Saturday, July 18, 2009

किसलिए ?

पंक अद्भव हो रहा चित,
व्यग्र तुम्हारे किसलिए,
वक्ष पर लिए फिर रहा 
विद्वेष प्यारे किसलिए।

छोड़ जाना है यहीं सब,
द्रव्य संचय जितना करे ,
लगा घूमता पैबंद झूठ के
फिर ढेर सारे किसलिए।      

हर मर्ज का उपचार गर, 
सिर्फ यह बाहुल्य होता, 
अंततः सूरमा भी बड़े 
होते बेचारे किसलिए।  

धन का हर मुहताज को,  
नि:संदेह आसरा यथेष्ठ हैं,
सिर्फ वैषभ्य की वजह से 
वो रहें बेसहारे किसलिए।  

खुदगर्जी की हद हमें क्यों, 
नींद से महरूम कर दे ,
दिवस को  तममय बनायें 
तजकर उजारे किसलिए।  

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।