Monday, December 30, 2019

आगाज इक्कीसवीं सदी का ।

आज से करीब ग्यारह साल पहले मैने एक कविता कह लो या गजल कह लो, लिखी थी। अफसोस होता है यह देखकर की आज भी वो अपनी कसौटी पर खरी है। साल 2019 की विदाई मे आप भी उसका लुत्फ उठाइए।

नफ़रत के दहन मे सुलगता शिष्ट ये समाज देखा ,
अमेरिकी द्वी-बुर्ज देखे और मुंबई का ताज देखा।  

आतंक का विध्वंस देखा कश्मीर से  कंधार तक ,
हमने ऐ सदी इक्कीसवीं, ऐसा तेरा आगाज देखा।


सब लड़खड़ाते दिखे, यक़ीन, ईमान , धर्म-निष्ठा,
छलता रहा दोस्त बनकर , हर वो धोखेबाज देखा।


बनते हुए महलों को देखा, झूठ की बुनियाद पर,
छल-कपट,आडम्बरों का, इक नया अंदाज देखा।

साथ जीवनवृति के कभी, आहार था जो दीन का ,
उसे खून के आंसू रुलाता, मंडियों में प्याज देखा।

माँ दिखी अपने शिशु को, घास की रोटी खिलाती,
बरसाती गोदामों में सड़ता, सरकारी अनाज देखा।  


फक्र था चमन को जिस, अपने तख़्त-ए-ताज पर,
चौखट-ऐ-दबंगचंड की, दम तोड़ता वो नाज देखा।



जी-हजूरी देखी  'परचेत', मुलाज़िमत मुलाज़िमोंं की,
वंशवादी चाबुक से  चलता , सिर्फ जंगल-राज देखा। 

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (31-12-2019) को    "भारत की जयकार"     (चर्चा अंक-3566)  पर भी होगी।--
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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