पुष्प-हार क्या मिलेगा, पदत्राण खाओगे,
जैसा बोओगे, फसल वैसी ही तो पाओगे।
जानता हूँ कि कहना,लिखना व्यर्थ है सब,
कब तुम इंसान थे, जो अब बन जाओगे।
उसी के तो काबिल थे,जो हासिल हो रहा,
सच्चाई को कब तक, फरेब से छुपाओगे।
सम्मुख वार का हौंसला तो तुममे है नहीं,
मुल्क-फरोशों,पीठ पे ही खंजर चुभाओगे।
हिम्मत जुटाओ, स्व-गिरेवां में झाँकने की,
गीत दमन,मुफ़लिसी के,कब तक गाओगे।
आज जितना भले दूर, यथार्थ से भागिये,
आखिर में लौट के बुद्धू,घर को ही आओगे।
देख कुत्सित कृत्य तुम्हारे,पूछता 'परचेत',
कायरों,लहू मासूमों का कब तक बहाओगे।
बेशर्मों को अपने गिरवान में झाँकने की फुर्सत कहाँ मिलती है ..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया उम्दा रचना
बहुत बढ़िया -
ReplyDeleteनिर्दोष गजल-
सटीक सन्देश-
आभार भाई जी ||
मासूमों के खून से, लिखते नई किताब |
पड़े लोथड़े माँस के, खाते पका कबाब |
खाते पका कबाब, पाक की कारस्तानी |
जब तक हाफिज साब, कहेंगे हिन्दुस्तानी |
तब तक सहना जुल्म, मरेंगे यूं ही भोले |
सत्ता तो है मस्त, घुटाले कर कर डोले |||
शिक्षाप्रद सन्देश!
ReplyDeleteकल रविवार के चर्चामंच पर भी इस पोस्ट को लिंक किया है।
सन्देश देती उम्दा गजल,,,बधाई
ReplyDeleteRecent post: गरीबी रेखा की खोज
सुंदर. आप तो अच्छा लिखते ही हैं
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ReplyDeleteवस्तुत : गोदियाल ब्रांड रचना। :)
हालातों पर करारी चोट।
ReplyDeleteवस्तुत : गोदियाल ब्रांड रचना। :)
हालातों पर करारी चोट।
कोई ठोस उत्तर ही संतोष दे सकता है।
ReplyDeleteबिल्कुल समसामयिक सटीक गजल, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
समसामयिक रचना ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और संदेशवाही गज़ल लिखी है आपने, बधाई.
ReplyDeleteसादर
नीरज 'नीर'
कव्यसुधा
आखिर कब तलक !!
ReplyDeleteवर्तमान को अभिव्यक्त करती है सरल शब्दों में !
जानता हूँ कि कहना,लिखना व्यर्थ है सब,
ReplyDeleteकब तुम इंसान थे, जो अब बन जाओगे ...
बहुत खूब गौदियाल जी ... पता नहीं कब इंसान पहचान खो दे ...
सभी शेर वर्तमान पे कटाक्ष हैं ....
लिखा बहुत अच्छा है. लोग सुनें अन्यथा सुनने के काबिल बचेंगे इसमें संशय है.
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