...............नमस्कार, जय हिंद !....... मेरी कहानियां, कविताएं,कार्टून गजल एवं समसामयिक लेख !
Saturday, December 28, 2019
Friday, December 27, 2019
दिल्ली-एनसीआर
ये दिल्ली-एनसीआर,
अजीब शहर है यार।
सिर्फ़ प्रदूषण अखण्ड,
बाकी सब खण्ड-खण्ड।
राजस्थानी रेत तपे, पडे गर्मी,
पहाड़ों मे हिम पडे तो ठंड।
बरसात मे चौतरफ़ा सैलाब,
तुनकमिजाज आफ़ताब ।
सर्दियों मे धुंध प्रचण्ड,
गर्मियों की लू झण्ड ।
कडक जुबां,
सडक व्यापार,
सिर्फ और सिर्फ
पैसों का प्यार।
ये दिल्ली-एनसीआर,
अजीब शहर है यार।।
अजीब शहर है यार।
सिर्फ़ प्रदूषण अखण्ड,
बाकी सब खण्ड-खण्ड।
राजस्थानी रेत तपे, पडे गर्मी,
पहाड़ों मे हिम पडे तो ठंड।
बरसात मे चौतरफ़ा सैलाब,
तुनकमिजाज आफ़ताब ।
सर्दियों मे धुंध प्रचण्ड,
गर्मियों की लू झण्ड ।
कडक जुबां,
सडक व्यापार,
सिर्फ और सिर्फ
पैसों का प्यार।
ये दिल्ली-एनसीआर,
अजीब शहर है यार।।
Tuesday, November 12, 2019
Saturday, October 12, 2019
Thursday, October 10, 2019
Tuesday, April 30, 2019
लातों के भूत।
दिनभर लडते रहे,
बेअक्ल, मैं और मेरी तन्हाई,
बीच बचाव को,
नामुराद अक्ल भी तब आई
जब स़ांंझ ढले,
घरवाली की झाड खाई।
बेअक्ल, मैं और मेरी तन्हाई,
बीच बचाव को,
नामुराद अक्ल भी तब आई
जब स़ांंझ ढले,
घरवाली की झाड खाई।
Wednesday, February 20, 2019
आत्ममंथन !
बस, आज
कुछ नहीं कहने का
क्योंकि आज अवसर है
शूरवीरो की पावन सरजमीं के
बंदीगृह के बंदियों से,
कुछ सीख लेने का ।
कुछ नहीं कहने का
क्योंकि आज अवसर है
शूरवीरो की पावन सरजमीं के
बंदीगृह के बंदियों से,
कुछ सीख लेने का ।
Tuesday, February 19, 2019
गरीबी और रेखा !
तमाम जिन्दगी की मुश्किलों से तंग आकर,
आत्महत्या का ख्याल
अपने बोझिल मन मे लिए,
मुम्बई की 'गरीबी'
'जुहू बीच' के समन्दर पर
पहुंची ही थी कि वहां उसे
श्रृगांरमय 'रेखा' नजर आ गई,
तज ख्याल, ठान ली जीने की फटेहाल।
:
:
शायद इसी को "पोजेटिव सोच" कहते हैं??....😊
आत्महत्या का ख्याल
अपने बोझिल मन मे लिए,
मुम्बई की 'गरीबी'
'जुहू बीच' के समन्दर पर
पहुंची ही थी कि वहां उसे
श्रृगांरमय 'रेखा' नजर आ गई,
तज ख्याल, ठान ली जीने की फटेहाल।
:
:
शायद इसी को "पोजेटिव सोच" कहते हैं??....😊
Sunday, February 17, 2019
बडा सवाल !
कार्य निर्विघ्न अमनसेतु का शुरू हो, इसी इंतजार मे भील हैं,
सिरे सेतु के कहांं से कहांं जोडें, असमंजस मे नल-नील हैं।
तमाम कोशिशें खारे समन्दर मे, मीठे जल की तलाश जैसी,
पथ कंटक भरा, तय होने अभी असंख्य श्रमसाध्य मील हैं।
नि:सन्देह रावण भी आज, लज्जित महसूस कर रहा होगा,
कुंठित कायरपन से अग्रज अपदूतों के, हो रहे जलील हैं।
खुबसूरत जमीं को दरकिनार कर,आरजू है जन्नत पाने की,
हुरों के चक्कर मे किए जा रहे, सभी कारनामेंं अश्लील हैं।
विकट प्रसंग, मनन का यह भी मुंंह बाये खडा है 'परचेत',
कटु,उग्र वृत्ति के आगे क्यों असहाय, शिष्टता और शील हैं।
सिरे सेतु के कहांं से कहांं जोडें, असमंजस मे नल-नील हैं।
तमाम कोशिशें खारे समन्दर मे, मीठे जल की तलाश जैसी,
पथ कंटक भरा, तय होने अभी असंख्य श्रमसाध्य मील हैं।
नि:सन्देह रावण भी आज, लज्जित महसूस कर रहा होगा,
कुंठित कायरपन से अग्रज अपदूतों के, हो रहे जलील हैं।
खुबसूरत जमीं को दरकिनार कर,आरजू है जन्नत पाने की,
हुरों के चक्कर मे किए जा रहे, सभी कारनामेंं अश्लील हैं।
विकट प्रसंग, मनन का यह भी मुंंह बाये खडा है 'परचेत',
कटु,उग्र वृत्ति के आगे क्यों असहाय, शिष्टता और शील हैं।
Wednesday, February 13, 2019
मंथन !
पात-डालियों की जिस्मानी मुहब्बत,अब रुहानी हो गई,
मौन कूढती रही जो ऋतु भर, वो जंग जुबानी हो गई।
बोल गर्मी खा गये पातियों के,देख पतझड़ को मुंडेर पर,
चेहरों पे जमी थी जो तुषार, अब वो पानी-पानी हो गई।
सृजन की वो कथा जिसे,सृष्टिपोषक सालभर लिखते रहे,
पश्चिमी विक्षोभ की नमी से पल मे, खत्म कहानी हो गई।
बसन्ती मुनिया अभी परस़ों जिसे,ग्रीष्म ने खिलाया गोद मे,
देने हिदायतों की होड़ मे, अब वो उसी की नानी हो गई।
न कर फिर उसे स्याह से रंगने की कोशिश, ऐ 'परचेत',
जमाने के वास्ते जो खबर, अब बहुत पुरानी हो गई।
मौन कूढती रही जो ऋतु भर, वो जंग जुबानी हो गई।
बोल गर्मी खा गये पातियों के,देख पतझड़ को मुंडेर पर,
चेहरों पे जमी थी जो तुषार, अब वो पानी-पानी हो गई।
सृजन की वो कथा जिसे,सृष्टिपोषक सालभर लिखते रहे,
पश्चिमी विक्षोभ की नमी से पल मे, खत्म कहानी हो गई।
बसन्ती मुनिया अभी परस़ों जिसे,ग्रीष्म ने खिलाया गोद मे,
देने हिदायतों की होड़ मे, अब वो उसी की नानी हो गई।
न कर फिर उसे स्याह से रंगने की कोशिश, ऐ 'परचेत',
जमाने के वास्ते जो खबर, अब बहुत पुरानी हो गई।
Friday, January 18, 2019
Friday, August 24, 2018
बढ़ता (एंटी) सोशल नेटवर्किंग: खतरे में यकीन का अस्तित्व !
निहित स्वार्थों की वजह से डिजिटल प्रौद्योगिकी के इस जटिल युग में पढ़ा-लिखा इंसान, प्रौद्योगिकी का इसकदर दुरुपयोग करने लगेगा कि मानव समाज में 'यकीन' शब्द की अहमियत को ही खतरे में डाल दिया जाएगा, यह कम से कम मैंने तो शायद ही कभी सोचा हो। सोशल मीडिया अथवा सोशल नेटवर्किंग साइट्स की सुगमता और उपलब्धता ने हमारे समाज में मौजूद तुच्छ प्रवृति के असंख्य लोगों के लिए समाज में अराजकता फैलाने के नए- नए घातक हथियार सरलता से उपलब्ध करा दिए है। जोकि एक सभ्य समाज के लिए बहुत ही चिंता का विषय होना चाहिए।
अभी पिछले एक हफ्ते में घटित, ऐंसी ही चार घटनाओं का सचित्र वर्णन यहाँ करना चाहूंगा।
१: केरल में हाल की भीषण बाढ़ और तवाही से निपटने के लिए हमारे सेना, अर्द्ध सैनिक और पुलिस बलों के वीर जवान जान पर खेलकर दिन रात जूझ रहे हैं। जहाँ एक ओर वहां मौजूद बीएसएफ के जवान आदेश का इंतजार किये वगैर ही बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए दौड़ पड़े वहीँ दूसरी तरह , 'तेरहवीं गढ़वाल राइफल्स' के जवानो ने जब एक कालोनी में लोगो को बाढ़ में बहते देखा तो अपने लंगर में मौजूद खाना बनाने के बड़े-बड़े पतीलों को ही नाव बनाकर मदद के लिए न सिर्फ बाढ़ में कूद पड़े अपितु उस कालोनी के २३ लोगो की जान भी बचाई। उनके ये हौंसले और सूझबूझ अनुकरणीय है हमारे लिए। किन्तु हमारे बीच मौजूद कुछ घटिया प्रवृति के लोगो ने हमारे सैनिको के बलिदान और त्याग को दरकिनार कर अपने स्वार्थ के लिए उन्हें भी नहीं छोड़ा। मजबूरन सेना के अफसरों को इन तुच्छ लोगो की हरकतों का पर्दाफास करने के लिए खुद ही आगे आना पड़ा और कहना पड़ा कि कुछ ढोंगियों ने सेना की वर्दी पहनकर वह वीडियों बनाया। लानत है ऐसे घटिया जंतुओं पर !
२: ये महाशय हमारे देश के एक जिम्मेदार आईपीएस ऑफिसर रह चुके है किन्तु इनके स्वार्थ और राजनैतिक द्वेष ने इन्हे भी शायद अँधा बना दिया है। आप इनके ट्वीट, जिसका चित्र नीचे संलग्न है , से सहज अंदाजा लगा सकते है।
3: अब तीसरा प्रकरण देखिए, स्वतन्त्रता दिवस के दिन इस लड़के ने अपनी दुकान पर बैठकर एक वीडियो बनाया। वीडिओ में यह लड़का हमारे राष्ट्रिय ध्वज को फाड् रहा है और कह रहा है कि मैं पक्का मुसलमान हूँ। अगले दिन कुछ लोग इसके वायरल वीडियो को देख इसकी दूकान पर पहुंच गए और जब इसकी धुनाई की तो दावा किया जा रहा है इसने बताया कि वह हिन्दू है और मुसलमानो को बदनाम करने के लिए इसने यह विडिओ बनाया और सोशाल साईट पर अपलोड किया। अब ज़रा सोचिये , अगर यह दावा सही है और इसकी हरकतों की वजह से साम्प्रदायिक दंगे भड़क जाते तो नुकशान किसका होता ?
4: चोथा और अंतिम; देश का उत्तराखंड राज्य जो कि अमूमन एक शांतिप्रिय राज्य है, उस वक्त दहल गया जब उत्तरकाशी में एक १२ साल की मासूम के साथ एक दरिंदे ने न सिर्फ अपनी दरिंदगी का प्रदर्शन किया अपितु उसे मारकर उसकी लाश को पुल के नीचे डाल दिया। कुछ लोगो ने यहाँ इस घटना को भी साम्प्रदाकि रंग यह कहकर देने की कोशिश की कि आरोपी दूसरे समुदाय के बिहार के मजदूर हैं। बाद में पुलिस ने बगल में ही रहने वाले मनोज लाल नाम के आरोपी को गिरफ्तार किया, और कहा जा रहा है कि उसने अपना गुनाह कबूल भी कर लिया है।
सोचिये , तब क्या स्थिति होती जो अगर लोग उन चार बिहारी मजदूरों के साथ आवेश में कुछ गलत कर जाते ? अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है की दूसरे समुदाय के लोगो पर ऊँगली उठाने से पहले हमें अपने गिरेवान में झाँकने की जरुरत है। जब अपने ही समाज में मौजूद कुछ इस तरह के लोगो से बहस करो और उन्हें गलत सूचना या तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश न करने की बात करो , तो उनका तर्क बस यही होता है कि विरोधी भी तो यही तरीके अपनाते है। अरे भाई , अपने को हिन्दू कहते हो , और हमारे हिन्दू ग्रंथों में कहीं यह नहीं बताया गया है कि अगर विरोधी मैला खाता हो तो तुम भी खाने लगो।
हकीकत यही है कि हमारी इन हरकतों की वजह से यकीन अथवा भरोसे का अस्तित्व खतरे में पड गया है। किस पर भरोसा किया जाए , दिनप्रतिदिन यह विषय एक जटिल रूप धारण किये जा रहा है , जिसे समय रहते संजोने की सख्त जरुरत है।
Friday, March 2, 2018
Thursday, March 1, 2018
Wednesday, February 14, 2018
Saturday, December 9, 2017
दिल्ली/एनसीआर, क्या चिकित्सा मर्ज का मूल मेदांता सरीखे अस्पताल नहीं ?
चूँकि दिल्ली के मैक्स और हरियाणा के फोर्टिस अस्पताल का मुद्दा गरम है, इसलिए इस प्रसंग को उठाना जायज समझता हूँ। पिछले कुछ दशकों से अधिक मुनाफे की लालसा में देश के हर कोने में निजी चिकित्सकों और चिकित्सालयों का गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार जग-जाहिर हो चुका है। हालांकि यह बात १००% सत्य भी नहीं है क्योंकि मैं ऐसे बहुत से निजी चिकित्सकों को भी जानता हूँ, जो न्यूनतम लागत पर नि:स्वार्थ भाव से आज भी जनता की सेवा कर रहे है।
जहां तक दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों की चिकित्सासंहिता की बात है, मुख्य बात पर आने से पहले आपको याद दिलाना चाहूंगा कि नब्बे के दशक मे दिल्ली की, खासकर बाहरी दिल्ली, फरीदाबाद, गुडगांव, नोएडा और गाजियाबाद में हर कस्बे में एक नर्सिंगहोम होता था। जहां तब चिकित्सा व्यापार एक असंगठित क्षेत्र था, वहीँ छोटे स्तर पर ही सही, किन्तु बाई-पास सर्जरी और अन्य बड़े ऑपरेशनों तक की सुविधा इन नर्सिंगहोमों में उपलब्ध होती थी।
नब्बे के दशक में ही दिल्ली के मथुरा रोड पर निजी क्षेत्र का एक बड़ा पांचसितारा अस्पताल, अपोलो का उदय हुआ था। और सन दो हजार आते-आते इसी अस्पताल से सम्बद्ध कुछ नामी-गिनामी डाक्टरों ने पलायन कर मेदांता की नीव रखी थी। जैसा की अमूमन होता है, शुरू के सालों में मरीजों और उनके सगे-सम्बन्धियों को उत्कृष्ठ चिकित्सकीय सेवा प्रदान किये जाने के बड़े-बड़े सब्जबाग दिखाए गए। किन्तु समय के साथ धीरे-धीरे सच्चाई सामने आती गई।
इन पंचतारा अस्पतालों के अस्तित्व में आने का सबसे बड़ा खामियाजा मध्यम और गरीब वर्ग को उठाना पड़ा। दो हजार के दशक के शुरुआत से ही धीरे-धीरे नर्सिंगहोम और छोटे अस्पताल, खासकर वो नर्सिंगहोम और अस्पताल जो हृदयरोग के उपचार से सम्बद्ध थे, एकदम से गायब ही हो गए। संक्षेप में बताऊँ तो काफी हद तक इसकी मुख्य वजह थी इन पंचतारा अस्पतालों का कदाचार। इन छोटे अस्पतालों के डाक्टरों को जब एक मोटी रकम किसी मरीज को सिर्फ इन पंचतारा अस्पतालों में रेफर करने पर ही मिल जाया करती हो तो भला वे मरीज का उपचार अपने यहाँ करने की जहमत क्यों उठाएंगे ?
मेदांता अस्पताल मे इस कदाचारी वेदना का शिकार खुद मैं और मेरे सगे-सम्बन्धी भी हुए हैं। और दोनों ही बार एक मोटी रकम खर्च करने के बावजूद हमें अपने परिजन खोने पड़े। दो अक्टूबर दो हजार बारह, शाम के वक्त मेरे ४५ वर्षीय बहनोई, स्व० सतीश उनियाल को दिल का दौरा पड़ा। मेरी छोटी बहन उन्हें तुरंत गुडगाँव मे ही नजदीक के एक छोटे अस्पताल ले गई जहाँ के डॉक्टर ने खुद ही मेदांता को एम्बुलेंस भेजने का फोन कर और मेरे बहनोई को उसी वक्त मेदांता रेफर कर दिया। वहाँ पर चार दिन उनका इलाज हुआ। डाक्टर के अनुसार दो स्टेंट डाले गये थे और कुल बिल बना ३.६२ लाख रुपये। चौथे दिन हम उन्हें घर ले आये थे और फिर डाक्टर के निर्देशानुसार उन्हें जांच के लिए ले जाते और फिर डाक्टर ने कहा कि ये अब बिलकुल ठीक है कुछ प्रिकॉशंस बरतते रहिये ।
१७ अप्रैल २०१३ की मध्य रात्रि को उन्हें फिर से दिल का दौरा पड़ा और इस बार मेरी बहन उन्हें सीधे ही मेदांता ले गई। करीब साढे बारह बजे रात को वे मेदांता अस्पताल पहुंच गए थे किन्तु अस्पताल ने पहले एक लाख रूपये जमा कराने को कहा, जिसका इंतजाम मेरी बहन उस समय नहीं कर पाई। उसने तुरंत मुझे फोन किया, जैसे ही उसका फोन आया, मैं और मेरी पत्नी तुरंत गुडगाँव के लिए निकल गए। किन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। सुबह के करीब तीन बजे जब बहनोई की हालत और बिगड़ी और मेरी बहन एमरजेंसी वार्ड के डाक्टर के पास गिड़गिड़ाई, उसने कहा मेरा भाई पैसे लेकर आ रहा है, तब जाकर उसने उन्हें विस्तर दिया और एक इंजेक्शन लगाया। इंजेक्शन लगने के कुछ ही देर बाद बहनोई ने उल्टी की और बेहोश हो गए और थोड़ी देर में ही डाक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। जब हम वहाँ पहुंचे तो वे शव को शवगृह में स्थानांतरित भी कर चुके थे। सुबह के वक्त आसपास के हमारे सगे-सम्बन्धी पहुंचे तो मैंने शव को डिस्चार्ज कराने की दौड़भाग शुरू की। और इस अस्पताल ने मुझे शव को तीन से चार घंटे रखने का बिल थमाया, लगभग एक लाख सात हजार रूपये। खैर, मरता क्या नहीं करता, मैंने अपने क्रेडिटकार्ड से बिल भुगतान कर शव को वहाँ से छुड़वाया।
१८ जुलाई, २०१६, मेरे वृद्ध ससुरजी के बाएं पैर के तलवे में खून जमा हो गया था, या यूं कहूँ कि रक्तसंचार रुक गया था। मेरे जेठू ( पत्नी के बड़े भाई) जो फरीदाबाद में रहते है, वो उस वक्त उनके साथ रह रहे थे। वहाँ भी वही कहानी दोहराई गई। हालांकि जब उन्होंने मुझे मेदांता अस्पताल से फोन किया तो मेरा पहला सवाल उनसे यही था कि आप उन्हें वहां क्यों ले गए क्योंकि ड्यूटी पर तैनात डाक्टर ने सीधे ही ससुरजी का पैर काटने की बात कही थी। मुझे उस अस्पताल पर ज़रा भी भरोसा नहीं रह गया था। खैर, उस लोगो की सहमति से डाक्टरों के अगले दिन घुटने के ऊपर से उनका पैर काट दिया। तकरीबन साढ़े छह लाख रुपये के बिल थमाने के बाद आठवे या नवे दिन उन्होंने कहा कि पैर इनका धीरे-धीरे ही ठीक होगा बेहतर होगा कि आप घर पर ही इनकी देखभाल करें अन्यथा उन्हें यही एडमिट रखोगे तो अनावश्यक आपका बिल बढ़ता जाएगा।
एम्बुलेंस कर उन्हें घर ले आये मग़र, घाव पर हल्का रक्तस्राव अभी भी जारी था। फिर दो दिन बाद यकायक पीड़ा असहनीय हुई तो भाईसहाब और उनके छोटे भाई उन्हें अपोलो ले गए। वहां एक परिचित के माध्यम से डाक्टर से मिले तो डा० ने अच्छे से पैर का निरीक्षण करने के बाद कहा कि केस बिगड़ चुका है और अब उनके उपचार से परे है। उन्होंने कहा की आप अनावश्य यहां पर भी ३-४ लाख रूपये खर्च करोगे मगर नतीजा बहुत पोजेटिव नहीं मिलने वाला, अत: बेहतर होगा कि आप एक बार अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में दिखा दो। अगले दिन हम लोग उन्हें एम्स ले गए। दिनभर लाइन में लगने के बाद करीब दो बजे डाक्टर के पास नबर आया। महिला डॉक्टर, जोकि काफी अनुभवी प्रतीत हो रही थी, ने घाव का निरीक्षण करने के बाद पहला सवाल हमसे ये किया कि ये ऑपरेशन किसने किया ? मैंने हॉस्पीटल और डाक्टर का नाम बताया तो महिला डॉक्टर साहिबा कुछ बड़बड़ाने लगी। उस वक्त जितना मैं समझ सका, वह उस ऑपरेशन करने वाले डाक्टर को कोस रही थी। उन्होंने कहा कि अगर आपको बिस्तर मिल जाता है तो इनका पैर घाव के थोड़े ऊपर से फिर से काटना पडेगा। शाम तक हम बेड पाने की जद्दोजहद में लगे रहे किन्तु सफलता हासिल न होने पर उन्हें वापस घर ले आये। यहाँ से उनको भी जीने की उम्मीद ख़त्म हो चुकी थी और ९ अगस्त, २०१६ के तड़के उन्होंने प्राण त्याग दिए।
इन दो घटनाओं का जिक्र करने का मेरा उद्देश्य यही था कि आपको बता सकूँ कि डाक्टर के पंचतारा अस्पताल से इलाज करने से मरीज को उतनी सफलता नहीं मिलती जितनी कि छोटे से क्लिनिक से मिलती है। साथ ही सरकार से भी अनुरोद करूंगा कि इस 'उच्च-स्तरीय चिकित्सा व्यापार' पर उचित लगाम लगाने और इसके लिए एक प्रभावी आचारसंहिता तैयार करने के तुरंत जरुरत है ताकि हाल में हुई शर्मनाक घटनाओं, जिनमे से एक मेदांता अस्पताल की भी है किन्तु शायद प्रभावी लॉबी की वजह से वो इतना प्रचारित नहीं हो रही, को दोहराया न जा सके। और हर कोई भगवान् से यही दुआ मांगे कि इन पंचतारा अस्पतालों का मुँह न देखना पड़े। वो तो ये कुछ घटनाएं मीडिया में उछाल गई अन्यथा कौन जानता है कि ऐसे कितनी घटनाएं रोज होती होंगी।
एम्बुलेंस कर उन्हें घर ले आये मग़र, घाव पर हल्का रक्तस्राव अभी भी जारी था। फिर दो दिन बाद यकायक पीड़ा असहनीय हुई तो भाईसहाब और उनके छोटे भाई उन्हें अपोलो ले गए। वहां एक परिचित के माध्यम से डाक्टर से मिले तो डा० ने अच्छे से पैर का निरीक्षण करने के बाद कहा कि केस बिगड़ चुका है और अब उनके उपचार से परे है। उन्होंने कहा की आप अनावश्य यहां पर भी ३-४ लाख रूपये खर्च करोगे मगर नतीजा बहुत पोजेटिव नहीं मिलने वाला, अत: बेहतर होगा कि आप एक बार अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में दिखा दो। अगले दिन हम लोग उन्हें एम्स ले गए। दिनभर लाइन में लगने के बाद करीब दो बजे डाक्टर के पास नबर आया। महिला डॉक्टर, जोकि काफी अनुभवी प्रतीत हो रही थी, ने घाव का निरीक्षण करने के बाद पहला सवाल हमसे ये किया कि ये ऑपरेशन किसने किया ? मैंने हॉस्पीटल और डाक्टर का नाम बताया तो महिला डॉक्टर साहिबा कुछ बड़बड़ाने लगी। उस वक्त जितना मैं समझ सका, वह उस ऑपरेशन करने वाले डाक्टर को कोस रही थी। उन्होंने कहा कि अगर आपको बिस्तर मिल जाता है तो इनका पैर घाव के थोड़े ऊपर से फिर से काटना पडेगा। शाम तक हम बेड पाने की जद्दोजहद में लगे रहे किन्तु सफलता हासिल न होने पर उन्हें वापस घर ले आये। यहाँ से उनको भी जीने की उम्मीद ख़त्म हो चुकी थी और ९ अगस्त, २०१६ के तड़के उन्होंने प्राण त्याग दिए।
इन दो घटनाओं का जिक्र करने का मेरा उद्देश्य यही था कि आपको बता सकूँ कि डाक्टर के पंचतारा अस्पताल से इलाज करने से मरीज को उतनी सफलता नहीं मिलती जितनी कि छोटे से क्लिनिक से मिलती है। साथ ही सरकार से भी अनुरोद करूंगा कि इस 'उच्च-स्तरीय चिकित्सा व्यापार' पर उचित लगाम लगाने और इसके लिए एक प्रभावी आचारसंहिता तैयार करने के तुरंत जरुरत है ताकि हाल में हुई शर्मनाक घटनाओं, जिनमे से एक मेदांता अस्पताल की भी है किन्तु शायद प्रभावी लॉबी की वजह से वो इतना प्रचारित नहीं हो रही, को दोहराया न जा सके। और हर कोई भगवान् से यही दुआ मांगे कि इन पंचतारा अस्पतालों का मुँह न देखना पड़े। वो तो ये कुछ घटनाएं मीडिया में उछाल गई अन्यथा कौन जानता है कि ऐसे कितनी घटनाएं रोज होती होंगी।
Thursday, November 2, 2017
अवंत शैशव !
यकायक ख़याल आते हैं मन में अनेक,
मोबाईल फोन से चिपका आज का तारुण्य देख,
बस,सोशल मीडिया पे बेसुद, बेखबर,
आगे, पीछे कुछ आता न उसको नजर,
उसे देख मन में आते है तुलनात्मक भाव,
कौन सही, मेरा शैशव या फिर उसका लगाव ?
लड़कपन में हम तो कुछ इसतरह
वक्त अपना जाया करते थे,
हर दिन अपना, दोस्तों संग,
घर से बाहर ही बिताया करते थे,
कभी गुलशन की अटखेलियां,
कभी माली से शरारत,
तो कभी दबे पाँव गुल से लिपटी हुई
तितली को पकड़ने जाया करते थे।
Friday, September 8, 2017
मैट्रो के डिब्बों में 'आसन व्यवस्था' की नई परिकल्पना !
मैट्रो के डिब्बों में 'आसन व्यवस्था' की नई परिकल्पना !
(New concept of 'seating arrangement' in Metro coaches ! )
जैसा कि आप सभी जानते हैं कि बड़े शहरों में आज जहां आवागमन समस्या एक विकराल रूप धारण कर चुकी है, वहीँ, मैट्रो इस समस्या के समाधान में एक अहम् भूमिका अदा कर रही है। एक अध्ययन के मुताविक तकरीबन ३० लाख लोग प्रतिदिन देश की राजधानी दिल्ली और एनसीआर में अपने गंतव्य तक पहुँचने के लिए मैट्रो का इस्तेमाल करते है।
यही वजह है कि आज देश का हर राज्य , हर बड़ा शहर इस 'व्यापक द्रुत परिवहन प्रणाली' Mass Rapid Transport System (MRTS) की ओर अग्रसर होता चला जा रहा है। मेरे लिए यह एक संयोग ही है कि किन्ही अपरिहार्य कारणों से मैं भी पिछले करीब ६ महीने से नियमित रूप से सुबह और शाम इस सुविधा का ही इस्तेमाल कर रहा हूँ।
इन पांच-छः महीनो में मैट्रो में सफर के अपने भी काफी खट्टे-मीठे अनुभव रहे है। मैं निसंकोच कह सकता हूँ कि अभी तक मैट्रो संस्था, उससे जुड़े कर्मचारी, और सीआरपीऍफ़ के जवान अपने कर्तव्य का निर्वहन बखूबी कर रहे हैं। हालांकि, डिब्बे की आतंरिक संरचना और उस पर काबिज पथिकों से थोड़ी बहुत शिकायत भी है। मसलन कुछ ही भाग्यशालियों के लिए बैठने का इंतजाम, स्त्रीलिंग के लिए अलग डिब्बा और हर डिब्बे में चंद सीट आरक्षित होने के बावजूद भी उनका उन सीटों पर बैठना जो सामान्य किस्म के प्राणी इस्तेमाल कर सकते है, जबकि उनके लिए आरक्षित सीट भी खाली पड़ी है।
खैर, मैट्रो की उच्च गुणवत्ता बनाये रखने हेतु यह भी जरूरी है कि उसके प्रवंधन के हाथ में प्रयाप्त संसाधन उपलब्ध रहें। वरना, आगे चलकर कहीं इस द्रुत प्रणाली का हश्र भी कहीं हमारी आज की रेलवे व्यवस्था की तरह ही न हो जाए। एक वीडियों हाथ लगा तो ख़याल आया कि मैट्रों में भी कुछ ऐसी ही व्यवस्था हो जाए तो क्या कहने।
हर डिब्बे के आधे में सीट ही सीट हों और आधा डिब्बा खड़े पथिकों के लिए हो। जिसे बैठना हो, यहां संलग्न वीडियों की तर्ज पर अतिरिक्त शुल्क दे और सीट का मजा ले। वरना............... :-)
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