Thursday, December 1, 2011

बेखबर ये नहीं, बेखबर तुम हो !


क्यों स्व:कृत्यों पर 
तुम गुमसुम हो,
चेहरा तो  तुम्हारा 
कुदरती रोदन है,
उस पर नूर न सही,
मगर  तबस्सुम हो। 

प्रजाशाही की गर्दिश में,
अब और न तसव्वुर ढूढो,
फिर कोई ये न कहे कि
 तुम्हारे हाथों में चूड़ी,
माथे पर कुमकुम हो।  



बदला न करों यूँ अचानक,
कथा कथ्य और कथानक !
तर्कशास्त्र व अर्थशास्त्र
परिलक्षित हो कृत्य में,
न ही ये चमन
अभद्र की जन्नत बने,
और न ही 
भद्र के लिए जहन्नुम हो।  



कितने और युवाओं को
बेकार संहारोगे,
और कितने हर्मिन्दरों को,
बेअक्ल करारोगे,
स्मरण रहे,
कोप की ज्वाला दहक रही है,
किसी और का
न फिर कभी,
भरी महफ़िल में सबर गुम हो।  



भ्रष्टाचार का ऐंसा
मंच सजाया  क्यों,
जनयुद्ध का ये बिगुल
किसने बजा क्यों ?
अब नसीहतों से
कुछ भी हासिल न होगा ,
ये पब्लिक है, ये सब जानती है,
बेखबर ये नहीं, बेखबर तुम हो।  
















9 comments:

  1. ये पब्लिक है, ये सब जानती है,

    बेखबर ये नहीं, बेखबर तुम हो !!

    ....बहुत सटीक और सशक्त अभिव्यक्ति...

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  2. वाह!! बहुत खूब लिखा है आपने!! सटीक एवं सशक्त अभिव्यक्ति ...समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है :)

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  3. बेखबर ये नहीं, बेखबर तुम हो !!
    आजकल के हालात पर सार्थक पोस्ट .

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  4. सभी एक दूसरे से बेखबर दिख रहे हैं।

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  5. व्यवस्था के खिलाफ आग दिख रही है....

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  6. काश ये सच हो ,... पब्लिक जागी हुयी हो ... बे खबर न हो ..

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।