Wednesday, March 6, 2013

जिन्दगी इक खुशनुमा सफ़र होती !











जिन्दगी यूं इसतरह न गुजर होती, न बसर होती,
अगर मिली इसको, जो बस इक तेरी नजर होती।

पीते ही क्यों प्यालों से,  निगाहें अगर पिला देती,
गुजरती जो मेरे दिल पे, तेरे दिल को खबर होती।
  
तेरे आगोश पनाह मिलती,धन्य होते तुझे पाकर, 
बेरहम, बेकदर जमाने में, हमारी भी कदर होती।

सजाते हम भी आशियाना,इस वीरां मुहब्बत का, 
यादे गुजरे हुए लम्हों की, अमर और अजर होती।

अगर तुम्हे जो पा लेते,  ख्वाइश शेष क्या होती,    
कुछ तलाश नहीं करते,उल्फत न मुक्तसर होती।

डूबती इस नैया के,  संग जो खेवनहार तुम होते, 
ये जिन्दगी 'परचेत',  इक खुशनुमा सफ़र होती।  

छवि  गूगल से साभार !

7 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल गुरूवार (07-03-2013) के “कम्प्यूटर आज बीमार हो गया” (चर्चा मंच-1176) पर भी होगी!
    सूचनार्थ.. सादर!

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  2. बढ़िया है आदरणीय-
    शुभकामनायें-

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  3. तेरे आगोश पनाह मिलती,धन्य होते तुझे पाकर,
    बेरहम, बेकदर जमाने में, हमारी भी कदर होती ...

    बहुत खूब ...

    उनके दमन में जो भूल से पनाह मिल जाती
    मुझे जिंदगी जीने की नई राह मिल जाती ....

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  4. उत्कृष्ट प्रस्तुति भाई साहब .

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  5. बहुत प्यारी बात कही है आपने..

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संशय!

इतना तो न बहक पप्पू ,  बहरे ख़फ़ीफ़ की बहर बनकर, ४ जून कहीं बरपा न दें तुझपे,  नादानियां तेरी, कहर  बनकर।