Thursday, February 7, 2013

शुचिता और तारिणी !







देखता मौन संगम, वहाँ कौन कितना नहा है, 
पावनी गंगा जल-धार में, पाप कितना बहा है। 

अमृत-नीर जीवन दायिनी,कलुषनाशिनी वह,
मुक्ति-दात्री है मगर, दर्द उसने कितना सहा है। 

व्यक्तित्व का सौन्दर्य है,अंत:मन की सुघड़ता,
बाह्य-शुचिता मे ही आज मग्न कितना जहां है। 
त्रिवेणी के तट चल रही, स्पर्धा है डुबकियों की, 
मुद्दई उस भीड़ में,संगम मगर कितना तन्हा है।

 उपदेश सच्चा,"मन चंगा तो कठोती में गंगा ",
 जिसने भी 'परचेत' यह कहा, सच ही कहा है। 

10 comments:

  1. १२ वर्ष बाद भी यदि पवित्र हो जायें तो देश का भला हो जायेगा।

    ReplyDelete
  2. आज तो कठौती में कहने वाले भी बैन हो जाते.

    ReplyDelete
  3. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  4. आपकी यह बेहतरीन रचना शनिवार 09/02/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!

    ReplyDelete
  5. बहुत बढ़िया आदरणीय ||

    ReplyDelete
  6. व्यंग्य और तंज लिए बेहतरीन प्रस्तुति .गंधाती गंगा की तन्हाई की .बे -बसी की .

    ReplyDelete
  7. HO GYEE MAILI AAJ GANGA HAMARI,HOSH ME AAVO SAPUTO MAT KARO DERI

    ReplyDelete
  8. बहुत सुंदर रचना प्रभावशाली प्रस्तुति

    ReplyDelete

सहज-अनुभूति!

निमंत्रण पर अवश्य आओगे, दिल ने कहीं पाला ये ख्वाब था, वंशानुगत न आए तो क्या हुआ, चिर-परिचितों का सैलाब था। है निन्यानबे के फेर मे चेतना,  कि...