Wednesday, May 13, 2009

मिश्रित तहजीव !


घी में गौ-चर्बी,
दूध में यूरिया,
अनाज में कंकड़,
मसालों में बुरादा,
सब्जी में रसायन,
दालो पर रंग !

और तो और,
इस सर-जमीं पर,
सरकार भी मिलावटी,
सब भगवान भरोसे,
अब रोओ या हंसो,
जीना इन्ही के संग !!

मिलावट और
बनावट  का युग है,
अपने चरम पर
पहुंचा कलयुग है,
सराफत की पट्टी माथे,
दहशतगर्दी का ढ़ंग !!

कुंठित वतन,
मांगे है परिवर्तन ,
बेगरज लाचार,
स्वार्थ का भरमार,
अपमिश्रित इंसानो का है
चहुँ ओर  रंग-तरंग  !!

6 comments:

  1. मन की व्यथा-कथा सारी ही,शब्दों में ही भर डाली।
    खामोशी से चोट हृदय की, नस-नस में कर डाली।
    सीमित शब्दों लिख दी हैं, बड़ी चुटीली बातें।
    जितनी बार पढ़ो उतनी ही मिलती हैं सौगातें।
    भारत माता की खातिर, उत्सर्ग किया प्राणों का।
    नेताओ के लिए नही है, कोई अर्थ बलिदानों का।

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  2. शुक्रिया, शास्त्री साहब,
    बहुत ही ख़ूबसूरत टिपण्णी दी है आपने !
    धन्यवाद,

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
    २३ मार्च २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  4. वाह! बेहतरीन सृजन।सुंदर

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  5. वाह!बेहतरीन सृजन ।

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  6. बहुत बेहतरीन रचना।
    मिलावट ही हमें जिंदा रखे हुए है शायद।

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।