कुछ भी ठीक नहीं, सब गड़बड़ है इस देश में ! सुबह एक आशावादी दृष्टिकोण बनाने की कोशिश करो भी तो शाम होते-होते वह एक घोर निराशावाद में तब्दील होता नजर आता है! क्या करे, जब नीव ही गलत पडी हो तो मकान कहाँ से सही बनेगा ! अब देखिये न काला अपना खुद का दिल है, चरित्र है, कारनामे हैं, और ये हैं कि काला लक्ष्मी को बता रहे है! ये तो वही बात हुई मवेशियों के रहने की जगहों पर इंसान ने अपने फायदे के लिए खुद ऊँची-ऊँची इमारतें खडी कर दी, शहर बसा दिए और अब फुटपाथ पर सो रहे उन बेचारे पशुओं को ही ये आवारा पशु की संज्ञा देता है! धन चाहे वो जेब में रखो या घर मे, देश में रखो या स्विट्जरलैंड में, धन तो धन ही है, वह काला-गोरा कहाँ से हुआ ? इस तरह के भ्रष्ट हरामखोरों के पास वाक्-चातुर्य और शठता तो होती है, मगर खोपड़ी नहीं होती. जिसे आम शब्दों में कपाल भी कहते है! वरना ये चोरी लूट के माल को लेजाकर स्विट्जरलैंड के गोरों के पास क्यों परोसते ? और सच मानिए तो तभी तो अपने अन्ना जी कह रहे है कि लो-कपाल ! मगर इन्हें इस्तेमाल करना आये तो तब ये उसे सहर्ष स्वीकार करे ! बस बेतुके तर्क दिए जा रहे है, ऊपर से जब इनके साथ ऐसे दोगले दुर्बुद्धिजीवी भी हों जो अपना दोगलापन कहीं नहीं छोड़ते और बाहर कुछ कहते है और अन्दर कुछ तो माशाल्लाह ! खैर, छोडिये....
आइये,अब आपको मैं बातों-बातों में एक पैरोडी सुनाता हूँ ;
कहाँ तक वतन को लुटेरे छलेंगे,
सियासी गर्द भरे दिन कभी तो ढलेंगे !
राजा सुख, प्रजा दुःख फ़ैली गंदगी हैं,
ये अव्यवस्था का मौसम घड़ी दो घड़ी हैं,
न वो भूल कल फिर वोटर करेंगे,
सियासी गर्द भरे दिन कभी तो ढलेंगे !
तले मेज जितना ये दे हमको धोखा,
मगर अपने मन में तू रख ये भरोसा,
यम इन्हें एक दिन कड़ाही में तलेंगे,
सियासी गर्द भरे दिन कभी तो ढलेंगे !
कहे कोई कुछ भी मगर सच यही है,
चिंगारी असंतोष की जोये सुलग रही है,
उसे एक दिन तो अंगारे मिलेंगे,
सियासी गर्द भरे दिन कभी तो ढलेंगे !
कहाँ तक वतन को ये लुटेरे छलेंगे,
सियासी गर्द भरे दिन कभी तो ढलेंगे !
Jai Hind !
"कहाँ तक वतन को ये लुटेरे छलेंगे,
ReplyDeleteसियासी गर्द भरे दिन कभी तो ढलेंगे !"
आमीन !
kishore kumar gaate to aur bhi achchha lagta...
ReplyDeletebahut kadua sach hai..
ReplyDeleteबहुत सटीक!
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने. आज सभी देशवासी इसी बात का इंतज़ार कर रहे है.
ReplyDeleteगज़ब का गीत, गज़ब का आशावाद!
ReplyDeleteआपकी चिन्ता कईयों की चिन्ता है, खाईयाँ गहरी हैं, पुल जल रहे हैं।
ReplyDeleteकहे कोई कुछ भी मगर सच यही है,
ReplyDeleteचिंगारी असंतोष की जोये सुलग रही है,
उसे एक दिन तो अंगारे मिलेंगे,
सियासी गर्द भरे दिन कभी तो ढलेंगे !
प्रभावशाली आलेख के साथ खूबसूरत प्रस्तुति समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है