यूं तो भारतीय राजनीति में सत्ता की गद्दी का मोह १९३० के दशक से ही तभी प्रबल रूप धारण करने लगा था, जब १९३७ में राष्ट्रपति ( कौंग्रेस अध्यक्ष को तब राष्ट्रपति कहते थे) पद के चुनाव के लिए राजगोपालाचारी द्वारा चुनाव लड़ने से इनकार करने के बाद सरदार पटेल ने अपनी दावेदारी पेश की थी, मगर जवाहरलाल नेहरू ने गांधी जी से यह कहकर उनकी उम्मीदवारी वापस करवाई कि इस पद के लिए मेरा (नेहरु का ) १ वर्ष का कार्यकाल काफी नहीं है, अत: मैं दोबारा राष्ट्रपति बनना चाहता हूँ !
इसी तरह गद्दी के लालच में स्वतंत्रता के बाद चुनाव में वोटरों को खरीदने का जो दौर ६० के दशक से शुरू हुआ था, वह चंद मुट्ठी अनाज से शुरू होकर आज नकदी, कलर टीवी और लैपटॉप तक जा पहुंचा है ! पहले न सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों में बल्कि कस्बों, शहरों में भी दलितों को दबंग लोग वोट नहीं डालने देते थे, उसके बाद जब थोड़ा बहुत ग्राम पंचायतें सुदृढ़ हुई और नामदेव दशल, राजा धाले,अरुण कमले और कांशीराम जैसे दलित नेताओं के नेतृत्व में अनेकों दलित नेता उभरकर आये तो उनके ही घरों में पसेरी चावल पहुंचाकर इन दबंगों ने उनके पूरे कुनवे के वोटों की ठेकेदारी इन्ही तथाकथित नेतावों को दे दी! वक्त बीता तो और कई दलितों के नेता उभरने लगे और खरीददारों की तादाद भी बढ़ गई ! धीरे-धीरे नौबत यहाँ तक पहुँच गई कि न सिर्फ उम्मीदवार और राजनीतिक दल नगदी और शराब की बोतल लेकर सीधे दलित के घर तक पहुंचने लगे, अपितु युवराजों द्वारा दलितों के घरों में खाना खाने और रात बिताने जैसे नाटक भी खूब किये जाने लगे ! और इस तरह सत्ता खुद दलित के घर तक पहुंच गई !
इस बीच सांसदों की खरीद-फरोख्त के मामले भी समय-समय पर उभरकर आते रहे और 1993 में तब यह एक आम बात बन गई जब पीवी नरसिंहराव की सरकार को बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चे के चार सांसदों शिबू सोरेन, सूरज मंडल, साइमन मरांडी और शैलेंद्र महतो को कांग्रेस की ओर से मिली रिश्वत का मामला खुलकर सामने आया! उसके भी ऊपर हमारी लालफीताशाही और नौकरशाही का क्रूर मजाक देखिये कि झामुमो के सांसदों की जो कीमत उन्हें कौंग्रेस को अपनी बिक्री से प्राप्त हुई थी, उसे आयकर ट्रिब्यूनल ने यह कहकर करमुक्त कर दिया कि यह तो महज उनको कौंग्रेस ने चन्दा दिया था! और इससे भी दो हाथ आगे सन २००८ में मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार को बचाने के लिए हुई १९ सांसदों की खरीद-फरोख्त वाले सीरियल में तो कई एपिसोड आने अभी बाकी हैं !
यह तो था लोकतंत्र के मजाक और राजनीतिक घिनौनेपन का सिर्फ एक पहलू, मगर इससे भी खतरनाक और घिनौना पहलू जो पिछले एक-डेड दशक से भारतीय राजनेति में परिलक्षित हुआ है, वह है चुनाव से ठीक पहले राजनीतिक पार्टियों द्वारा सामूहिक रिश्वत का खतरनाक खेल, यह खेल तमिलनाडु और कुछ अन्य राज्यों की राजनीति से शुरू हुआ था, और अब देश के लिए भी एक बड़ी चुनौती बन गया है! करूणानिधि और मायावती तो भले ही अपने राजनैतिक फायदे के लिए अपना तथाकथित दलित कार्ड खेलें, किन्तु स्वस्थ लोकतंत्र और देश के समूचे जनमानस के लिए यह एक गंभीर चुनौती बन गया है!
किसी भी हद तक जाकर जटिल,बेतुके और लोक लुभावने वादे कर वोटरों को बेवक़ूफ़ बनाना तो हमारे देश के राज नेताओं का एक पैदाइशी गुण रहा है, किन्तु अब सत्ता पक्ष द्वारा देश के सीमित वित्तीय संसाधनों को व्यक्तिगत और सियासी फायदे के लिए ऐसी असंगत योजनाओं, जिन्हें आमजन की भाषा में तो जनमानस के हित की योजनायें कहा जा सकता है, मगर उनके चयन और क्रियान्वयन का समय और उद्देश्य हमेशा संशय की स्थित पैदा करता है क्योंकि यह जरुरतमंदों की भलाई का कम और आम जनता की आँखों में धुल झोंककर अपना सियासी उल्लू सीधा करने का साधन ज्यादा होता है! और यह कुटिल कूटनीति हाल के वर्षों में अत्यधिक प्रचलन में आ गई हैं, जो देश के आर्थिक हितों के लिए एक गंभीर चुनौती बंटी जा रही है ! और मैं तो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल को भी इसी कड़ी का एक हिस्सा मानता हूँ ! जैसा कि सर्वविदित है कि यह बिल कई सालों से ठन्डे बस्ते में पडा हुआ था, लेकिन चुनावों की सुगबुगाहट शुरू होते ही यह हमारी सरकार के लिए यकायक यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है! सरकार मानो नींद से जाग गई है और यह सरकार कहती है कि इस बिल के पास हो जाने के बाद वे हर गरीब का पेट भरने में सक्षम हो जायेंगे !
वोटरों के आगे चुनाव जीतने के लिए सामूहिक रिश्वत का एक और पांसा, जनता के साथ एक और छल, और देश पर लाखों करोड़ रूपये का एक और वित्तीय भार, इससे अधिक कुछ नहीं ! मकसद सिर्फ इतना कि केंद्र अभी यह बिल पासकर आगामी चुनावों में सियासी फायदा उठा ले जाए और बाद में इसके असफल क्रियान्वयन का ठीकरा राज्य सरकारों के सर फोड़ने का एक और अवसर इन्हें मिल जाये! इनसे ऐसे सवाल भला कौन करेगा कि जो सत्तर हजार करोड़ रूपये का कर्ज आपने २००८ में किसानो का माफ़ किया था, उसका यदि किसानों को फायदा मिला होता तो सिर्फ इस वर्ष में ही २०० ज्यादा किसानो ने आत्महत्या क्यों की, उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा ? पीडीएस के मार्फ़त जो अनाज गरीबों के लिए पिछले एक दशक में उत्तरप्रदेश को भेजा गया था, वह बांग्लादेश और नेपाल कैसे पहुंचा ? मनरेगा, महिला बाल विकास मंत्रालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और कृषि एवं खाद्य मंत्रालय भूख और ग़रीबी के उन्मूलन के लिए पहले से ही कुल 25 योजनाएं चला रहे हैं, यदि जरूरतमंद गरीबों के लिए चलाई जा रही वे ही योजनाये ठीक से चल रही होती तो फिर इस बिल की क्या जरुरत थी?
अफ़सोस की कटु सच्चाई न सिर्फ नीयत पर उंगली उठाती है अपितु सरकार की विफलताओं की भी कहानिया सुना रही है! एक तरफ चुनाव नजदीक आये तो वोट खींचने के माध्यम के तौर पर एक लोक-लुभावन स्कीम और दूसरी तरफ खाद्य सुविधाओं पर ट्रिब्यूनल की रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायलय में गई तो अपनी असफलताओं को छुपाने के लिए प्रतिहथियार के तौर पर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा की गारंटी का नाटक ! भैया अगर जनता की चिंताए आपको इतनी ही बुरी तरह सता रही थी तो पिछले दो सालों से क्यों नहीं इस सम्बन्ध में कदम आगे बढाए गए, जब गोदामों में अनाज सड़ रहा था और लोग भुखमरी का शिकार हो रहे थे? अक्षमता,अनाप-सनाप बयानों और गलत राजकोषीय नीतियों से पहले मुद्रास्फीति को काबू से बाहर होने दिया और अब ब्याज दरें बढाकर देश की आर्थिक मजबूती को चौपट कर डाला और ठीकरा विश्व आर्थिक बाजारों के सर फोड़ा जा रहा है !
यहाँ तर्क भी अपनी सहूलियत के हिसाब से ही दिए जाते है! एक समय पर जब अन्ना जी ने लोकपाल का मुद्दा जोरशोर से उठाया तो वहां इनका तर्क देखिये कि सिर्फ एक लोकपाल से देश मे व्याप्त भ्रष्टाचार नहीं मिट सकता, और अब जब तथाकथित खाद्य सुरक्षा बिल का मुद्दा आया है तो कोई इनसे पूछे कि भला एक कानून बनाने से 75 करोड़ लोगों की भूख कैसे मिट जाएगी? कुछ संकुचित दृष्ठि और स्वार्थी लोग भले यह कहें कि ऐसी सामूहिक रिश्वतों से अनेक लोगो का भला तो हो रहा है, उन्हें टीवी फ्रिज, लैपटॉप, नकदी और दो रुपये कीलो चांवल तो मिल ही रहा है, लेकिन हमें इस कटु सत्यता को भी स्वीकारना होगा कि ये पोलिटीशियन, अपने फायदे के लिए हमारे ही देश का धन लूट कर और लुटाकर हमें आलसी और निकम्मा बना रहे है! मनरेगा ने अवश्य कुछ लोगो को रोजगार दिया मगर यह भी एक सच्चाई है कि तब से हमारे कृषी उत्पादन पर इसका बुरा असर भी पडा है क्योंकि खेती के काम को मजदूर उपलब्ध नहीं हो रहे है! अंत में मैं तो देशवासियों से यही कहूंगा कि जागिये, अभी भी वक्त है और ऐसी सामूहिक रिश्वतों को, जो कि एक करदाता की जेब पर डाका डालकर दी जा रही है, वह भी जनमानस के भले के लिए नहीं बल्कि लूट-खसौट के उद्देश्य से, उसे अस्वीकार करने की हिम्मत दिखाइये !
और अगर न जागने की ही कसमें खाई हैं तो एक और नया साल आने को है और मैंने जो पिछले साल के अंत में एक पैरोडी बनाई थी, उसे फिर से यहाँ चस्पा कर रहा हूँ, उसका आनंद उठाइये ;
हम भारत वाले !
करलो जितनी जांचे,
आयोग जितने बिठाले,
नए साल में फिर से करेंगे,
मिलकर नए घोटाले !
हम भारत वाले, हम भारत वाले !!
आज पुराने हथकंडों को छोड़ चुके है,
क्या देखे उस लॉकर को जो तोड़ चुके है,
हर कोई जब लूट रहा है देश-खजाना,
बड़े ठगों से हम भी नाता जोड़ चुके हैं,
उजले घर, उजली पोशाके,कारनामे काले !
हम भारत वाले, हम भारत वाले !!
अभी लूटने है हमको तो कई और खजाने,
भ्रष्टाचार के दरिया है अभी और बहाने,
अभी तो हमको है समूचा देश डुबाना,
देश की दौलत से नित नए खेल रचाने,
आओ मेहनतकश पर मोटा टैक्स लगाए,
नेक दिलों को खुद जैसा बेईमान बनाए,
पड़ जाए जो फिर सच,ईमानदारी के लाले !
हम भारत वाले, हम भारत वाले !!
करलो जितनी जांचे,
आयोग जितने बिठाले,
नए साल में फिर से करेंगे,
मिलकर नए घोटाले !
हम भारत वाले, हम भारत वाले !!
जय हिंद !