Wednesday, February 13, 2019

मंथन !

पात-डालियों की जिस्मानी मुहब्बत,अब रुहानी हो गई,
मौन कूढती रही जो ऋतु भर, वो जंग जुबानी हो गई।

बोल गर्मी खा गये पातियों के,देख पतझड़ को मुंडेर पर,
चेहरों पे जमी थी जो तुषार, अब वो पानी-पानी हो गई।

सृजन की वो कथा जिसे,सृष्टिपोषक सालभर लिखते रहे,
पश्चिमी विक्षोभ की नमी से पल मे, खत्म कहानी हो गई।

बसन्ती मुनिया अभी परस़ों जिसे,ग्रीष्म ने खिलाया गोद मे,
देने हिदायतों की होड़ मे, अब वो उसी की नानी हो गई।

न कर फिर उसे स्याह से रंगने की कोशिश, ऐ 'परचेत',
जमाने के वास्ते जो खबर, अब बहुत पुरानी हो गई।

12 comments:

  1. पात-डालियों की जिस्मानी मुहब्बत,अब रुहानी हो गई,
    मौन कूढती रही जो ऋतु भर, वो जंग जुबानी हो गई।
    बेहतरीन लेखन आदरणीय परचेत जी।

    ReplyDelete
  2. आपकी लिखी रचना "मुखरित मौन में" शनिवार 16 फरवरी 2019 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
  3. समय के साथ बहुत कुछ बदलता चला जाता है
    बहुत अच्छी प्रस्तुति

    ReplyDelete
    Replies
    1. हौंंसला बढाने हेतु आभार आपका, कविता जी।

      Delete
  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-02-2019) को “प्रेम सप्ताह का अंत" (चर्चा अंक-3248) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  5. बहुत खूब ,यथार्थ सृजन ,सादर नमन आप को

    ReplyDelete
  6. मौन कूढती रही जो ऋतु भर, वो जंग जुबानी हो गई।
    बेहतरीन लेखन

    ReplyDelete

वक्त की परछाइयां !

उस हवेली में भी कभी, वाशिंदों की दमक हुआ करती थी, हर शय मुसाफ़िर वहां,हर चीज की चमक हुआ करती थी, अतिथि,आगंतुक,अभ्यागत, हर जमवाडे का क्या कहन...