हो जाएगा जो अब भला, यह ज़माना भला कब था,
राज धूर्तता का ही चला, शराफत का चला कब था।
अस्मिता, अस्तित्व की, मालूम सबको है हकीकत,
तन भले ही खोखला हो,किन्तु मन को खला कब था।
आलम देखकर दरिंदगी का ,सौम्य दिल बेचैन होते,
लहू शिष्टता का ही जल रहा,शठता का जला कब था।
दस्तूर सारे अपने - अपने, मुक़रर्र वक्त चलते गए,
उगा देख जुल्मों का सूरज,कौन पूछे ढला कब था।
पैदा हुए अधम घाव 'परचेत', सभ्यता की खाल पर,
खुरचते तो सब रहे, मरहम किसी ने मला कब था।
उगा देख जुल्मों का सूरज,कौन पूछे ढला कब था।
पैदा हुए अधम घाव 'परचेत', सभ्यता की खाल पर,
खुरचते तो सब रहे, मरहम किसी ने मला कब था।
आलम देखकर दरिंदगी का ,सौम्य दिल बेचैन होते,
ReplyDeleteलहू शिष्टता का ही जल रहा,शठता का जला कब था..
गहरे भाव लिए ... कुछ कुछ उदासी लिए ... वार्तालाप करती है रचना ..
दरिंदगी दिन-ब-दिन बढती ही जा रही है, सौम्य दिलों का लहू तो जलना ही है, अभिशप्त जो है।
ReplyDeleteआप आसानी से अपनी रचनाओं में दर्द, व्यंग, मार्मिकता यानि सब कुछ आसानी से उंडेल जाते हैं, बहुत शानदार रचना.
ReplyDeleteरामराम.
मन की गहरी अनुभूतियों को कुशलता से प्रकट किया है, हर पंक्ति को जिया है...
ReplyDeleteबहन बेटी बिन मिनिस्टर, सोच में कुछ भला कब था-
ReplyDeleteब्याह से पहले हुवे सच, किन्तु माँ से पला कब था |
कर्ण दुर्योधन दुशासन, और शकुनी मिल गए हैं-
विदुर चुप रहते विषय पर, भीष्म का कुछ चला कब था |
सुनती कर्ण पुकार है, अब जा के सरकार |
ReplyDeleteसोलह के सम्बन्ध से, निश्चय हो उद्धार |
निश्चय हो उद्धार, बिना व्याही माओं के |
होंगे कर्ण अपार, कुँवारी कन्याओं के |
अट्ठारह में ब्याह, गोद में लेकर कुन्ती |
फेरे घूमे सात, उलाहन क्यूँ कर सुनती ||
बहुत खूब कही ,सही कही .अ विवाहित माताओं का देश बनेगा मेरा भारत .षोडशी कन्याओं की सहमती प्राप्त करने का नया दौर शुरू होगा .
behtrien-***
ReplyDeleteसुन्दर और बेहतरीन प्रस्तुति !!
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति महोदय ...
ReplyDeleteसाभार....
उम्दा गजल,लाजबाब शेर,,,वाह वाह,,,
ReplyDeleteRecent Post: सर्वोत्तम कृषक पुरस्कार,
सार्थक और सुन्दर रचना.हो जाएगा जो अब भला, यह ज़माना भला कब था,
ReplyDeleteराज धूर्तता का ही चला, शराफत का चला कब था।
अस्मिता, अस्तित्व की, मालूम सबको है हकीकत,
तन भले ही खोखला हो,किन्तु मन को खला कब था।
आलम देखकर दरिंदगी का ,सौम्य दिल बेचैन होते,
लहू शिष्टता का ही जल रहा,शठता का जला कब था।
दस्तूर सारे अपने - अपने, मुक़रर्र वक्त चलते गए,
उगा देखते जुल्मों का सूरज,कौन पूछे ढला कब था।
पैदा हुए अधम घाव 'परचेत', सभ्यता की खाल पर,
खुरचते तो सब रहे, मरहम किसी ने मला कब था।
सत्य हम पहचानते हैं,
ReplyDeleteश्रेष्ठ भी फिर माँगते हैं।
पर क्यों और कब तक ?
ReplyDelete