Friday, September 16, 2016

जाने कहाँ खो गया !



वक्त के थपेड़ों संग,
न जाने कहाँ खो गया,
बचपन में मिला था जो खजाना मुझको।   

नन्हें हाथों को
चारपाई के पायों पर मारकर
बजाया करता था जिन्हें शौक से ,
चांदी की वो एक जोड़ी धागुली,
मेरे नामकरण पर, जो दे गए थे,
मेरे नाना मुझको।
वक्त के थपेड़ों संग,
न जाने कहाँ खो गया,
बचपन में मिला था जो खजाना मुझको।।

बड़े चाव से खाता था, जिसपर,
छांछ और झंगोरे का
वो स्वादिष्ट पहाड़ी व्यंजन,
'छंछेड़ी' नाम था जिसका,        
कांस की वह रकाबी,
बचपन में जिसपर दादी माँ
परोसती थी खाना मुझको।
 वक्त के थपेड़ों संग,
न जाने कहाँ खो गया,
बचपन में मिला था जो खजाना मुझको।।

यूं तो खोई हुई चीज के इसकदर,
अनुरागी हम हरगिज न रहे, 
जिंदगी में उतार-चढ़ाव के मौसम,
बहुत आये और गए,
मगर, वो अपने पहाड़ी गाँव का मौसम,
सांझ ढलते, आहिस्ता -आहिस्ता
डूबता सूरज, घाटी से आगे खिसकता
विशालकाय पहाड़ों का प्रतिविम्ब,  
जो बेइंतहां  भाता था सुहाना मुझको।
वक्त के थपेड़ों संग,
न जाने कहाँ खो गया,
बचपन में मिला था जो खजाना मुझको।।

नन्ही सी जान और  "पहाड़ी सकूल", 
गुरूजी  की "गुरु दक्षिणा" लेकर
रोज सुबह मीलों पैदल चलना,
'बौरू' नाम था  वहाँ उसका,,
कभी  सेर भर गेंहू , जौ , झंगोरा, चावल ,
तो कभी एक अदद सी  लकड़ी,
गुरूजी के चूल्हे के लिए ,
नहीं इंतजाम हो पाया किन्ही बरसाती दिनों में, 
तो जिसे यहां सभ्य लोग 'बंक मारना', कहते है,
हमारे "लूकने" का वो अदद  ठिकाना  मुझको।  
वक्त के थपेड़ों संग,
न जाने कहाँ खो गया,
बचपन में मिला था जो खजाना मुझको।।

छुट्टी का दिन, घर पर कैसे रहे,
गाय, बकरियां हाँकी, जंगल गए,
दिनभर भूखे-प्यासे, गाढ और  डाँडो,
धार की नपाई कैसे सहें,
अपने और रिश्तेदारों के खेत से
ककड़ी, खीरा, और  फूट चुराने का
जो मिलता था बहाना  मुझको,
वक्त के थपेड़ों संग,
न जाने कहाँ खो गया,
बचपन में मिला था जो खजाना मुझको।।

सुबह -सुबह, जिस भी घर से,
आती थी 'घूर-घूर' आवाज परेडे  के थिरकने की,
पहुँच जाता था 'ठेकी'  लेकर,छांछ मांगने,
और पूरा गाँव कहता था, छांछ का दीवाना मुझको। 
वक्त के थपेड़ों संग,
न जाने कहाँ खो गया,
बचपन में मिला था जो खजाना मुझको।।  

8 comments:

  1. वाह! आनद दायक. अद्भुत बिम्ब और आंचलिक शब्दावली से सजी यह कविता संग्रहनीय है. शेयर करता हूँ फेसबुक में. आभार कविवर.

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार आपका , पाण्डेय जी, बहुत समय बाद ब्लॉग मुलाक़ात अच्छी लगी।

      Delete
  2. पुराने लोगो को अपनी सक्रियता नियमित रूप से बनाए रखनी होगी अगर हिन्दी ब्लॉगिंग को दोबारा पहले वाले दौर मे ले जाना है तो ... आइये मिल कर चलते है |



    ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "विवादित पर जानदार चित्रकार - मक़बूल फ़िदा हुसैन“ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

    ReplyDelete
  3. बहुत कुछ खो गया हिया उम्र के सफ़र में ... और अब शायद लौटना संभव भी नहीं सिवाए यादों के ...

    ReplyDelete
  4. कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन।

    ReplyDelete
  5. गढ़वाली शब्दों को बखूबी जमाया है
    मजा आ गया खो गए हम भी बचपन की गलियों में, पहाड़ी वादियों में

    ReplyDelete

प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।