Saturday, December 31, 2011

सांझ ढले





प्रस्तावना स्वरुप अपनी एक पुरानी पोस्ट की चंद लाईने यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ ;

दिन तीन सौ पैसठ साल के,
यों ऐसे निकल गए,
मुट्ठी में बंद कुछ रेत-कण,
ज्यों कहीं फिसल गए।


उदास पलों में धड़कन भी,
दिल से बेजार लगी,
खुश लम्हों में जिन्दगी,
चंचल निर्झरिणी धार लगी।


संग आनंद, उमंग, उल्लास
कुछ आकुल,विकल गए।
दिन तीन सौ पैसठ साल के,
यों ऐसे निकल गए।।

मगर, यह भी सच्चाई है कि वक्त किसी का साथ नहीं देता, उसे निकलना ही है ! और यही गुजरते साल की भी एक कटु सच्चाई है ! समय के इन ३६५ लम्हों में दो ही बातें होती है, या तो अच्छी या फिर बुरी ! किसी के लिए यह साल एक खुशनुमा सौगात लेकर आया होगा तो किसी के लिए कभी न भुला सकने वाली असफलता और विषाद ! लेकिन समाज का एक बड़ा तबका ऐसा भी होता है जो इनके बीच का रास्ता चुनता है, और इसे नाम देता है 'मिश्रित' का! वैसे इस गुजरते साल के बारे में ज्यादातर की  राय यही है कि साल अच्छा नहीं रहा ! मगर हमें इस सच्चाई को भी स्वीकारना होगा कि सुख और दुःख एक सिक्के के ही दो पहलू हैं, और हर पहलू को हमें समान अंदाज में गले लगाना होता है !

कभी सुख, कभी  दुःख  यही जिन्दगी है,
ये पतझड़ का मौसम घड़ी दो घड़ी है....
नए फूल कल फिर डगर में खिलेंगे,
उदासी भरे दिन कभी........!
आने वाला वक्त कैसा होगा, कोई नहीं जानता ! बस, इंसान अपनी फितरत के समकक्ष अपनी अपेक्षाओं के घोड़े दौड़ाकर एक सुखद भविष्य की कल्पना तो कर ही सकता है न ! और मैं भी सबके लिए अच्छी दुआवों के साथ-साथ यह भी कहूँगा कि कुछ नकारात्मक पहलु ऐसे भी होते है जिन्हें पूरी तरह से नकारा भी नहीं जा सकता, इसलिए नव-वर्ष की पूर्वसंध्या पर यही कहूंगा कि हर पल को खुलकर पूर्ण रूप से जियो, ये जीवन एक आइसक्रीम की तरह है जिसे एक न एक दिन पिघलना ही है, इसलिए इसे जितना खा सको खा लो ! सुना है कि लोग इस दिन पर बहुत से संकल्प भी करते है ! आज ही एक खबर देख रहा था कि एक सर्वेक्षण के मुताविक ६० प्रतिशत से अधिक भारतीय ३० दिन के भीतर ही अपने संकल्पों को तोड़ देते है! इसीलिये मैं कोई संकल्प नहीं करता ! चलते-चलते एक छोटी सी नसीहत अपने ही जैसे पियक्कड़ और हुडदंगी भाई-बंधों को कि बस इतना रहे ख़याल, जश्न मनाने के साथ-साथ कि एक खुशनुमा सुबह मिले गुजरती सांझ के साथ-साथ;

होशो-हवाश में रहकर  
हर उस बात से बचना यारों, 
जो सोबर न हो !
जाते साल के अंतिम दिन
पियो दबा के , (क्या पता माया कलैंडर...///??)
मगर इस तरह पियों  यारों
कि नए साल के
पहले ही दिन हैंगओवर न हो !!
   :):)

शुभकामनाये और मंगलमय  नववर्ष की दुआ !


As we move towards a brand NEW START in 2012.


Wishing you all a very Happy & Prosperous New Year.

May the year ahead be filled Good Health, Happiness and Peace !!!


Friday, December 30, 2011

दो टूक !


दुःख के साथ लिखना पड  रहा है कि आशंका, उम्मीद और अंदेशा शब्द तो मैं भारतीय राजनीति के लिए इस्तेमाल करता ही नहीं, इसलिए यह कहूंगा कि जो पूर्व नियोजित था, वही हुआ ! लोक सभा के बिल से बिना जहर वाला जो लोकपाल रूपी नाग जबरन बाहर निकाला गया था, वह राज्यसभा के बिल में जाकर फंस गया! देश में शिक्षा के आंकड़े बहुत उत्साह-वर्धक न होते हुए भी समय के साथ यह एक सुखद बात है कि भारतीय जनता भी अब काफी हद तक शिक्षित हो गयी है, और इलेक्ट्रोनिक क्रान्ति के इस युग में लोकतंत्र की जो नौटंकी इस देश की जनता ने २७ और २९ दिसंबर को अपने टेलीविजन सेटों पर देखी, उससे उसे इतना तो अहसास हो ही गया है कि उनका प्रतिनिधित्व और देश की बागडोर किन हाथों में है, ये हाथ कितने मजबूत, साफ़-सुथरे और सुरक्षित है! हाँ, लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही देखने और अपने माननीय प्रतिनिधियों को सुनने के बाद एक और बात जो इस जनता ने महसूस की वह यह कि पढ़े-लिखे और अनपढ़-गंवार को सुनने का क्या फर्क अथवा आनंद होता है! साथ ही यह भी महसूस हुआ कि इस देश की जनता के कुछ तथाकथित प्रतिनिधि, अपनी जनता को ब्रिटिश काल के नजरिये से ख़ास अलग नहीं देखते ! इनकी नजरों में जनता आज भी इनकी गुलाम है! जनता के ऊपर थोंपने हेतु तो ये बीसियों तरह के क़ानून पेश कर देंगे, मगर अपने को निरंकुश ही रखना चाहते है! जनता इनसे न कोई सवाल पूछे ! अपनी सेलरी बढाते वक्त तो ये एक भी संशोधन पेश नहीं करते और जब बात इनकी निरंकुशता पर अंकुश लगाने की हो, तो क्या होता है, यह आज सबके समक्ष है! जो लोग लोकतंत्र में सदन की सर्वोच्चता की दुहाई देते हुए अक्सर अन्ना जी के आन्दोलन पर तो कहीं न कहीं से मीन- मेख निकालने की जुगत में हर वक्त रहे, और उनपर सदन की सर्वोच्चता का सम्मान न करने का आरोप लगाते रहे, मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि यदि लोग आज सदन की सर्वोच्च्ता का सम्मान नहीं कर रहे, यदि अपने प्रतिनिधियों पर उंगली उठा रहे है, तो वे कौन से कारण थे जिससे ऐसी स्थित उत्पन्न हुई ? उसके लिए जिम्मेदार कौन है? ये अक्सर कहते हुए मिल जायेंगे कि लोकतंत्र में बहुमत का शासन होता है! तो जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल मैं अब इनसे पूछना चाहता हूँ, वह यह कि जिस सरकार का सदन में बहुमत ही नहीं,( सिर्फ राज्य सभा की ही बात नहीं कर रहा, लोकसभा में भी तो ये लोकपाल को संवेधानिक दर्जा देने में असफल रहे) ऐसी सरकार का सत्ता में बने रहने का औचित्य ?



 एक बिल ४५ सालों से पडा धूल फांक रहा है, और फिर अन्ना और जनता को ही आगे आना पडा, उस फ़ाइल को टेबिल पर लाने हेतु! फिर इन्हें किस बात की सेलरी मिलती है ? जब सबकुछ मालूम था तो तीन दिन का विशेष सत्र बुलाकर जो देश का करोड़ों रुपया बर्बाद किया, उसकी पूर्ति कौन करेगा? अपने फायदे और देश के खिलाफ हम कब तक चाल पर चाल खेलते रहेंगे, नहीं मालूम ! खैर, इसे देश का दुर्भाग्य नही तो और क्या कहूं ?


Thursday, December 29, 2011

अभिलाषा मेरी !


अगर ऐसा होवे नए साल में,
मिले न काला कहीं दाल में, 

जंगलराज भी ख़त्म हो जाए,
कोई गधा न घूमें शेरखाल में।

अंधा चुने न ठग काने वाले

शठ बहेलिया न दाना डाले,
पंछी फंसें न किसी जाल में,
काश ! ऐसा होवे नए साल में।


दीप प्रज्वलित हो बुद्धि-ज्ञान का,
प्राबल्य विनाश हो अभिमान का,
बैठा न अब उलूक डाल-ड़ाल में, 

अगर ऐसा होवे नए साल में

हर जन की ये ही तमन्ना होए,
भूखे पेट कोई जन ना सोए,
जिये न कभी कोई बदहाल में ,
काश ! ऐसा होवे नए साल में।


लूट-खसौट न कहीं रहे साधना,
भारतीयता की बची रहे भावना,
देश सलामत रहेगा हर हाल में, 

अगर ऐसा होवे नए साल में।  

Tuesday, December 27, 2011

दीवानगी !

मनसूबे अगर हमारे तनिक भी नापाक होते, 
प्यार की तपिश में न यूं जलकर खाक होते।
गोकि उल्फत न दस्तक देती दिल के द्वार पर,
दर्द के न हररोज अजीब ऐसे इत्तेफाक होते।  








छवि  गूगल  से  साभार ! 

Monday, December 26, 2011

इस 'अपरस' रोग का क्या कोई इलाज है?


यूं तो 'अपरस' शब्द अपने आप में बहुत व्यापक अर्थ समेटे हुए है, लेकिन इस आलेख की पृष्ठ-भूमि में इस शब्द के आम इस्तेमाल होने वाले और गौर करने लायक जो प्रमुख अर्थ मौजूद है, वे है ; अपने को सर्वोपरि समझने वाला, घमंडी, स्वार्थी, अपने बड़ों का आदर न करने वाला, अकारण भय पैदा करने वाला और नसीहत देने वाला इंसान। आज के परिपेक्ष में जबकि न सिर्फ हमारा देश अपितु पूरी दुनिया विभिन्न स्तरों पर एक वर्ग विशेष द्वारा स्थापित भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर सामाजिक उथल-पुथल, असहजता और वैचारिक समुद्रमंथन के दौर से गुजर रही है, तब ये शब्द हमारे समाज के किस ख़ास वर्ग अथवा चरित्र पर सटीक बैठते है, मैं समझता हूँ कि उसे यहाँ खुलकर बताने की आवश्यकता नहीं है।



भिन्न अर्थों में, या यूँ कहें कि जीव विज्ञानं की भाषा में इस शब्द का अर्थ इस तरह से समझा जा सकता है कि इसका इस्तेमाल त्वचा से सम्बंधित एक ख़ास किस्म के चर्म रोग, जिसे अंगरेजी में सोरियासिस (PSORIASIS) के नाम से जाना जाता है, के लिए होता है। यह एक प्रकार का असंक्रामक दीर्घकालिक त्वचा विकार (चर्मरोग) है जो कि परिवारों के बीच चलता रहता है। इस रोग से ग्रस्त प्राणी की शारीरिक त्वचा मोटी होकर एक समस्या का रूप धारण कर लेती है, विशुद्ध भाषा में इसे कुष्ठ रोग भी कहा जाता है।यह रोग सामान्यतया बहुत ही मंद स्थिति का होता है, धीरे-धीरे कब किसी को पूरी तरह अपनी चपेट में ले ले, अंदाज लगाना बहुत मुश्किल काम है।... "यह ऐसा दीर्घकालिक विकार है जिसका यह अर्थ होता है कि इसके लक्षण वर्षों तक बने रहेंगे। ये पूरे जीवन में आते-जाते रहते हैं। यह स्त्री-पुरुष दोनों ही को समान रूप से हो सकता है। इसके सही कारणों की जानकारी नहीं है। अद्यतन सूचना से यह मालूम होता है कि सारिआसिस (अपरस) मुख्यत: इन दो कारणों से होता हैः एक वंशानुगत पूर्ववृत्ति और दूसरा स्वतः असंक्राम्य प्रतिक्रिया से।"
(उपरोक्त चंद लाइने विकिपीडिया से साभार)



उपरोक्त विवरण से आप लोग इतना तो समझ ही गए होंगे कि चमड़ी मोटी हो जाना, न सिर्फ एक व्यक्ति अपितु पूरे देश और समाज के लिए अशुभ संकेत है। एक स्वस्थ देश और समाज के लिए यह जरूरी है कि उसके प्रतिनिधि, उसके लोग इस रोग से ग्रस्त न हों। मगर दुर्भाग्यबश, स्थिति इसके ठीक विपरीत एक गंभीर दौर से गुजर रही है, एक दो नहीं बल्कि समाज के कथित ख़ास वर्ग को आज इस अपरस रोग ने पूरी तरह से अपनी चपेट में ले लिया है। ज़रा सोचिये कि अपरस गर्सित यह तबका जब सिर्फ एक नेक कार्य को पटरी पर से उतारने के लिए इतने सारे प्रपंच, गंदी चालें, और दोयम दर्जे की हरकतें कर सकते है तो पिछले ६५ सालों में इन्होने क्या-क्या खेल नहीं रचाए होंगे? यह असाध्य रोग निरंतर विकराल रूप धारण करते जा रहा है। सवाल यह है कि क्या इसका कोई उपचार संभव रह गया है या फिर रोग ग्रसित वीभत्स अंग विच्छेदन ही अंतिम उपाय के तौर पर रह जाएगा ?







नोट: मेरी पिछली तीन पोस्टो पर चस्पा किये गए चित्र एक काले परदे पर संबोधन मार्क के रूप में दिख रहे है, इसे सोसल मीडिया पर लगाम के एक हिस्से के रूप में देखा जाये या फिर यह दिक्कत सिर्फ मेरे ही ब्लॉग पर है, नहीं मालूम !

छवि गूगल से साभार ! 

Friday, December 23, 2011

घर का शौहर !


फिर से देहरी पे 
क्रिसमस और नवबर्ष 

दस्तक  देने को है  और  
मैं जानता हूँ कि मेरी
आरजुओं की थमी झील में
तुम फिर एक बार
ख्वाइशों की तैरती कश्ती से अपनी
फरमाइशों का लंबा जाल फेंकोगी।  


तुम्हारी फरमाइशें भी क्या कहने, 

मासा अल्लाह !
अभी, गुजरे साल की ही तो बात है,
क्रिसमस पर तुम्हे
ताजमहल दिखाने ले गया था,
और तुम अड़ गई थी,
खुद की  अकेली  एक  

फोटो खिंचवाने की जिद पर,
और मैंने भी बड़ी कुशलता से
तारे जमीं पर उतारे बिना ही
तुम्हारी वह ख्वाइश भी पूरी की थी।
मगर तुम हो कि
मेरी अक्लमंदी की दाद देने के बजाये,
पड़ोसनो के शौहरों  का ही
गुणगान करते नहीं थकती,
खैर, तुम खुश रहो,
इसी में समूचे जगत का
सुख निहितार्थ है,
मेरा क्या,
पैदाइशी चार आँखे लेकर आया था,
दो तुम्हें तकते फूटी, दो इंटरनेट  पर   !!




छवि नेट से साभार !

Wednesday, December 21, 2011

सामूहिक रिश्वत की राजनीति !

यूं तो भारतीय राजनीति में सत्ता की गद्दी का मोह १९३० के दशक से ही तभी प्रबल रूप धारण करने लगा था, जब १९३७ में राष्ट्रपति ( कौंग्रेस अध्यक्ष को तब राष्ट्रपति कहते थे) पद के चुनाव के लिए राजगोपालाचारी द्वारा चुनाव लड़ने से इनकार करने के बाद सरदार पटेल ने अपनी दावेदारी पेश की थी, मगर जवाहरलाल नेहरू ने गांधी जी से यह कहकर उनकी उम्मीदवारी वापस करवाई कि इस पद के लिए मेरा (नेहरु का ) १ वर्ष का कार्यकाल काफी नहीं है, अत: मैं दोबारा राष्ट्रपति बनना चाहता हूँ !



इसी तरह गद्दी के लालच में स्वतंत्रता के बाद चुनाव में वोटरों को खरीदने का जो दौर ६० के दशक से शुरू हुआ था, वह चंद मुट्ठी अनाज से शुरू होकर आज नकदी, कलर टीवी और लैपटॉप तक जा पहुंचा है ! पहले न सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों में बल्कि कस्बों, शहरों में भी दलितों को दबंग लोग वोट नहीं डालने देते थे, उसके बाद जब थोड़ा बहुत ग्राम पंचायतें सुदृढ़ हुई और नामदेव दशल, राजा धाले,अरुण कमले और कांशीराम जैसे दलित नेताओं के नेतृत्व में अनेकों दलित नेता उभरकर आये तो उनके ही घरों में पसेरी चावल पहुंचाकर इन दबंगों ने उनके पूरे कुनवे के वोटों की ठेकेदारी इन्ही तथाकथित नेतावों को दे दी! वक्त बीता तो और कई दलितों के नेता उभरने लगे और खरीददारों की तादाद भी बढ़ गई ! धीरे-धीरे नौबत यहाँ तक पहुँच गई कि न सिर्फ उम्मीदवार और राजनीतिक दल नगदी और शराब की बोतल लेकर सीधे दलित के घर तक पहुंचने लगे, अपितु युवराजों द्वारा दलितों के घरों में खाना खाने और रात बिताने जैसे नाटक भी खूब किये जाने लगे ! और इस तरह सत्ता खुद दलित के घर तक पहुंच गई !


इस बीच सांसदों की खरीद-फरोख्त के मामले भी समय-समय पर उभरकर आते रहे और 1993 में तब यह एक आम बात बन गई जब पीवी नरसिंहराव की सरकार को बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चे के चार सांसदों शिबू सोरेन, सूरज मंडल, साइमन मरांडी और शैलेंद्र महतो को कांग्रेस की ओर से मिली रिश्वत का मामला खुलकर सामने आया! उसके भी ऊपर हमारी लालफीताशाही और नौकरशाही का क्रूर मजाक देखिये कि झामुमो के सांसदों की जो कीमत उन्हें कौंग्रेस को अपनी बिक्री से प्राप्त हुई थी, उसे आयकर ट्रिब्यूनल ने यह कहकर करमुक्त कर दिया कि यह तो महज उनको कौंग्रेस ने चन्दा दिया था! और इससे भी दो हाथ आगे सन २००८ में मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार को बचाने के लिए हुई १९ सांसदों की खरीद-फरोख्त वाले सीरियल में तो कई एपिसोड आने अभी बाकी हैं !


यह तो था लोकतंत्र के मजाक और राजनीतिक घिनौनेपन का सिर्फ एक पहलू, मगर इससे भी खतरनाक और घिनौना पहलू जो पिछले एक-डेड दशक से भारतीय राजनेति में परिलक्षित हुआ है, वह है चुनाव से ठीक पहले राजनीतिक पार्टियों द्वारा सामूहिक रिश्वत का खतरनाक खेल, यह खेल तमिलनाडु और कुछ अन्य राज्यों की राजनीति से शुरू हुआ था, और अब देश के लिए भी एक बड़ी चुनौती बन गया है! करूणानिधि और मायावती तो भले ही अपने राजनैतिक फायदे के लिए अपना तथाकथित दलित कार्ड खेलें, किन्तु स्वस्थ लोकतंत्र और देश के समूचे जनमानस के लिए यह एक गंभीर चुनौती बन गया है!


किसी भी हद तक जाकर जटिल,बेतुके और लोक लुभावने वादे कर वोटरों को बेवक़ूफ़ बनाना तो हमारे देश के राज नेताओं का एक पैदाइशी गुण रहा है, किन्तु अब सत्ता पक्ष द्वारा देश के सीमित वित्तीय संसाधनों को व्यक्तिगत और सियासी फायदे के लिए ऐसी असंगत योजनाओं, जिन्हें आमजन की भाषा में तो जनमानस के हित की योजनायें कहा जा सकता है, मगर उनके चयन और क्रियान्वयन का समय और उद्देश्य हमेशा संशय की स्थित पैदा करता है क्योंकि यह जरुरतमंदों की भलाई का कम और आम जनता की आँखों में धुल झोंककर अपना सियासी उल्लू सीधा करने का साधन ज्यादा होता है! और यह कुटिल कूटनीति हाल के वर्षों में अत्यधिक प्रचलन में आ गई हैं, जो देश के आर्थिक हितों के लिए एक गंभीर चुनौती बंटी जा रही है ! और मैं तो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल को भी इसी कड़ी का एक हिस्सा मानता हूँ ! जैसा कि सर्वविदित है कि यह बिल कई सालों से ठन्डे बस्ते में पडा हुआ था, लेकिन चुनावों की सुगबुगाहट शुरू होते ही यह हमारी सरकार के लिए यकायक यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है! सरकार मानो नींद से जाग गई है और यह सरकार कहती है कि इस बिल के पास हो जाने के बाद वे हर गरीब का पेट भरने में सक्षम हो जायेंगे !

वोटरों के आगे चुनाव जीतने के लिए सामूहिक रिश्वत का एक और पांसा, जनता के साथ एक और छल, और देश पर लाखों करोड़ रूपये का एक और वित्तीय भार, इससे अधिक कुछ नहीं ! मकसद सिर्फ इतना कि केंद्र अभी यह बिल पासकर आगामी चुनावों में सियासी फायदा उठा ले जाए और बाद में इसके असफल क्रियान्वयन का ठीकरा राज्य सरकारों के सर फोड़ने का एक और अवसर इन्हें मिल जाये! इनसे ऐसे सवाल भला कौन करेगा कि जो सत्तर हजार करोड़ रूपये का कर्ज आपने २००८ में किसानो का माफ़ किया था, उसका यदि किसानों को फायदा मिला होता तो सिर्फ इस वर्ष में ही २०० ज्यादा किसानो ने आत्महत्या क्यों की, उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा ? पीडीएस के मार्फ़त जो अनाज गरीबों के लिए पिछले एक दशक में उत्तरप्रदेश को भेजा गया था, वह बांग्लादेश और नेपाल कैसे पहुंचा ? मनरेगा, महिला बाल विकास मंत्रालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और कृषि एवं खाद्य मंत्रालय भूख और ग़रीबी के उन्मूलन के लिए पहले से ही कुल 25 योजनाएं चला रहे हैं, यदि जरूरतमंद गरीबों के लिए चलाई जा रही वे ही योजनाये ठीक से चल रही होती तो फिर इस बिल की क्या जरुरत थी?

अफ़सोस की कटु सच्चाई न सिर्फ नीयत पर उंगली उठाती है अपितु सरकार की विफलताओं की भी कहानिया सुना रही है! एक तरफ चुनाव नजदीक आये तो वोट खींचने के माध्यम के तौर पर एक लोक-लुभावन स्कीम और दूसरी तरफ खाद्य सुविधाओं पर ट्रिब्यूनल की रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायलय में गई तो अपनी असफलताओं को छुपाने के लिए प्रतिहथियार के तौर पर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा की गारंटी का नाटक ! भैया अगर जनता की चिंताए आपको इतनी ही बुरी तरह सता रही थी तो पिछले दो सालों से क्यों नहीं इस सम्बन्ध में कदम आगे बढाए गए, जब गोदामों में अनाज सड़ रहा था और लोग भुखमरी का शिकार हो रहे थे? अक्षमता,अनाप-सनाप बयानों और गलत राजकोषीय नीतियों से पहले मुद्रास्फीति को काबू से बाहर होने दिया और अब ब्याज दरें बढाकर देश की आर्थिक मजबूती को चौपट कर डाला और ठीकरा विश्व आर्थिक बाजारों के सर फोड़ा जा रहा है !


यहाँ तर्क भी अपनी सहूलियत के हिसाब से ही दिए जाते है! एक समय पर जब अन्ना जी ने लोकपाल का मुद्दा जोरशोर से उठाया तो वहां इनका तर्क देखिये कि सिर्फ एक लोकपाल से देश मे व्याप्त भ्रष्‍टाचार नहीं मिट सकता, और अब जब तथाकथित खाद्य सुरक्षा बिल का मुद्दा आया है तो कोई इनसे पूछे कि भला एक कानून बनाने से 75 करोड़ लोगों की भूख कैसे मिट जाएगी? कुछ संकुचित दृष्ठि और स्वार्थी लोग भले यह कहें कि ऐसी सामूहिक रिश्वतों से अनेक लोगो का भला तो हो रहा है, उन्हें टीवी फ्रिज, लैपटॉप, नकदी और दो रुपये कीलो चांवल तो मिल ही रहा है, लेकिन हमें इस कटु सत्यता को भी स्वीकारना होगा कि ये पोलिटीशियन, अपने फायदे के लिए हमारे ही देश का धन लूट कर और लुटाकर हमें आलसी और निकम्मा बना रहे है! मनरेगा ने अवश्य कुछ लोगो को रोजगार दिया मगर यह भी एक सच्चाई है कि तब से हमारे कृषी उत्पादन पर इसका बुरा असर भी पडा है क्योंकि खेती के काम को मजदूर उपलब्ध नहीं हो रहे है! अंत में मैं तो देशवासियों से यही कहूंगा कि जागिये, अभी भी वक्त है और ऐसी सामूहिक रिश्वतों को, जो कि एक करदाता की जेब पर डाका डालकर दी जा रही है, वह भी जनमानस के भले के लिए नहीं बल्कि लूट-खसौट के उद्देश्य से, उसे अस्वीकार करने की हिम्मत दिखाइये !


और अगर न जागने की ही कसमें  खाई हैं तो एक और नया साल आने को है और मैंने जो पिछले साल के अंत में एक पैरोडी बनाई थी, उसे फिर से यहाँ चस्पा कर रहा हूँ, उसका आनंद उठाइये ;



हम भारत वाले !


करलो जितनी जांचे,
आयोग जितने बिठाले,
नए साल में फिर से करेंगे,
मिलकर नए घोटाले !

हम भारत वाले, हम भारत वाले !!

आज पुराने हथकंडों को छोड़ चुके है,
क्या देखे उस लॉकर को जो तोड़ चुके है,
हर कोई जब लूट रहा है देश-खजाना,
बड़े ठगों से हम भी नाता जोड़ चुके हैं,
उजले घर, उजली पोशाके,कारनामे काले !

हम भारत वाले, हम भारत वाले !!

अभी लूटने है हमको तो कई और खजाने,
भ्रष्टाचार के दरिया है अभी और बहाने,
अभी तो हमको है समूचा देश डुबाना,
देश की दौलत से नित नए खेल रचाने,
आओ मेहनतकश पर मोटा टैक्स लगाए,
नेक दिलों को खुद जैसा बेईमान बनाए,
पड़ जाए जो फिर सच,ईमानदारी के लाले !

हम भारत वाले, हम भारत वाले !!



करलो जितनी जांचे,
आयोग जितने बिठाले,
नए साल में फिर से करेंगे,
मिलकर नए घोटाले !
हम भारत वाले, हम भारत वाले !!





जय हिंद !





Friday, December 16, 2011

एक स्वतंत्र बलूचिस्तान में पूरी मानवता का हित छिपा है!


आज १६ दिसम्बर है, यानि विजय दिवस! आज ही के दिन हमारी सेनाओ ने बांग्लादेश युद्ध में पाकिस्तान के खिलाफ एक निर्णायक विजय हासिल की थी, और बांग्लादेश (तब का पूर्वी पाकिस्तान) उससे अलग होकर एक स्वतंत्र सार्वभौम राष्ट्र के रूप अग्रसर हुआ था! इसमें पाकिस्तान और बांग्लादेश ने क्या खोया, क्या पाया, उस विषय में न जाते हुए बस इतना कहुगा कि भारत को इससे जरूर तीन उपलब्धिया हासिल हुई थी; एक सामरिक उपलब्धि थी, दूसरी कूटनीतिक और तीसरी जो सबसे बड़ी उपलब्धि थी, वह थी आत्मसंतोष ! १९४७ में जो पंजाब का सेंधा नमक पाकिस्तान ने भारत के सीने पर छिडककर आग सुलगाई थी, उसे हमारे वीर जवानों ने १९७१ में बंगाल की खाड़ी का समुद्री नमक उसके सीने पर छिड़ककर बुझाया !

जहां तक भारत और पाकिस्तान के रिश्तों का सवाल है, आज जब ४० साल बाद हम पीछे मुड़कर देखते है तो १९७१ और २०११ में ख़ास फर्क नजर नहीं आता है, और यूं कहें कि पाकिस्तान की स्थित आज १९७१ से भी बदत्तर है, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी! खैर, पाकिस्तान को तो अपनी करनी का फल  एक न एक दिन भुगतना ही था मगर अफ़सोस इस बात का है कि हम हिन्दुस्तानियों ने भी अतीत से ख़ास सबक नहीं लिया! अपने स्वार्थों के दायरों में सिमटकर हमने अपने गौरवशाली इतिहास को भुलाकर सिर्फ उस निम्नस्तरीय कलंकित इतिहास को ही बार-बार किताबों में रटा जो हमें सुगम लगता है, और कुछ निहित हितों की पूर्ति करता है!

ज्यादा दूर न जाकर अब कल ही की बात का जिक्र करूंगा, आज की पीढी को तो दरकिनार कीजिए, मगर हममे से ही कितने लोगो को यह मालूम है कि जिस इंसान ने देशभक्ति और दृडता का परिचय देकर इस देश को एक सूत्र में पिरोया था, कल यानि पंद्रह दिसंबर को उस लौह पुरुष सरदार पटेल की पुण्य तिथि थी? या फिर हममे से कितनो ने ३१ अक्तूबर को उनका जन्म दिन मनाया ? राजनैतिक स्वार्थों के लिए कुछ ख़ास किस्म के नेतावों के जन्मदिन याद रखने और मनाने के सिवा बाकी तो सिर्फ रस्म अदायगी भर रह गया है हमारे लिए , अब चाहे वो कारगिल दिवस हो या फिर विजय दिवस !

जो हमें भूलना नहीं चाहिए था, अफ़सोस कि सदा की तरह हम खुदगर्ज हिन्दुस्तानी अपने अनेकों वीर सैनिकों की शहादतों के साथ उस शहादत को भी भूल गए, वह थी १९९९ के कारगिल युद्ध में कैप्टन सौरभ कालिया और उनके 4 साथियों की शहादत ! पाकिस्तानियों ने हमारे इन युवा जवानो के साथ क्या सुलूक किया, हम अच्छी तरह से जानते है ;

"He was the first officer to detect and inform Pak intrusion. Pakistan captured him and his patrol party of 5 brave men alive on 15th May, 99 from our side of LOC. They were in their captivity for 3 weeks and subjected to unprecedented brutal torture as evident from their bodies handed over by Pakistan Army on 9th June, 99.They indulged in dastardly acts of burning bodies with cigarettes, piercing ears with hot rods, removing eyes before puncturing them, breaking most of the bones and teeth, chopping off various limbs and private organs of these soldiers besides inflicting unimaginable physical and mental tortures. They were shot dead ultimately. (A detailed postmortem report is with the Indian Army) This continued for about 22 days."और दूसरी तरफ अब ज़रा एक रिटायर्ड पाकिस्तानी मेजर शमशाद अली खां, जिन्होंने १९७१ में बंगलादेश युद्ध में भाग लिया था, भारतीय सैनिकों की उदारता का वर्णन उनकी जुबानी सुने;

"My painful journey to surrenderBy the time we got back, the Pakistan Army’s company strength had crossed over the nullah and taken position. The Sikh major retained all Pakistan Army captains and I was told to accompany a havaldar, who would escort me to Indian Brigade Commander Brig. Sindhu.

We descended into the deep nullah and saw Indian engineers building passages. As I passed them by, they saluted me even though they could tell I was a Pakistani due to my uniform. Their conduct left me with a positive impression about the Indian Army. At the nullah’s other end, I saw another Pakistan Army company strength mounted on vehicles, ready to go across."


आजादी के बाद की तीसरी और चौथी पीढी को तो छोडिये, पहली और दूसरी पीढी के ही कितने लोग जानते है कि हमारे देश भारत तथा पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान को आजादी मिलने से ४ दिन पहले ही ११ अगस्त १९४७ को बलूचिस्तान को अंग्रेजों ने आजादी दे थी, और वह भी पाकिस्तान की सहमती के साथ ? लेकिन २७ मार्च १९४८ को पाकिस्तान ने बलूचिस्तान पर हमला कर उसे अपने कब्जे में ले लिया था, और तब से आज तक वह मुल्क पाकिस्तान की तमाम जिल्लतें उठाने पर मजबूर है, आजादी के लिए छटपटा रहा है ! खनिज और प्राकृतिक साधन संपन्न पाकिस्तान के पश्चिम में स्थित यह क्षेत्र जो बाकी पाकिस्तान को गेंहूं, चांवल, चना, मक्का, कपास और खनिज गैस की आपूर्ति करता है, खुद एक दयनीय स्थित में जी रहा है और दाने-दाने को मोहताज है! मंदबुद्धि, संकीर्ण दृष्ठि वाले दुनियाभर के तमाम स्वार्थी मुल्ला उस कश्मीर, जिसका भारत में विलय १९४८ में पूरे वैधानिक तौर पर हुआ था, उसकी आजादी और वहाँ पर तथाकथित मानव अधिकारों के हनन का रोना तो खूब रोयेंगे, मगर जिस एक सार्वभौम देश पर पाकिस्तान पिछले ६४ सालों से कब्जा किये बैठा है और चुन-चुन का बलूच लोगो का दमन और सफाया कर रहा है, वो इन्हें नजर नहीं आता!

 

अब जो मैं कहना चाहता हूँ वह यह कि अपने अमानवीय कृत्यों और दमन तथा नाकामी को छुपाने के लिए हालांकि समय-समय पर पाकिस्तान बलूचिस्तान में भारत की संलिप्तता का राग आलापता ही रहा है, और भारत इसका खंडन भी करता रहा है! लेकिन एक कटु सच्चाई यह भी है कि जो अमेरिका कभी अपने हितों के लिए अंधा बनकर पाकिस्तान का साथ दे रहा था, नाटो के हालिया हमले के बाद पाकिस्तान द्वारा नाटो को आवश्यक सामग्री की जो सफ्लाई पाकिस्तान से होकर अफगानिस्तान जाती है, उसे पाकिस्तान द्वारा बंद किये जाने के बाद आज वह भी कही यह पछतावा करता होगा कि उस वक्त पाकिस्तान की पैरवी न करते हुए बलूचिस्तान को अगर एक अलग राष्ट्र रखने में वह कामयाब हुआ होता तो आज उसे भी यह दिक्कत नहीं झेलनी पड़ती और पाकिस्तान की इसकदर खुशामद भी नहीं करनी पड़ती! बलूचिस्तान के ग्वादर पोर्ट जिसे आजकल चीन अपने फायदे के लिए तैयार कर रहा है, वहाँ से अफगानिस्तान आने-जाने में उसे सुगमता होती !

खैर, भूतकाल में क्या हुआ वह अब अतीत बन चुका है,किन्तु मेरा मानना है कि पाकिस्तान का एक और विभाजन कर एक स्वायत बलूचिस्तान का निर्माण न सिर्फ बलूच लोगों और अफगानिस्तान के हित में होगा बल्कि अमेरिका, भारत और तमाम मध्य पूर्व के देशों भी हित में होगा! और मैं तो कहूंगा कि खुद पाकिस्तान के भी हित में भी होगा ! आतंकवाद का काफी हद तक इससे इसलिए खात्मा हो जाएगा क्योंकि आतंकवादियों के मुख्य गढ़ कंधार और क्वेटा इसी हिस्से में मौजूद है! सामान्य परिस्थितियों में अपने देश से तो मैं ऐसे दुस्साहस की अपेक्षा कम ही रखता हूँ, मगर आज जिस पोजीशन में अमेरिका अफगानिस्तान में मौजूद है, मैं समझता हूँ कि बलूचिस्तान को आजाद करने में उसे खासा दिक्कत नहीं होगी और वह बलूच लोगो का दिल और विश्वास जीतकर अपने लिए अफगानिस्तान आने जाने के लिए एक सुगम मार्ग प्रशस्त कर सकता है! वैसे भी आज एक बलूच आपको यही कहता फिरता मिलेगा कि "We prefer liberty with danger than peace with slavery ".

चित्र नेट से साभार !






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Thursday, December 15, 2011

काला कौन ?

कुछ भी ठीक नहीं, सब गड़बड़ है इस देश में ! सुबह एक आशावादी दृष्टिकोण बनाने की कोशिश करो भी तो शाम होते-होते वह एक घोर निराशावाद में तब्दील होता नजर आता है! क्या करे, जब नीव ही गलत पडी हो तो मकान कहाँ से सही बनेगा ! अब देखिये न काला अपना खुद का दिल है, चरित्र है, कारनामे हैं, और ये हैं कि काला लक्ष्मी को बता रहे है! ये तो वही बात हुई मवेशियों के रहने की जगहों पर इंसान ने अपने फायदे के लिए खुद ऊँची-ऊँची इमारतें खडी कर दी, शहर बसा दिए और अब फुटपाथ पर सो रहे उन बेचारे पशुओं को ही ये आवारा पशु की संज्ञा देता है! धन चाहे वो जेब में रखो या घर मे, देश में रखो या स्विट्जरलैंड में, धन तो धन ही है, वह काला-गोरा कहाँ से हुआ ? इस तरह के भ्रष्ट हरामखोरों के पास वाक्-चातुर्य और शठता तो होती है, मगर खोपड़ी नहीं होती. जिसे आम शब्दों में कपाल भी कहते है! वरना ये चोरी लूट के माल को लेजाकर स्विट्जरलैंड के गोरों के पास क्यों परोसते ? और सच मानिए तो तभी तो अपने अन्ना जी कह रहे है कि लो-कपाल ! मगर इन्हें इस्तेमाल करना आये तो तब ये उसे सहर्ष स्वीकार करे ! बस बेतुके तर्क दिए जा रहे है, ऊपर से जब इनके साथ ऐसे दोगले दुर्बुद्धिजीवी भी हों जो अपना दोगलापन कहीं नहीं छोड़ते और बाहर कुछ कहते है और अन्दर कुछ तो माशाल्लाह ! खैर, छोडिये....
आइये,अब आपको मैं बातों-बातों में एक पैरोडी सुनाता हूँ ;

कहाँ तक वतन को लुटेरे छलेंगे,
सियासी गर्द भरे दिन कभी तो ढलेंगे !


राजा सुख, प्रजा दुःख फ़ैली गंदगी हैं,
ये अव्यवस्था का मौसम घड़ी दो घड़ी हैं,
न वो भूल कल फिर वोटर करेंगे,
सियासी गर्द भरे दिन कभी तो ढलेंगे !


तले मेज जितना ये दे हमको धोखा,
मगर अपने मन में तू रख ये भरोसा,
यम इन्हें  एक दिन कड़ाही में तलेंगे,
सियासी गर्द भरे दिन कभी तो ढलेंगे !


कहे कोई कुछ भी मगर सच यही है,
चिंगारी असंतोष की जोये सुलग रही है,
उसे एक दिन तो अंगारे मिलेंगे,
सियासी गर्द भरे दिन कभी तो ढलेंगे !


कहाँ तक वतन को ये लुटेरे छलेंगे,
सियासी गर्द भरे दिन कभी तो ढलेंगे !

Jai Hind !

Sunday, December 11, 2011

नकारात्मकता का महत्व !

जी, सही पढ़ा आपने ! सकारात्मकता की बातें तो बहुत होती है, हर पल हर घड़ी, हर नुक्कड़, गली-चौराहे पर ! जिसे देखिये वो सकारात्मकता के ही उपदेश देता फिरता है ! और कहने को तो हमारा मीडिया भी इन्ही उपदेशकों में से एक है, किन्तु व्यावहारिकता में कथनी और करनी में फर्क ज्यादा मुश्किल काम नहीं होता, ये भी वे लोग बखूबी जानते है! सकारात्मकता से वो तात्कालिक फायदे नहीं मिलते जो नकारात्मकता से प्राप्त होते है, और भला दीर्घकालिक फायदे की किसे पडी है यहाँ, जब प्रलय का ख़तरा ठीक सिर के ऊपर हो! अब देखिये न, बीना मलिक अगर बुर्के में पोज देना चाहती तो क्या कोई मैगजीन वाला तैयार होता? या फिर उसने हाइनेक वाली स्वेटर और ढीले-ढाले सलवार को पहनकर पोज दी होती तो क्या कोई उस मैगजीन को खरीदता या फिर उसकी इतनी पब्लिसिटी होती', आप उससे सम्बंधित कोई खबर उतने चाव से पढ़ते, जिस चाव से अब पढ़ा आपने ? कवर पेज पर नग्न मॉडल के चित्र के एक तरफ आई एस आई का टेटो चिपका दिया और दूसरी तरफ लिख दिया; पाकिस्तानी वीपन ऑफ मॉस डिसट्रकशन (WMD ) , और मेरे जैसे अनेकों बेवकूफ ढूढ़ते रह गए कवर पेज को इधर से उधर पलटकर, न कहीं आईएसआई ही नजर आई और न पाकिस्तानी डब्ल्यूएम्डी ! पुराने  माल को एकदम ताजा बताकर बेचने की महारत तो वैसे भी यहाँ हरएक को खूब हासिल है, वरना बनिए की दूकान के सवाल पर बिफरने का तुक ? वह भी तब जब मार्केटिंग का सारा जिम्मा दिग्गज सेल्समैनो के कन्धों पर हो ! ये दिग्गज भी नकारात्मकता के महत्व को जानने-परखने वाले बड़े काइंया किस्म के खिलाड़ी हैं, इसीलिये इन्होने भी इसी अचूक हथियार को अपना अस्त्र बनाया है, वरना तो इन्हें आज कोई कुता भी नहीं जानता ! मगर इस अस्त्र के उपयोग से आज ये इतने प्रसिद्द हो गए है कि कोई असली कुत्ता भी कहीं भौंकता है तो यही लगता है कि क्या पता शायद यही महाशय हों !



और इसी नाकारात्मक्ता के महत्व को हमारे खबरिया माध्यम भी खूब समझने लगे है ! और शायद यही वजह है कि ये लोग श्री अन्ना हजारे की एक सार्थक मुहीम को अपनी खबरों में उस सकारात्मकता से तबज्जो नहीं देते, जितनी उनके विरोध में आई ख़बरों को देते है! अगर सकारात्मकता इतनी ही मूल्यवान होती तो ये लोग नकारात्मकता को इतना महत्व देने की क्यों सोचते भला ? नहीं समझे ? आइये एक उदाहारण देकर समझाता हूँ ; कुछ समय पूर्व दिल्ली से सटे फरीदाबाद के तत्कालीन डीसी आइएएस श्री प्रवीण कुमार से सम्बंधित खबर उस फुटेज के साथ हमारे खबरिया चैनलों पर शायद आपने भी देखी होगी, जिसमे उन्हें खुद को जूते मारते हुए दिखाया गया था ! और जिस अंदाज में वह पूरा वाकया टीवी पर पेश किया गया था, खबर को सुनने, देखने वाला एक साधारण इंसान तुरंत यही निष्कर्ष निकालेगा कि खुद को जूते मारने वाला व्यक्ति या तो पागल किस्म का है या फिर सस्ती पब्लिसिटी के लिए ऐसा कर रहा है! क्षमा चाहूँगा और यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूं कि मैं उनके बारे में कुछ भी नहीं जानता और सच्चाई का अंदाज मुझे भी नहीं है, मगर अभी हाल में अपने कुछ फरीदाबाद के परिचितों से जो कुछ जानकारी हासिल हुई उस आधार पर यहाँ लिख रहा हूँ ! श्री प्रवीण कुमार सरकारी जमीन के अतिक्रमण के सख्त खिलाफ थे और उन्होंने फरीदाबाद में ऐसे अनेक अतिक्रमण हटाये सरकारी प्लोटों और सड़क-चौराहों से ! ऐसे ही जब एक सरकारी प्लाट के अतिक्रमण को हटाने वे उस रोज उस ख़ास जगह पर पहुंचे थे तो स्थानीय ग्रामीणों और दबंगों ने उनका न सिर्फ विरोध किया बल्कि अपशब्दों में उन्हें यहाँ तक कहा कि इनको जूते मारो, तो उन ग्रामीणों की इस बेहूदी हरकत से गुस्साए डी सी ने अपना खुद का जूता निकाल यह कहते हुए अपने सिर पर दे मारा कि तुम क्या मुझे जूते मारोगे, मैं खुद ही मार लेता हूँ मगर मैं इस प्लाट से अतिक्रमण हटा के रहूंगा! उसके बाद उनका तबादला कर दिया गया! जैसा कि मैंने पहले कहा कि इसमें सच्चाई कितनी है नहीं मालूम, मगर थोड़ी देर के लिए अगर मान लें कि उपरोक्त बात सत्य है तो आप याद करने की कोशिश कीजिये जिस ढंग से खबरिया चैनलों से वह खबर प्रकाशित की थी, वह उनका एक सकारात्मक तरीका था अथवा नकारात्मक ? खुद ही फैसला लीजिये और चलिए आप भी ढूंढना शुरू कीजिये नकारात्मकता के गुण ! इसे कहने का यहाँ मेरा आशय यह भी था कि हम और हमारा समाज क्या एक ईमानदार इंसान को ईमानदारी से उसका काम करने देते है ?

Friday, December 9, 2011

गुलाम मानसिकता के मध्य स्वतंत्र अभिव्यक्ति की कल्पना !



यह तो सभी जानते है कि घोर तकनीकी क्रांति के इस युग में आज अंतर्जाल विचारों के संप्रेषण का एक महत्वपूर्ण और स्वतंत्र द्रुतगामी माध्यम बन गया है! इंटरनेट की प्रसिद्धि से पहले यूँ तो प्रेस और मीडिया की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में इस देश में बड़ी-बड़ी बातें सुनने को मिल जाती थी, मगर पिछले कुछ सालों में मैंने खुद यह अनुभव किया कि अंतरजाल ही एक ऐंसा माध्यम है जो विचारों को खुलकर प्रेषित करने में एक महत्वपूर्ण रोल अदा करता है, क्योंकि भूमण्डलीय दौर में पत्रकारिता मुनाफा कमाने का व्यवसाय और व्यापारिक प्रक्रिया ज्यादा बन गया है !



लेकिन यह बात शायद कम ही लोगो को पता होगी कि अभिव्यक्ति की सवतंत्रता के सार्थक मायने वहां है, जहां अभिव्यंजना करने वाला व्यक्ति स्वतंत्र हो! अपने अधिकारों को न सिर्फ जानता हो बल्कि उनके खुलकर इस्तेमाल की भी बिना द्वेष-भाव उसे पूरी आजादी हो! गुलाम व्यक्ति से स्वतंत्र अभिव्यक्ति की कल्पना करना तो अँधेरे में तीर छोड़ने जैसा है! जहाँ इंसान की खुद की भावनाएं ही तरह-तरह के हथकंडों से दमित करके रख दी गई हों, वहाँ ऐसा कुंठित इन्सान भला स्वतंत्र अभिव्यक्ति क्या ख़ाक करेगा ? इसी परिपेक्ष में मानवाधिकार दिवस की पूर्व संध्या पर भले ही संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून कहें कि "सरकारें आलोचना और बहस से बचने के लिए सोशल मीडिया तक लोगों की पहुंच रोक नहीं सकतीं", किन्तु सोशल नेटवर्किंग साइट पर आपत्तिजनक बातों को लेकर (के बहाने ) केंद्रीय दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल की बात की कम से कम मैं तो हिमाकत करता हूँ ! उल्लेखनीय है कि केंद्रीय दूरसंचार और मानव संसाधन एवं विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, फेसबुक और याहू के अधिकारियों की एक बैठक बुलाकर कहा था कि धर्म से जुड़े लोगों, प्रतीकों के अलावा भारत के प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष जैसी राजनीतिक हस्तियों के खिलाफ अपमानजनक सामग्री की निगरानी करें !



ऐंसा नहीं कि पूरे समाज में सिर्फ एक ही किस्म के लोग होते है, अगर सौ में से ९५ गुलाम प्रवृति के है तो ५ ऐसे विद्रोही किस्म के बुद्दू भी निकल ही आते है जिन्हें लाख सिखाने पर भी तलवे चाटना नहीं आता ! और अभी यह देखने में भी आया है कि इन ५ प्रतिशत लोगों, जिन्हें आज की सभ्य सेक्युलर लोकतांत्रिक भाषा में हुडदंग भी कहा जाता है, ने "कपिल जी " के उपरोक्त बयान आने पर अंतरजाल पर आसमान सर पे उठा रखा है ! मोटी बुद्धि और सहज स्वभाव के न होने की वजह से ये लोग अपने को नियंत्रित नहीं रख पाते है, अगर ये ऐसा कर पाते तो प्यार से पूछते कि अंकल जहाँ तक धर्म से जुड़े लोगो और मुद्दों का सवाल है, हम समझ रहे है कि आप किस वजह और मजबूरियों से किस ओर इशारा कर रहे है, मगर जहाँ तक प्रधान मंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष जैसी राजनीतिक हस्तियों के खिलाफ अपमानजनक सामग्री का सवाल है, क्या कभी आपने ये जानने की कोशिश की कि ये तथाकथित पढ़े-लिखे लोग क्यों इनके सम्मान के प्रति इसकदर असंम्वेदंशील हो गए ?



ये अगर वाहियात किस्म के नहीं होते तो विपक्ष का डंका भरने वाले उन सत्तापक्ष की ही विरादरी के लोगो से पूछते कि भाई लोगो रॉबर्ट वाड्रा (एकमात्र पहचान प्रियंका गाँधी के पति) को देश में एअरपोर्ट सुरक्षा जाँच से किस वजह से मुक्त रखा गया है ?इस जाँच से देश के 21 महत्वपूर्ण पदों के वीवीआईपी को मुक्त रखा गया है जिसमे राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री औ़र कैबिनेट मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद है, श्री वाड्रा कौन से वीवीएआइपी हैं जिनका सिर्फ नाम है इस सूची में, कोई पद नहीं ? रॉबर्ट वाड्रा श्रीमती सोनिया गाँधी के दामाद हैं, देश के दामाद नहीं, दामाद को अपने यहाँ बेहद सम्मान दिया जाता है, सोनिया जी भी करें..अगर उनको जाँच से मुक्त रखने का औचित्य ? यदि ऐसा ही है तो फिर राष्ट्रपति महामहिम श्रीमती पाटिल के पति का नाम क्यों नहीं है उस सूची में ?



मगर पूछेगा कौन? गुल------आमों  को क्या यह हक़ किसी ने प्रदान किया है कभी ? डेमोक्रेसी का नाटक खेलते हुए ६५ साल हो गए और चंद मुट्ठीभर लोग लोकतंत्र के नाम पर सवा अरब की जनसंख्या को सफलतापूर्वक बेवकूफ बनाने में सक्षम है, क्या यह बात गले उतरती है ? मेरे तो हरगिज नहीं उतरती ! यदि कोई जन्मजात बेवकूफ न हो तो उसे भला कोई बेवकूफ कैसे बना सकता है? अमेरिका की देखादेखी करते है, मगर उन्होंने तो अपने इस अनुभव के आधार पर कि चूँकि राष्ट्रपति के पद पर रहे व्यक्ति की सरकारी धन से ताउम्र खूब आतिर-खातिर होती है, इसलिए वे आम लोगो से ज्यादा जीते है, का निष्कर्ष निकाला और उसे दुनिया के समक्ष पेश भी कर दिया ! क्या इस देश कि किसी गुल..आम में इतनी हिम्मत है जो ये कहे कि जनता के टैक्स के पैसों पर यहाँ का हर वह नेता जो फ्री फंड का खाता है, भ्रष्ट है, चोरी करता है वह भी ...............................................अब और कितना इस फटे मुहं से सच बुलवाओगे... गुल------आमों ?

Thursday, December 1, 2011

बेखबर ये नहीं, बेखबर तुम हो !


क्यों स्व:कृत्यों पर 
तुम गुमसुम हो,
चेहरा तो  तुम्हारा 
कुदरती रोदन है,
उस पर नूर न सही,
मगर  तबस्सुम हो। 

प्रजाशाही की गर्दिश में,
अब और न तसव्वुर ढूढो,
फिर कोई ये न कहे कि
 तुम्हारे हाथों में चूड़ी,
माथे पर कुमकुम हो।  



बदला न करों यूँ अचानक,
कथा कथ्य और कथानक !
तर्कशास्त्र व अर्थशास्त्र
परिलक्षित हो कृत्य में,
न ही ये चमन
अभद्र की जन्नत बने,
और न ही 
भद्र के लिए जहन्नुम हो।  



कितने और युवाओं को
बेकार संहारोगे,
और कितने हर्मिन्दरों को,
बेअक्ल करारोगे,
स्मरण रहे,
कोप की ज्वाला दहक रही है,
किसी और का
न फिर कभी,
भरी महफ़िल में सबर गुम हो।  



भ्रष्टाचार का ऐंसा
मंच सजाया  क्यों,
जनयुद्ध का ये बिगुल
किसने बजा क्यों ?
अब नसीहतों से
कुछ भी हासिल न होगा ,
ये पब्लिक है, ये सब जानती है,
बेखबर ये नहीं, बेखबर तुम हो।  
















प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।