मिली तीन-तीन गुलामियां तुमको प्रतिफल मे,
और कितना भला, भले मानुष ! तलवे चाटोगे।
नाचना न आता हो, न अजिरा पे उंगली उठाओ,
अरे खुदगर्जों, जैसा बोओगे, वैसा ही तो काटोगे।।
अहम् ,चाटुकारिता को खुद आत्मसात् करके,
स्वाभिमान पर जो डटा है,उसे तुम क्या डांटोगे।
आम हित लगा नाटा, निहित हित में देश बांटा,
जाति-धर्म की आड़ में जन और कितना बांटोगे।।
स्वाधीनता नाम दिया, जुदा भाई को भाई से किया,
औकात क्या है अब तुम्हारी जो बिछड़ों को सांटोगे।
जड़ें ही काट डाली जिस वटवृक्ष की 'परचेत' तुमने,
उस दरख़्त की डालियों को, और कितना छांटोगे।।
सटीक
ReplyDelete🙏🙏
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
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