Friday, February 8, 2013

मिथ्याबोध !











इसकदर भी हमपे ये बेरहमी न होती, 
ऐ अहबाब, अगर तुम बहमी न होती। 
   
कथा मुहब्बत की पिपासा न बनती,
दिल दिलाने की दिलासा न बनती, 
ये नजर इनायत की जह्मी न होती,
ऐ अहबाब,अगर तुम बहमी न होती।

चेहरे पे निशां बदग़ुमानियों के पूरे, 
ख्वाहिशों के दामन में ख्वाब अधूरे, 
मगर हर गुजारिश अहमी न होती,
ऐ अहबाब,अगर तुम बहमी न होती।

उम्मीदों के नभ अब निराशा के घन, 
भरमा रही पग-पग यकीं को उलझन, 
हर ख्वाइश हमारी यूं सहमी न होती,
ऐ अहबाब, अगर तुम बहमी न होती।   
अहबाब =माशूक (Darling)
छवि गूगल से साभार !

6 comments:

  1. जितनी चाह उठती है, मन में उतने गहरे कुछ धँस जाता है..

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  2. बढ़िया गीत है भाई साहब .बेहतरीन रूपकात्मक्ता लिए हुए .

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  3. मनचाहा सब हो जाता तो न जाने क्या होता ...

    दोस्त अहबाब की नज़रों में बुरा हो गया मैं
    वक़्त की बात है क्या होना था क्या हो गया मैं
    (~ शहरयार)

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  4. वाह, बहुत लाजवाब भाव.

    रामराम.

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  5. वाह ... जो हुवा खुद की बेरहमी से ही हुवा ...
    ये सच भी है ... खुद ही जिमेवार होता है इंसान ...

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  6. शुक्रिया आपकी टिपण्णी के लिए बेहतीन गीत के लिए .

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।