पात-डालियों की जिस्मानी मुहब्बत,अब रुहानी हो गई,
मौन कूढती रही जो ऋतु भर, वो जंग जुबानी हो गई।
बोल गर्मी खा गये पातियों के,देख पतझड़ को मुंडेर पर,
चेहरों पे जमी थी जो तुषार, अब वो पानी-पानी हो गई।
सृजन की वो कथा जिसे,सृष्टिपोषक सालभर लिखते रहे,
पश्चिमी विक्षोभ की नमी से पल मे, खत्म कहानी हो गई।
बसन्ती मुनिया अभी परस़ों जिसे,ग्रीष्म ने खिलाया गोद मे,
देने हिदायतों की होड़ मे, अब वो उसी की नानी हो गई।
न कर फिर उसे स्याह से रंगने की कोशिश, ऐ 'परचेत',
जमाने के वास्ते जो खबर, अब बहुत पुरानी हो गई।
मौन कूढती रही जो ऋतु भर, वो जंग जुबानी हो गई।
बोल गर्मी खा गये पातियों के,देख पतझड़ को मुंडेर पर,
चेहरों पे जमी थी जो तुषार, अब वो पानी-पानी हो गई।
सृजन की वो कथा जिसे,सृष्टिपोषक सालभर लिखते रहे,
पश्चिमी विक्षोभ की नमी से पल मे, खत्म कहानी हो गई।
बसन्ती मुनिया अभी परस़ों जिसे,ग्रीष्म ने खिलाया गोद मे,
देने हिदायतों की होड़ मे, अब वो उसी की नानी हो गई।
न कर फिर उसे स्याह से रंगने की कोशिश, ऐ 'परचेत',
जमाने के वास्ते जो खबर, अब बहुत पुरानी हो गई।
पात-डालियों की जिस्मानी मुहब्बत,अब रुहानी हो गई,
ReplyDeleteमौन कूढती रही जो ऋतु भर, वो जंग जुबानी हो गई।
बेहतरीन लेखन आदरणीय परचेत जी।
आभार सिन्हा सहाब।
Deleteआपकी लिखी रचना "मुखरित मौन में" शनिवार 16 फरवरी 2019 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteशुक्रिया यशोदा जी।
Deleteसमय के साथ बहुत कुछ बदलता चला जाता है
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति
हौंंसला बढाने हेतु आभार आपका, कविता जी।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-02-2019) को “प्रेम सप्ताह का अंत" (चर्चा अंक-3248) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार सर।
ReplyDeleteबहुत खूब ,यथार्थ सृजन ,सादर नमन आप को
ReplyDeleteआभार आपका, कामिनी जी।
Deleteमौन कूढती रही जो ऋतु भर, वो जंग जुबानी हो गई।
ReplyDeleteबेहतरीन लेखन
शुक्रिया, संजय जी।
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