछाइयों तले, आज सबकुछ वीरान हो गया,

चोखट वीरान,देहरी ख़ामोश,आंगन में रमक हुआ करती थी।


 

मज़ाक

 

ऐ दीवान-ए-हज़रत-ए-'ग़ालिब, 

तुम क्या नाप-जोख करोगे 
हमारी बेरोजगारी का,
अब तो हम जब कभी
कब्रिस्तान से भी होकर गुजरते हैं,
मुर्दे उठ खड़े होकर पूछते हैं, लगी कहीं?

वक्त की परछाइयां !

उस हवेली में भी कभी, वाशिंदों की दमक हुआ करती थी, हर शय मुसाफ़िर वहां,हर चीज की चमक हुआ करती थी, अतिथि,आगंतुक,अभ्यागत, हर जमवाडे का क्या कहन...