Saturday, March 16, 2013

लघु कथा- आदत हाथ फैलाने की !




दो-तीन दिन पहले मैंने यह लघु-कथा अपने आचलिक भाषा के ब्लॉग पर गढ़वाली में लिखी थी, आज उसका हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ ; 

एक ब्राह्मण पुजारी के तौर पर अपना सांसारिक जीवन शुरू करने वाले उसके वृद्ध पिताजी  इलाके भर में एक दिव्य-महात्मा के तौर पर प्रसिद्द हो गए थे। इलाके के लोग यहाँ तक मानते थे कि अगर  वे किसी को  कोई वरदान अथवा शाप दे दें तो वह शत-प्रतिशत सच निकलता था। मगर एक वो कहावत "चिराग तले अन्धेरा" भी उन पर बखूबी चरितार्थ होती थी, और उसकी वजह थी, पंडित जी का अपना इकलौता लड़का, निकम्मा, निठल्ला और आलसी।  बचपन से ही पता नहीं यह कैसी आदत उसने पकड़ ली थी कि चाहे कोई दोस्त हो, मास्टर जी हों, अथवा कोई रिश्तेदार हों, जहां मौक़ा मिला, उनके आगे पैसों के लिए हाथ फैला देता था। 

पंडित जी उसकी इस आदत से बड़े दुखी थे। किन्तु उसकी इस आदत के लिए कुछ हद तक वे खुद भी जिम्मेदार थे क्योंकि पंडित जी अपने आदर्शों के भी पक्के थे। सिद्धता का गुण खुद में विद्यमान होने के बावजूद भी वे सिर्फ मेहनत  की ही कमाई में विश्वाश रखने वाले इंसान थे, और किसी भी फास्ट-मनी (तीव्र अर्जित धन) के सख्त खिलाफ थे। और इसलिए उनके घर की माली हालत खस्ता ही रहती थी।

बुढापे में पंडित जी को कई तरह की बीमारियों ने भी घेर लिया था, और फिर उनका स्वर्ग सिधारने का वक्त निकट आ गया।  मौक़ा ताड़कर उनका निकम्मा बेटा पंडित जी के पैर पकड़कर उनसे विनती करने लगा कि आप मेरे पिता-श्री है, मैं आपका बेटा हूँ। आपको तो हमारे घर की माली हालत के बारे में पूरी जानकारी है। दुनियाभर में आपकी हाम है कि आप एक सिद्ध महात्मा हो, जिसको भी कोई वरदान दे देते हो, वह सच निकलता है। अत:  मुझ पर भी कृपा करें और मुझे भी एक वरदान दें। 

वृद्ध पंडित जी ने खिन्न मन और रुंधे हुए गले से कहा" वैसे तो मैं तुझे भी अवश्य वरदान देता पुत्र, किन्तु मैं तेरी इस मांगने की आदत से नाखुश हूँ। हाँ, अगर तू मुझे यह वचन दे कि आगे से किसी भी इंसान के आगे हाथ नहीं फैलाएगा तो मैं भी तुझे एक वरदान दूंगा, किन्तु साथ ही यह भी ध्यान रखना कि मैं धन-दौलत पाने से सम्बंधित वरदान किसी को भी नही देता।  

अब वह सोच में पड गया कि बुड्ढ़े ने उसे ये कैसी दुविधा में डाल दिया ? मुझसे मेरी माँगने की आदत भी छुड़वाना चाहता है और धन-दौलत का वरदान भी नहीं देगा। वह कुछ देर गहरी सोच में पडा रहा, फिर अचानक एक जबरदस्त आइडिया उसके खुरापाती दिमाग में आया और वह उछल पडा। मृत्यु-शैय्या पर लेटे अपने बाप के पैरों को दबाते हुए उसने झट से कहा कि पिताजी, मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं आइन्दा किसी भी इंसान के आगे कुछ भी मांगने के लिए हाथ नहीं फैलाऊंगा, किन्तु आप भी मुझे यह वरदान दो की इंसानों के अलावा जिस किसी के भी आगे मैं हाथ फैलाऊँ, उसके पास जो भी हो वो वह मुझे दे दे।

अंतिम साँसे गिन रहे पंडित जी  ने अपने दिमाग पर जोर डालते हुए सोचा  कि  इंसानों के अलावा भला यह और किससे क्या मांग सकता है ?  पेड़ पौधों, पत्थरों से मांगेगा तो वो भला इसे क्या देंगे और अगर गाय-भैंसों के आगे हाथ फैलाएगा तो वो तो इसे गोबर ही दे सकते है। अत: बूढ़े पंडित जी ने अपना हाथ उठाकर कहा तथास्तु और तत्पश्चात स्वर्ग सिधार गए। 
अब वरदान पाकर उनके उस निकम्मे बेटे ने झटपट अपने गाँव से शहर को पलायन का  निर्णय लिया और शहर आ गया। आदतन शहर आकर भी उसने काम तो कोई भी नहीं किया, किन्तु आजकल वह शहर के पौश इलाके में एक आलीशान बंगले में रहता है, घर के आगे दो-दो मर्सिडीज खडी रहती हैं। करता वह सिर्फ  इतना सा है कि तमाम शहरों में  बैंकों के एटीएम के पास जाकर  उनके आगे हाथ फैला देता है, बस !        

13 comments:

  1. आप की ये सुंदर रचना शुकरवार यानी 22-03-2013 की नई पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही है...
    आप भी इस हलचल में शामिल होकर इस की शोभा बढ़ाएं।
    आप के सुझावों का स्वागत है। आप से मेरा निवेदन है कि आप भी इस हलचल में आकर इसकी शोभा बढ़ाएं...
    सूचनार्थ।

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  2. Behtarin Prastuti muze bahot pasand aayi From How they do that

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  3. kya baat hai...sundar prastuti..

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  4. आदत अच्छी हो या बुरी ..आसां नहीं होता छोड़ना ..
    बहुत बढ़िया प्रेरक कथा ..

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  5. रहा वही का वही.

    रामराम.

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  6. मंगते से चोर-उवक्‍का और बन गया। बढिया कथा है।

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  7. Atulniy-***

    aap ka blog first time dekh va padh kar harsh hua

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  8. बहुत बढ़िया....
    प्रेरक कथा.

    सादर
    अनु

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।