तरुण-युग, वो कालखण्ड,
जज्बातों के समंदर ने
सुहाने सपने प्रचुर दिए थे,
मन के आजाद परिंदे ने
दस्तूरों के खुरदुरेपन में कैद
जिंदगी को कुछ सुर दिए थे।
और फिर शुरू हुई थी
अपने लिए इक अदद् सा
आशियाना ढूढ़ने की जद्दोजहद,
जमीं पर ज्यूँ कदम बढे
कहीं कोई तिक्त मिला,
और कभी कोई शहद।
सफर-ऐ-सहरा आखिरकार,
मुझे अपने लिए एक
सपनो की मंजिल भाई थी,
पूरे किये कर्ज से फर्ज
और गृह-प्रवेश पर
संग-संग मेरे "ईएम आई" थी।
अब नामुराद बैंक की
'कुछ देय नहीं ' की पावती ही,
हाथ अपने रह गई,
हिसाब क्या चुकता हुआ
कि वो नाशुक्र गत माह
मुझे अलविदा कह गई।
दरमियाँ उसके और मेरे
रिश्ता अनुबंधित था,
वक्त का भी यही शोर रहा है,
शिथिल,शाम की इस ऊहापोह में
मन को किन्तु अब
येही ख़्याल झकझोर रहा है।
हुआ मेरा वो 'आशियाना ',
उसके रहते जिसपर
हम कभी काबिज न थे,
मगर, वह यूं चली गई,
वही बेवफा रही होगी,
हम बेवफ़ा तो हरगिज न थे।
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteएक अच्छा घर बनाने की जद्दोजहद में बहुत कुछ खोना पड़ता है
ReplyDeleteभावपूर्ण कविता ...कसी हुई पंक्तियाँ
पासबां-ए-जिन्दगी: हिन्दी
उम्दा रचना।
ReplyDeleteकुछ लेने की कोशिश में फैले हाथ से , काफ़ी कुछ बिखर जाता है .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (20-09-2014) को "हम बेवफ़ा तो हरगिज न थे" (चर्चा मंच 1742) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ओहो... दिल से ..
ReplyDeleteबेहतरीन और बहुत कुछ लिख दिया आपने..... सार्थक अभिवयक्ति......
ReplyDeleteएक अदद आशियाना वो भी बेवफा रही
ReplyDeleteचिंतनशील रचना
सुन्दर भावनात्मक कविता !
ReplyDeleteइतनी आसानी से कहाँ कुछ मिल पाता है ... वो भी घर ...
ReplyDeleteदिल के जज्बात खोल दिए आज तो ...