Tuesday, October 14, 2025

संशय !

मौसम त्योहारों का, इधर दीवाली का अपना चरम है,

ये मेरे शहर की आ़बोहवा, कुछ गरम है, कुछ नरम है,

कहीं अमीरी का गुमान है तो कहीं ग़रीबी का तूफान है,

है कहीं पे फुर्सत के लम्हें तो कंही वक्त ही बहुत कम है।


है कहीं तारुण्य जोबन, जामों मे सुरा ज्यादा नीर कम है,

हो गई काया जो उम्रदराज, झर-झर झरता जरठ गम है,

सार यह है कि फलसफा जिंदगी का  है अजब 'परचेत',

कहीं दीपोत्सव की जगमगाहट, कहीं रोशनी का भ्रम है।


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झूम-झूम !

हमेशा झूमते रहो सुबह से शाम तक, बोतल के नीचे के आखिरी जाम तक, खाली हो जाए तो भी जीभ टक-टका, तब तलक जीभाएं, हलक आराम तक। झूमती जिंदगी, तुम क्...