देखता मौन संगम, वहाँ कौन कितना नहा है,
पावनी गंगा जल-धार में, पाप कितना बहा है।
अमृत-नीर जीवन दायिनी,कलुषनाशिनी वह,
मुक्ति-दात्री है मगर, दर्द उसने कितना सहा है।
व्यक्तित्व का सौन्दर्य है,अंत:मन की सुघड़ता,
बाह्य-शुचिता मे ही आज मग्न कितना जहां है।
त्रिवेणी के तट चल रही, स्पर्धा है डुबकियों की,
मुद्दई उस भीड़ में,संगम मगर कितना तन्हा है।
उपदेश सच्चा,"मन चंगा तो कठोती में गंगा ",
जिसने भी 'परचेत' यह कहा, सच ही कहा है।
१२ वर्ष बाद भी यदि पवित्र हो जायें तो देश का भला हो जायेगा।
ReplyDeleteआज तो कठौती में कहने वाले भी बैन हो जाते.
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ReplyDeleteआपकी यह बेहतरीन रचना शनिवार 09/02/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
ReplyDeleteमन चंगा तो कठोती में गंगा
ReplyDeleteRECENT POST: रिश्वत लिए वगैर...
बहुत बढ़िया आदरणीय ||
ReplyDeleteसटीक प्रस्तुति ।
ReplyDeleteव्यंग्य और तंज लिए बेहतरीन प्रस्तुति .गंधाती गंगा की तन्हाई की .बे -बसी की .
ReplyDeleteHO GYEE MAILI AAJ GANGA HAMARI,HOSH ME AAVO SAPUTO MAT KARO DERI
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना प्रभावशाली प्रस्तुति
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