घी में गौ-चर्बी,
दूध में यूरिया,
अनाज में कंकड़,
मसालों में बुरादा,
सब्जी में रसायन,
दालो पर रंग !
और तो और,
इस सर-जमीं पर,
सरकार भी मिलावटी,
सब भगवान भरोसे,
अब रोओ या हंसो,
जीना इन्ही के संग !!
मिलावट और
बनावट का युग है,
अपने चरम पर
पहुंचा कलयुग है,
सराफत की पट्टी माथे,
दहशतगर्दी का ढ़ंग !!
कुंठित वतन,
मांगे है परिवर्तन ,
बेगरज लाचार,
स्वार्थ का भरमार,
अपमिश्रित इंसानो का है
चहुँ ओर रंग-तरंग !!
मन की व्यथा-कथा सारी ही,शब्दों में ही भर डाली।
ReplyDeleteखामोशी से चोट हृदय की, नस-नस में कर डाली।
सीमित शब्दों लिख दी हैं, बड़ी चुटीली बातें।
जितनी बार पढ़ो उतनी ही मिलती हैं सौगातें।
भारत माता की खातिर, उत्सर्ग किया प्राणों का।
नेताओ के लिए नही है, कोई अर्थ बलिदानों का।
शुक्रिया, शास्त्री साहब,
ReplyDeleteबहुत ही ख़ूबसूरत टिपण्णी दी है आपने !
धन्यवाद,
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
२३ मार्च २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
वाह! बेहतरीन सृजन।सुंदर
ReplyDeleteवाह!बेहतरीन सृजन ।
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन रचना।
ReplyDeleteमिलावट ही हमें जिंदा रखे हुए है शायद।