Saturday, February 12, 2011

पीच्ची !

माय डियर पीच्ची ;
पहचान गई न ? तुम्हे मुझसे अक्सर यह शिकायत रहती थी कि मैं क्यों जानबूझकर तुम्हारे नाम को गलत उच्चारित करता हूँ। और देखो, आज भी वही गुस्ताखी फिर से दुहरा दी है मैंने, हा-हा॥ किन्तु तुम्हारे इस गिले-शिकवे को कि "तुम ये क्या पिच्ची-सिच्ची करते रहते हो, मुझे मेरे सही नाम से क्यों नहीं पुकारते ", मैं अब और पेंडिंग नहीं रखना चाहूँगा, क्या पता फिर कभी मुझे तुम्हे एक्सप्लेन करने का मौक़ा मिले, न मिले।

हे ! किन्तु प्रोमिस करो कि तुम इसका मीनिंग जानकार मुझे मन ही मन बुरा-भला नहीं कहोगी। पीच्ची शब्द हमारे आंध्रा में तेलगु भाषा में किसी को पागल कहने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। तुम्हारी कॉलेज के दिनों की हरकतों को देखकर ही मैं तुम्हे इस तरह से सम्बोद्धित करता था। उस वक्त तो इसे सुनकर तुम बुरा मानती थी, लेकिन आई एम् स्योर, इस वक्त पीच्ची का यह ख़ूबसूरत सा अर्थ जानकार तुम्हारे उस शोभायमान चेहरे पर जरूर अब तक
एक लम्बी-चौड़ी मुस्कान दौड़ गई होगी।

अब तुम्हे यह भी आश्चर्य अवश्य ही हो रहा होगा कि मुझे तुम्हारा इ-मेल पता मिला कहाँ से ? जैसा कि मैंने पहले कहा, आज मैं तुम्हे किसी भी असमंजस में नहीं रखूंगा। तुम्हें शायद याद होगा वो अपना कॉलेज के दिनों में हमें अक्सर कैंटीन में मिलने वाला अपना वह दोस्त, महेश, जो अक्सर ही मुझे 'कमीना' कहकर संबोधित करता था। बस, आज वही एक कॉलेज के दिनों का अपना मित्र है, जिससे मेरा यदा-कदा संपर्क रहता है। आजकल इंदौर में किसी कम्पनी में पर्सनल मैनेजर है. उसी ने तुम्हारा यह ई-मेल ऐड्रस मुझे दिया. अब तुम यह भी जानना चाहोगी कि उसे कहाँ से यह एड्रेस मिला ? तो यह भी एक दिलचस्प कहानी है। जैसा कि मैंने कहा, वह एक कम्पनी में पर्सनल मैनेजर है, अभी कुछ दिनों पहले उसने अपनी कंपनी के लिए रिजूमे सर्च करने हेतु एक ऑनलाइन रेजुमे डैटा बैंक पोर्टल हायर किया था, और पोर्टल पर सर्च के दौरान ही उसे अभी हाल का तुम्हारा अपना पोस्ट किया हुआ बायो-डाटा मिला. बस, वहीं से उसने तुम्हारा ई-मेल ऐड्रस लिया और मुझे मेल कर दिया।

अपने दिल पर ढेर सारा बोझ लाधे लम्बे वक्त से एक अजीब सी कशमकश में जी रहा था, सोचा, तुम्हारे साथ शेयर करके क्या पता इसे कुछ हल्का कर सकूं। पहले तो यह संकोच हुआ कि अगर तुम शादीशुदा हुई तो खुदानाखास्ता यह मेल अगर तुम्हारे पति या इन्लौज में से किसी ने पढ़ लिया तो वह कुछ गलत ना समझ बैठे, और तुम्हे कोई दिक्कत पेश न आये। लेकिन जब महेश से फोन पर बात हुई और उसने कहा कि अभी दो महीने पुराने तुम्हारे बायोडाटा में उसने तुम्हारा पैतृक सरनेम ही तुम्हारे नाम के आगे देखा है, तो मै यह ऐजूम कर बैठा कि तुम अभी अनमैरीड ही हो, तुम्हे यह मेल करने की लिबर्टी ले रहा हूँ।

जैसा कि तुम्हे मालूम है कि मेरे ग्रेजुएशन करते ही मेरे दबंग डैड अपनी सेन्ट्रल सेकेट्रीएट की नौकरी से रिटायर हो चुके थे। आजीवन दिल्ली में ठहरने का उनका कभी भी मन नहीं रहा। तुम यह भी बहुत बेहतर ढंग से जानती हो कि चूँकि मेरी माँ पुराने ख्यालात की एक आज्ञाकारी पतिव्रता नारी थी, इसलिए घर के अन्दर दो उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों की भिन्न धूरियाँ होते हुए भी उसने कभी अपने पति की मर्जी के विरुद्ध कोई ऐतराज नहीं जताया. सब कुछ बस खामोश रहकर ही बर्दाश्त किया। माँ के संस्कारों के आगे, इस तड़क-भड़क की कलयुगी दुनिया में हम दोनों भाई-बहन भी कब आज्ञाकारी सतयुगी औलाद बन गए, हमें भी नहीं मालूम। अत: उनके रिटायर होते ही उनकी मर्जीनुसार हम लोग अपने नेटिव-प्लेस आंध्रा में सिफ्ट हो गए थे।

तुम्हे यह भी शिकायत होगी कि मैंने तुमसे उसके बाद फिर कभी संपर्क साधने की चेष्ठा क्यों नहीं की, तो उसका भी जबाब मैं दूंगा। वहाँ से स्थानांतरित होने के पश्चात एक साल बाद ही पापा मेरे लिए एक रिश्ता ढूंढ लाये। लडकी का बाप स्थानीय बिक्रीकर विभाग में कोई बड़ा अधिकारी था। और शायद मेरे लालची डैड को लडकी में मौजूद गुण-दोष कम और लडकी के बाप का यह गुण ज्यादा आकर्षित कर रहा था कि वह सेल्स-टैक्स विभाग में कार्यरत थे। मुझे बिना लडकी से मिलाये ही उन्होंने रिश्ता पक्का कर लिया और मंगनी भी हो गई। मैं उसवक्त एक कंप्यूटर कोर्स बंजारा हिल्स, हैदराबाद से कर रहा था. मेरे डैड इस बात से बहुत खुश थे कि उनके नालायक बेटे की कीमत उस वक्त नौ लाख आंकी गई थी।

लेकिन फिर करीब चार महीने बाद पता नहीं क्या हुआ कि मेरे और लडकी के पिता ने यह रिश्ता तोड़ने की घोषणा कर दी। हमारे यहाँ ऐसी प्रथा है कि यदि रिश्ता टूट जाए तो सगाई के दरमियां लडकी के परिवार द्वारा दी गई तय शुदा दहेज़ की राशि की अग्रिम किस्त, पंचायत बुलाकर लड़के के परिवार द्वारा आवश्यक खर्चे, जो इस बीच लड़के वालों ने किये हो, उस अग्रिम दहेज़ की किस्त में से काटकर बाकी रकम लडकी वालों को लौटा दी जाती है।

यह भी बता दूं कि सगाई के कुछ समय बाद लडकी और उसका परिवार मुझसे मिलने हैदराबाद आया था, और उसी दौरान मैंने अपनी माँ के कहने पर एक बड़े स्टोर से लडकी को एक कीमती पर्ल-सेट अपने क्रेडिट कार्ड से खरीदकर गिफ्ट किया था। कुछ दिन बाद जब मै छुट्टी पर घर गया तो मेरे डैड ने उस लेनदेन के बिल वगैरह अपने पास रख लिए थे। महेश तो मुझे पहले से ही कमीना कहता रहता था, किन्तु यह जानकार तुम हंसोगी कि मेरा बापू कमीनेपन में मेरा भी बाप निकला। क्योंकि बाद में मुझे मालूम पडा कि रिश्ता टूटने पर जब सगाई पर मिली दो लाख की रकम को पंचायत के समक्ष लौटाए जाने का हिसाब-किताब चल रहा था, तो मेरे डैड ने उस पर्ल-सेट की बिल राशि और क्रेडिट-कार्ड की पर्ची दोनों की रकम जोड़कर उतनी राशि दो लाख में से काट ली थी, जबकि होना यह चाहिये था कि बिल अथवा क्रेडिट पर्ची में से किसी एक को कंसीडर करते, और मैं नहीं समझता कि यह उन्होंने अनजाने में किया होगा।

खैर, बात आई-गई हो गई, लेकिन मेरे डैड के सिर पर हमेशा यह भूत सवार रहता था कि वे अपने लड़के की अच्छी कीमत कैसे वसूल पाए। दहेज़ की यह बीमारी यों तो हमारे पूरे ही देश को भ्रष्टाचार के दल-दल में डुबाये हुए है, मगर मैं समझता हूँ कि आंध्रा और बिहार दो ऐसे क्षेत्र है, जहां यह एक महामारी की तरह है। इस बीच हमारे ऊपर उस वक्त दुखों का पहाड़ ही टूट पडा जब मेरी बहन संध्या की मौत की खबर मुझे हैदराबाद में मिली। वह बीमार भी नहीं थी मगर, घर वालों को एक दिन सुबह अचानक अपने कमरे में मृत मिली। न जाने क्यों मुझे कभी-कभी संदेह होता है कि कही उसकी मौत की वजह भी मेरे लालची डैड का धन-माया से अगाध-प्रेम ही न रहा हो।

कुछ समय उपरान्त कंप्यूटर कोर्स पूरा कर मैं घर लौट गया. इसी दरमियां मेरे डैड को न मालूम किसने बताया कि एक अमेरिकी यूनिवर्सिटी भारतीय छात्रों को अमेरिका में पढने का अवसर दे रही है, बस तभी से उन्हें मुझे यूएस भेजने का भूत सवार हो गया। मुख्य मकसद यह नहीं था कि मैं वहाँ जाकर उच्च शिक्षा हासिल करूँ, बल्कि मुख्य-ध्येय यह था कि तत्पश्चात उन्हें अपने लड़के की अच्छी कीमत वसूलने के लिए पृष्ठभूमि बनाने में मदद मिले। दिल्ली में अपने पुराने संपर्कों के जरिये उन्होंने मुझे अमेरिका भेजने की सब कुछ तैयारियां पूरी कर ली थी।

और फिर एक दिन मैं अमेरिका के लिए रवाना हो गया। यहाँ आकर कुछ वक्त तो यहाँ की चकाचौंध में बहुत अच्छा गुजरा. मगर फिर शीघ्र ही ऊबने लगा। घर, देश और माँ की बहुत याद आती थी। मेरे दुखों का शायद यहीं छोर नहीं था, छह महीने बाद एक दिन डैड ने यह दुखद समाचार मुझे दिया कि मेरी माँ भी इस दुनिया से चल बसी। यहाँ, मुझे ढाढस बंधाने वाला भी अपना कोई नहीं था। चेल्ली(छोटी बहन संध्या ) की असामयिक मौत के बाद से ही वह बीमार रहने लगी थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं उससे विदा लेकर यहाँ के लिए चला था तो उसने डैड की वजह से खामोश रहकर अपनी पथराई सुर्ख आँखों से आसुओं का सैलाब बहाकर ही मुझे विदा किया था, मगर उसके झुर्रियां से लदे चेहरे की एक संतृप्त उदासी और सूखे अधरों पर जमी पपड़ी यह साफ़ बताती थी कि वह अन्दर ही अन्दर बहुत डरी हुई थी, क्योंकि उसके जिगर का टुकडा पहली बार उससे अलग होकर बहुत दूर एक अनजाने परदेश में अजनबियों के बीच जा रहा था।

अब मैं, पूरी तरह से टूट चुका था, जीने की कोई ख्वाइश भी अब दिल में नहीं रह गई थी। साथ ही मैं यह भी भली प्रकार से जानता था कि मेरे लोभी डैड ने माँ के देहांत की सूचना भी मुझे जानबूझकर इसलिए दो हफ्ते बाद दी, ताकि मैं कहीं तुरंत घर वापसी के लिए न चल पडू और आनेजाने में ही डेड-दो लाख और खर्च हो जायेंगे। कहानी अभी यहीं ख़त्म नहीं हुई थी, एकदिन अचानक अमेरिकी सुरक्षा अधिकारी हमारे कम्पाउंड में आ घुसे और हमें जानवरों की भांति रेडियो कॉलर पहनाने लगे। बाद में मालूम पडा कि जिस यूनिवर्सिटी के जरिये अध्ययन के लिए हम यहाँ तक पहुचे थे, वह फर्जी और गैरकानूनी थी।

नहीं मालूम कि तुम किस तरह मेरे इस मेल को लेती हो, लेकिन यही सब वजहें थी कि मैं अपने किसी पुराने मित्र के संपर्क में नहीं रह सका। अवसाद से पूर्णतया ग्रसित मेरा मन अब समझ नहीं पा रहा कि किस्मत के इस नए ड्रामे पर हँसे या फिर रोये। यह दिलो-दिमाग कभी-कभी तो अपने लिए ही बुरे-बुरे सपने देखने लगता है। अब वापस लौटने की भी तमन्ना नहीं रही दिल में। कभी अपने उस खूसट डैड पर भी हंसी आ जाती है, पता नहीं, ढेर सारे दहेज़ के क्या-क्या सपने देख रहे होंगे। सचमुच, बहुत अजीब किस्म के लोगो से भरी पडी है यह दुनिया, जो सिर्फ कुछ अतिरिक्त धन पाने के लिए अपना जीवन, अपनी पूरी फेमली ही दांव पर लगा देते है।

मैंने तो सिर्फ एक जीवन-संगनी की चाहत रखी थी ....जस्ट ओनली ब्राइड ( विदाउट ऐनी बॉयफ्रेंड ) :)

न तलाश-ए-मुकद्दर मैं निकला,तकदीर भी हरजाई थी,
वैभव-विलासिता की न कभी, मैंने कोई आश लगाई थी,
खोज-ए-मंजिल-ए-सफ़र में बस इतनी सी ख्वाइश थी
ऐ जिन्दगी, कि काश तू वैसी होती, जैंसी मैंने चाही थी !


हूहु..बेचारा लालची, पीच्ची बुढऊ........ !!

तुम्हारा....
उदय,

12 comments:

  1. धारा प्रवाह, एक साँस में पढ़ गया इस कहानी को ।
    यकीन ही नहीं हो रहा कि ये एक कहानी ही है ।
    एक्सीलेंट ।

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  2. उफ... !!! क्या लिखते हो भाई

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  3. एक सच्चाई लिख दी आप ने आज के उन हलात पर जिसे हमारे उन नोजवानो ने अमेरिका मे भुगता हे, वेसे मैने दिल्ली मे कुछ लोगो को राय दी थी कि कभी भी ऎसी यूनिवर्सिटी मे दाखिला मत ले जिस पर शक हो क्योकि इगलेंड मे बहुत सी बोगस यूनिवर्सिटी खुल गई हे,लेकिन कोन मानता हे?

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  4. यकीन नहीं हो रहा है ।

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  5. सन्नाट लेखन....पीच्ची भी पढ़कर सन्न बैठी होगी बेचारी.

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  6. बहुत प्रभावी कहानी है।

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  7. नत मस्तक हूं आपके लेखन के आगे, बहुत लाजवाब.

    रामराम.

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  8. कथा बहुत ही सशक्त है!
    विल्कुल गंगा की तरह प्रवाहित हो रही है!

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  9. कहानी प्रेरणास्पद है.

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।