Friday, December 30, 2011

दो टूक !


दुःख के साथ लिखना पड  रहा है कि आशंका, उम्मीद और अंदेशा शब्द तो मैं भारतीय राजनीति के लिए इस्तेमाल करता ही नहीं, इसलिए यह कहूंगा कि जो पूर्व नियोजित था, वही हुआ ! लोक सभा के बिल से बिना जहर वाला जो लोकपाल रूपी नाग जबरन बाहर निकाला गया था, वह राज्यसभा के बिल में जाकर फंस गया! देश में शिक्षा के आंकड़े बहुत उत्साह-वर्धक न होते हुए भी समय के साथ यह एक सुखद बात है कि भारतीय जनता भी अब काफी हद तक शिक्षित हो गयी है, और इलेक्ट्रोनिक क्रान्ति के इस युग में लोकतंत्र की जो नौटंकी इस देश की जनता ने २७ और २९ दिसंबर को अपने टेलीविजन सेटों पर देखी, उससे उसे इतना तो अहसास हो ही गया है कि उनका प्रतिनिधित्व और देश की बागडोर किन हाथों में है, ये हाथ कितने मजबूत, साफ़-सुथरे और सुरक्षित है! हाँ, लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही देखने और अपने माननीय प्रतिनिधियों को सुनने के बाद एक और बात जो इस जनता ने महसूस की वह यह कि पढ़े-लिखे और अनपढ़-गंवार को सुनने का क्या फर्क अथवा आनंद होता है! साथ ही यह भी महसूस हुआ कि इस देश की जनता के कुछ तथाकथित प्रतिनिधि, अपनी जनता को ब्रिटिश काल के नजरिये से ख़ास अलग नहीं देखते ! इनकी नजरों में जनता आज भी इनकी गुलाम है! जनता के ऊपर थोंपने हेतु तो ये बीसियों तरह के क़ानून पेश कर देंगे, मगर अपने को निरंकुश ही रखना चाहते है! जनता इनसे न कोई सवाल पूछे ! अपनी सेलरी बढाते वक्त तो ये एक भी संशोधन पेश नहीं करते और जब बात इनकी निरंकुशता पर अंकुश लगाने की हो, तो क्या होता है, यह आज सबके समक्ष है! जो लोग लोकतंत्र में सदन की सर्वोच्चता की दुहाई देते हुए अक्सर अन्ना जी के आन्दोलन पर तो कहीं न कहीं से मीन- मेख निकालने की जुगत में हर वक्त रहे, और उनपर सदन की सर्वोच्चता का सम्मान न करने का आरोप लगाते रहे, मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि यदि लोग आज सदन की सर्वोच्च्ता का सम्मान नहीं कर रहे, यदि अपने प्रतिनिधियों पर उंगली उठा रहे है, तो वे कौन से कारण थे जिससे ऐसी स्थित उत्पन्न हुई ? उसके लिए जिम्मेदार कौन है? ये अक्सर कहते हुए मिल जायेंगे कि लोकतंत्र में बहुमत का शासन होता है! तो जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल मैं अब इनसे पूछना चाहता हूँ, वह यह कि जिस सरकार का सदन में बहुमत ही नहीं,( सिर्फ राज्य सभा की ही बात नहीं कर रहा, लोकसभा में भी तो ये लोकपाल को संवेधानिक दर्जा देने में असफल रहे) ऐसी सरकार का सत्ता में बने रहने का औचित्य ?



 एक बिल ४५ सालों से पडा धूल फांक रहा है, और फिर अन्ना और जनता को ही आगे आना पडा, उस फ़ाइल को टेबिल पर लाने हेतु! फिर इन्हें किस बात की सेलरी मिलती है ? जब सबकुछ मालूम था तो तीन दिन का विशेष सत्र बुलाकर जो देश का करोड़ों रुपया बर्बाद किया, उसकी पूर्ति कौन करेगा? अपने फायदे और देश के खिलाफ हम कब तक चाल पर चाल खेलते रहेंगे, नहीं मालूम ! खैर, इसे देश का दुर्भाग्य नही तो और क्या कहूं ?


13 comments:

  1. रश्मि प्रभा जी आप का ईमेल मांग रही है ... मेरे पास नहीं है कृपया आप उनसे rasprabha@gmail.com पर संपर्क कर लीजिये !

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  2. शुक्रिया शिवम् जी, और आपको मेरी तरफ से नव-वर्ष की हार्दिक शुभकामनाये ! मैंने रश्मि जी को मेल भेज दिया है !

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  3. रात-रात भर जागकर समय खोटी किया निकले वही ढाक के तीन पात।

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  4. कुछ करना चाहे तब न कुछ करेंगे. इनके बाप का क्या जाता है समय और पैसा दोनों जनता का बर्बाद हुआ. इनका क्या गया.

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  5. इस माध्यम से बढ़ी हुयी पारदर्शिता हम लोगों की लोकतान्त्रिक उपलब्धि है..

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  6. ... आलेख बहुत कुछ सोचने को वाध्य करता है

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  7. नव-वर्ष की शुभकामनाएँ !भाई जी ....:-))

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  8. आप सभी को और आपके समस्त पारिवारिक जनो को मेरी और मेरे परिवार की तरफ से नव-वर्ष २०१२ की ढेरों शुभकामनाये, सलूजा साहब !

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  9. उम्मीद करते हैं कि नव वर्ष अच्छी खबर लेकर आएगा ।
    शुभकामनायें गोदियाल जी ।

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  10. विचारणीय आलेख ...नव वर्ष कि हार्दिक शुभकामनायें...समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका सवागत है

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  11. मुगल काल से लेकर आज तक भारत की जनता गुंडों से डरती रही है ॥

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  12. ये तो सिर्फ अपना हित साधते हैं.

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।