Monday, July 27, 2009

अजीब बिडम्बना है !

कल कारगिल युद्द की दसवीं सालगिरह पर टीवी पर प्रोग्राम देखते-देखते बस यूं ही विचार-मग्न था, कि तभी कुछ ख्यालात दिलो-दिमाग मे आये, और उन्हे मैने कुछ इस तरह भावो मे पिरोया: तमाम समस्यायें जैसे जम्मु-कश्मीर की समस्या, मावो और नक्सली समस्या, आतंक की समस्या इत्यादि, इत्यादि जिनको सुलझाने के नाम पर ये आम जनता और सुरक्षाकर्मियों को मरवाते है , किसने खडी की रहती है ?

जिन गरीबो का ये, करते आये है शोषण,
वही इन्हे जिताकर, सत्ता तक पहुंचाते है !
जिनकी वजह से, मरते है ये सुरक्षा कर्मी,
वही इन्हे जानपर खेल, खतरों से बचाते है !!

(वीवीआईपी सुरक्षा के नाम पर)

आज हम जब किस्से कहानियों मे पढ्ते है कि पुराने जमाने मे राजा महाराजा लोग, मुस्लिम आक्रमणकारी और अंग्रेज अपने ऐशो-आराम के लिये उस गरीब किसान पर जो दिन-रात मेह्नत करके खेतों मे अनाज उगाता था, टै़क्स लगाकर अपनी तिजोरी भरते थे और मजे करते थे ! अथवा जब हम लोग कोई बॉलीवुड फिल्म देखते है जिसमे कि एक मजदूर दिन-रात अपना खून-पसीना बहाकर कोयले की खदान मे काम करता है , और जब वह अपने खून-पसीने की पगार लेकर घर को निकलता है तो गेट पर भाई (हराम की खाने वाला) के लोग लठ्ठ लिये अपना हिस्सा वसूलने के लिये खडे रहते है ! यह सब देख-पढ़ कर हमारा खून खौल जाता है, लेकिन शायद कभी आपका इन्कम टैक्स के दफ़्तर मे किसी बाबू या अधिकारी से अपने इन्कम टैक्स असेस्मेन्ट के बाबत पाला पडा हो, तो आपने भी महसूस किया होगा कि आपकी हालत भी कमोबेश उसी किसान अथवा कोयला खदान मजदूर की ही तरह है, या यूं कहू कि उससे भी बद्तर है !

मिलती है जिनसे इनको शासन की कुन्जी,
उन्हीं लोगो पर शासन ये अपना चलाते है !
खुले-आम लूटते-लुटाते है जिनकी ये धन-दौलत,
वही इनको फिर से धन अपना दे जाते है !!

(टैक्स के नाम पर)

तो क्या इसी का नाम सच्चा लोकतन्त्र है ? क्या जो आज हम देख रहे है, इन्ही सब बातों के लिये हमारे पूर्वजों ने कुर्वानियां दी थी ? क्या कोई इन तथाकथित साम्यवादियों और समाजवादियों से पूछ सकता है कि जिस सामाजिक न्याय के नाम पर ये अपना घर भरते आये है, आजादी के इतने सालो बाद भी इन्होने इस क्षेत्र में क्या किया ?

छद्म-निर्पेक्षता और साम्प्रदायिक्ता की खूनी,
बुनियाद पर ये अपने, महलों के नींव सजाते है !
जिनके उजाड्ते है ये घर, वही मजदूर ,
एक-एक ईंट जोड्कर घर इनका बनाते है !!

(देश भक्ति और राष्ट्रीय एकता के नाम पर)

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।