Saturday, July 18, 2009

आया फिर सावन !

गूँज उठी खनखनाती घंटियाँ,
जल उठे मंदिरों में दीप पावन।  
घुमड़-घुमड़, गरज-गरजकर,
आया चौखटों पर उदार सावन। 

लग रहा तय समय खेतिहर की ,
इन्द्रदेव ने सुन ली  गुजारिश। 
हो रही जरुरत के मुताविक,
कही थोड़ी, कही अधिक बारिश। 

जहां मुरझा गई थी कुसुम-कलियाँ,
वहाँ आ गई अब रुत सुहानी।
बाग़- बगीचे, खेत-खलिहान,
हो गए  हैं सब पानी-पानी। 

संचित नीर  ताल-पोखरों के ,
परिंदे पर फड़फड़ाकर नहाए। 
मेढकी भी किसी हौद-कुण्ड से
गीत, मधुर नया इक गुनगुनाए।  

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।