Friday, September 19, 2025

फटने को तत्पर, प्रकृति के मंजर।


अभी तक मैं इसी मुगालते में जी रहा था

सांसों को पिरोकर जिंदगी मे सीं रहा था,

जो हो रहा पहाड़ो पर, इंद्रदेव का तांडव है,

सुरा को यूं ही सोमरस समझकर पी रहा था।


किंतु अब जाके पता चला कि तांडव-वांडव कुछ नहीं ,

विकास-ए-परती धरा ये, स्वर्ग वालों को खटी जा रही, 

ये तो "ऋतु बरसात' इक बहाना था बादल फटने का,

नु पता आपरेशन सिंदूर देख, इंद्रदेव की भी फटी जा रही।




5 comments:

हद पार

बस भी करो अब ये सितम, हम और न सह पाएंगे, बदकिस्मती पे अपनी,  बल खाए न रह पाएंगे। किस-किस को बताएं अब, अपनी इस जुदाई का सबब, क्या मालूम था,फै...