Saturday, September 20, 2014

तेरे इसरार पे मैं, हर हद पार करता हूँ।


















बयां यह बात दिल की मैं, सरेबाजार करता हूँ, 
ख़ब्त ऐसी ये कभी-कभी,ऐ मेरे यार करता हूँ। 
(खब्त =पागलपन )
जबसे हुआ हूँ दीवाना,तुम्हारी मय का,ऐ साकी,
उषा होते ही निशा का, मैं इन्तजार करता हूँ।

अच्छा नहीं अधिक पीना,कहती हो सदा मुझसे,  

तेरा इसरार कुछ ऐसा, मैं हर हद पार करता हूँ।
(इसरार=आग्रह )

जो परोसें जाम कर तेरे, ठुकराना नहीं मुमकिन, है अधम हाला बताओ तुम, मैं इन्कार करता हूँ। 

खुद पीने में कहाँ वो रस, जो है तेरे पिलाने में,
सरूरे-शब तेरी निगाहों में,ये इकरार करता हूँ।

करे स्तवन तेरा 'परचेत', लगे कमतर,ऐ साकी,
ये मद तेरी सुधा लागे, मधु से प्यार करता हूँ।

6 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (21-09-2014) को "मेरी धरोहर...पेड़" (चर्चा मंच 1743) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. जबसे हुआ हूँ दीवाना, तेरी मय का,ऐ साकी,
    सुबह होते ही शाम का,मैं इन्तजार करता हूँ..
    वाह बहुत ही लाजवाब शेर ... माय और साकी रहे तो फिर ये शाम चाहे न ख़त्म हो ...

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  3. तुम जो परोसो जाम,मुमकिन नहीं कि ठुकरा दूँ,
    जब ओंठों से लगा दो तो,कब इंकार करता हूँ।


    उत्तम रचना।।

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  4. बहुत सुन्दर रचना

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  5. सुन्दर रचना !
    मेरे ब्लॉग पर आये और फॉलोवर बनकर अपने सुझाव दे !

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।