हर साल की भांति इस साल भी अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस को मनाने की तैयारियां जोरो पर है। कल यानि ८ मार्च को यह अन्तर्राष्ट्रीय नारी मुक्ति आन्दोलन अपना १०१वां जन्मदिन मनायेगा। इस अवसर पर एक बार फिर देश के भ्रष्ठ नेतागण, अफ़सरशाह और चंद समाज के ठेकेदार जनता के पैंसो पर फ्री की दावत उडाने हेतु जगह-जगह पंचतारा होटलों, सरकारी गेस्ट हाउसों और सामुदायिक भवनों मे एकत्रित होकर ''विशाल महिला सम्मेलनों'' का आयोजन कर, देश मे बढते महिलाओं के उत्पीडन पर मोटे-मोटे घडियाली आंसू बहायेंगे। भारत में महिलाओं की महत्ता को दिखाने के लिए बडी-बडी छोडेंगे, प्रतिनिधित्व मे महिलाओं को आरक्षण के मुद्दे पर संसद और राज्यों की विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण दिलवाने की प्रतिबद्धता को पिछ्ले पन्द्रह वर्षों की ही भांति इस वर्ष भी ताल ठोककर दोहरायेगे। और दावत उडाने के बाद अन्त मे एक बडे से बैनर के आगे वहां सम्मिलित उन तमाम नेताओ, नौकरशाहों और समाज सुधारकों के संग आयी उनकी पारिवारिक हसीन सुन्दरियॊं के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर मुस्कुराते हुए एक फोटो सेशन चलेगा, जो अगले दिन के समाचार-पत्रों की शोभा बनेगा। बस, हो गया नारी मुक्ति आन्दोलन सफ़ल, फिर रात गई, बात गई।
अफ़सोस कि इस देश के लोग फिर भी अपनी खोखली मूछों का स्वांग भरने से कभी पीछे नही रहते। वे यह भूल जाते है कि मूछों की गरिमा और खोखलेपन मे ठीक वैसा ही रिश्ता है, जैसा कि हाल के कौमन-वेल्थ खेलों और दिल्ली की चमक-दमक का। डाई की हुई मूछें रौबदार चेहेरों पर ठीक वैसी ही जंचती है, जैसी कौमन-वेल्थ खेलों के उपलक्ष मे दिल्ली सजी-धजी। अन्दर का खोखलापन कौन देखता है? बस, बाहर से लुक इम्प्रेसिव होना चाहिये। भले ही उसके कुछ हफ़्तों बाद ही सडक पर बिछाई गई कोलतार एक हल्की सी बारिश मे ही क्यों न धुलकर कहीं बह जाये। पूछने वाला कौन है, कि जबाब देही किसकी बनती है ? हमे तो बस यही संतुष्ठी प्रफूलित किये जाती है कि कुछ ही समय के लिये सही, मगर हमारी मूछों ने दुनियां पर रौब तो डाला।
शहरों और कस्बों के घर-घर की कहानी का अध्ययन करें तो वहां भी बस एक ही सवाल हर घर को खाये जा रहा है, और वह है मूछों का सवाल। ऐसे बहुत से श्रीमान मूछधारी हर गली मोह्ल्ले मे मिल जायेंगे जो दुनियां की देखा-देखी, अभी हाल मे कार खरीद तो लाये है अपने घर, मगर साथ ही अपनी श्रीमती जी को हिदायत भी दे रहे है कि ये बच्चे अब बडे हो गये है, इनको दूध नही, चाय दिया करों। बच्चों की तरफ़ से अगर विरोध के स्वर उठने लगे तो मूंछधारी महाशय उन्हें यह कहकर झिडक देते है कि गाडी की किश्त चुकता करने के लिये दूध के बिल मे कटौती जरूरी है। और फिर बच्चो का विरोध भी घर की महिला को ही झेलना पड्ता है। बच्चे जब विरोध मे यहां तक कहने लगे कि क्या पापा, गाडी घर के बाहर खडी करने के लिये बेफ़ालतू लाये, घुमाने ले तो कहीं जाते नही हो। मूंछधारी महाशय का तत्काल जबाब होता है कि पैट्रोल देख रहे हो कितना मंहगा हो गया। दूध की मात्रा अचानक आधी से भी कम कर देने पर जब दूधवाला आश्चर्य से सवाल करे, तो महाशय मूछधारी का जबाब देखिये, “आजकल तुम दूध सही नही ला रहे, बच्चे पी नही रहे है, उन्हे स्मैल सी लगती है इसमे।“
जैसा कि सर्वविदित है कि हमारा यह समाज हमेशा से एक पुरुष प्रधान समाज रहा है, और अधिकांशत: यह भी एक कटुसत्य है कि यह पुरुष प्रधान समाज निहायत ही स्वार्थी किस्म का है। कभी कुछ करने की सोचेगा भी तो सिर्फ़ अपनी आवश्यकताओं को केन्द्र बिन्दु बनाकर। कुछ निर्माण कार्य करना हो तो सिर्फ़ अपनी प्राथमिकताओं के अनुरूप, अपने ही दायरे मे। इसलिये हमेशा से ही महिलाओं की आवश्यकताओं, प्राथमिकताओं और सुविधाओं की अन्देखी होती रही है। मगर तब कभी-कभार यह देखकर आश्चर्य और अफ़सोस भी होता है कि जिन महिलाओं को समाज मे आगे बढने का सुअवसर प्राप्त होता भी है तो उनकी मानसिकता भी पुरुष वर्ग से ज्यादा भिन्न नही होती। वे भी उस महिला समाज की घोर अनदेखी करने लगती है, जिसका वे खुद एक अंग है।
अभी हम सभी ने देखा कि कौमन वेल्थ के नाम पर किस हद तक इस देश के धन की लूट मची। यहां तक कि सौन्दर्यीकरण के नाम पर दिल्ली की सड्कों पर पहले से लगे दिशा सूचक होर्डिंग्स, लाईटों, बिजली के खम्बों और फुटपाथ पर लगी टाइलों को हटाकर सब कुछ नया लगाया गया। ये बात और है कि अभी इस आयोजन को हुए चार महिने ही गुजरे है कि सब कुछ उखड्ने लगा है, या फिर धीरे-धीरे उखाडा जा रहा है। सड्के फिर से गड्डों मे तब्दील हो गई है और आरटीआई से यह खुलासा भी हुआ कि दो सप्ताह के इस आयोजन मे कुल चौदह करोड रुपये सिर्फ़ विदेशी मेहमानों की मेडिकल सेवाऒं पर ही उडा दिये गये। हसीं आती है कि ये विदेशी मेहमान यहां खेलने आये थे या फिर अपना उपचार कराने।
यह सब बताने का आशय यह है कि खर्च करने के मामले मे मूंछधारियों का यह देश किस कदर दिलदार है। मगर जब नारी सशक्तिकरण की बात आती है तो हमारे बजट हमे अनुमति नही देते, खजाने खाली-खाली से नजर आने लगते है। देश के ग्रामींण क्षेत्रो मे जहां आज भी महिलाओं का साक्षरता प्रतिशत औसतन दस से भी कम है, जहां आज भी महिलाऒं को मजबूरन सिर्फ़ इसलिये भोर-अंधेरे मे ही जागना पड्ता है कि शौच के लिये खुले मे जाना है। वहां के चाचा-ताऊओं की मूछों की तो खैर, बात ही छोडिये, बात मैं यहां देश की राजधानी जैसी जगहों की करुंगा, जहां आज के इस युग मे, यहां की कुल महिला आवादी की १० प्रतिशत से भी अधिक महिलायें नौकरी-पेशे के सिलसिले मे अमूमन रोज ही घर से बाहर निकलती है।
करीब साल-दो साल पहले भी मैने यह बात अपने ब्लोग पर एक लेख मे उठाई थी, और मुझे उम्मीद थी कि राष्ट्र-मण्डल खेलों की तैयारी के दौरान इस विषय पर हमारे नीति निर्धारक अवश्य विचार करेंगे कि बडे शहरो मे सार्वजनिक जीवन मे बढ्ती महिलाओं की सह्भागिता को ध्यान मे रखते हुए वे उनके लिये शहरो की मुख्य सडकों, बाजारो, बस स्टोपो इत्यादि मे ऐसी बुनियादी जरुरतों का प्रावधान रखेगे, जो काम के सिलसिले में घर से बाहर निकली महिलाओं को, घंटो बस-स्टोपो पर इन्तजार करते हुए जरूरी है। लेकिन इन कर्ता-धर्ताओं के लिए तो अपनी कमाई की चिंता इससे भी अहम बात थी, इसलिये सारे बिजली के खम्बों, फुटपाथ की टाईलों इत्यादि को बदलने के लिये तो इनके पास ढेर सारा पैसा उपलब्ध था, मगर महिलाओं के लिये शौचालयों के निर्माण के लिये कुछ नही बचा था। और वह भी तब जब दिल्ली और पडोसी राज्य उत्तरप्रदेश मे दो महिला मुख्यमंत्रियो का राज था।
मैं समझता हूं कि शायद हमारा मूंछधारी पुरुष प्रधान समाज अपने को शौच के तरीके पर श्वान-प्रजाति से जरूर थोड़ा निकृष्ट समझता होगा, लेकिन क्या कभी इस मूछ्धारी समाज ने यह सोचा कि एक महिला जो घर से बाहर निकलती है, उसे किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है? सच कहूँ तो मुझे अपने इस खोखले मूछ्धारी समाज पर उस समय अत्यंत क्रोध और लज्जा आती है, जब इस इक्कीसवीं सदी में भी मैं अपने घर की महिलाओं को कडाके की सर्दी में भी इस वजह से कि अभी घर से बाहर सफ़र में जाना है, इसलिए टायलेट की दिक्कत होगी, एक कप चाय या कॉफ़ी का पीने से मना करते सुनता हूँ। घर से बाहर निकलने की इन चिंताओं की वजह से महिलाओं द्वारा पानी का उचित सेवन न करना और शौच को बहुत देर तक रोके रखना, उदर की अनेकों बीमारियाँ और वक्त से पहले बुढापे को दावत देता है। हमने कभी सोचा कि एक महिला ट्रैफिक पोलिस जिसकी दिल्ली के भीड़ भरे चौराहे पर ड्यूटी लगी है, या वह कामकाजी महिला जिसे अचानक घर से बाहर कोई उदर-समस्या हो जाए जैसे दस्त की शिकायत , शहर में शौचालयों की उचित व्यवस्था न होने की वजह से वे किन परिस्थितियों से गुजरती होगी ? जितने में ये दुनियाभर के पुराने खम्बे और फुटपाथ की टाईले बदली गई, उतने में पूरी दिल्ली में हर बस स्टॉप के पास टोइलेट का निर्माण किया जा सकता था लेकिन इन मूछवालों ने तो श्वानो से काफी कुछ सीख रखा है, इसलिए इन्हें इसकी जरुरत कभी महसूस ही नहीं हुई।
अफ़सोस कि इस देश के लोग फिर भी अपनी खोखली मूछों का स्वांग भरने से कभी पीछे नही रहते। वे यह भूल जाते है कि मूछों की गरिमा और खोखलेपन मे ठीक वैसा ही रिश्ता है, जैसा कि हाल के कौमन-वेल्थ खेलों और दिल्ली की चमक-दमक का। डाई की हुई मूछें रौबदार चेहेरों पर ठीक वैसी ही जंचती है, जैसी कौमन-वेल्थ खेलों के उपलक्ष मे दिल्ली सजी-धजी। अन्दर का खोखलापन कौन देखता है? बस, बाहर से लुक इम्प्रेसिव होना चाहिये। भले ही उसके कुछ हफ़्तों बाद ही सडक पर बिछाई गई कोलतार एक हल्की सी बारिश मे ही क्यों न धुलकर कहीं बह जाये। पूछने वाला कौन है, कि जबाब देही किसकी बनती है ? हमे तो बस यही संतुष्ठी प्रफूलित किये जाती है कि कुछ ही समय के लिये सही, मगर हमारी मूछों ने दुनियां पर रौब तो डाला।
शहरों और कस्बों के घर-घर की कहानी का अध्ययन करें तो वहां भी बस एक ही सवाल हर घर को खाये जा रहा है, और वह है मूछों का सवाल। ऐसे बहुत से श्रीमान मूछधारी हर गली मोह्ल्ले मे मिल जायेंगे जो दुनियां की देखा-देखी, अभी हाल मे कार खरीद तो लाये है अपने घर, मगर साथ ही अपनी श्रीमती जी को हिदायत भी दे रहे है कि ये बच्चे अब बडे हो गये है, इनको दूध नही, चाय दिया करों। बच्चों की तरफ़ से अगर विरोध के स्वर उठने लगे तो मूंछधारी महाशय उन्हें यह कहकर झिडक देते है कि गाडी की किश्त चुकता करने के लिये दूध के बिल मे कटौती जरूरी है। और फिर बच्चो का विरोध भी घर की महिला को ही झेलना पड्ता है। बच्चे जब विरोध मे यहां तक कहने लगे कि क्या पापा, गाडी घर के बाहर खडी करने के लिये बेफ़ालतू लाये, घुमाने ले तो कहीं जाते नही हो। मूंछधारी महाशय का तत्काल जबाब होता है कि पैट्रोल देख रहे हो कितना मंहगा हो गया। दूध की मात्रा अचानक आधी से भी कम कर देने पर जब दूधवाला आश्चर्य से सवाल करे, तो महाशय मूछधारी का जबाब देखिये, “आजकल तुम दूध सही नही ला रहे, बच्चे पी नही रहे है, उन्हे स्मैल सी लगती है इसमे।“
जैसा कि सर्वविदित है कि हमारा यह समाज हमेशा से एक पुरुष प्रधान समाज रहा है, और अधिकांशत: यह भी एक कटुसत्य है कि यह पुरुष प्रधान समाज निहायत ही स्वार्थी किस्म का है। कभी कुछ करने की सोचेगा भी तो सिर्फ़ अपनी आवश्यकताओं को केन्द्र बिन्दु बनाकर। कुछ निर्माण कार्य करना हो तो सिर्फ़ अपनी प्राथमिकताओं के अनुरूप, अपने ही दायरे मे। इसलिये हमेशा से ही महिलाओं की आवश्यकताओं, प्राथमिकताओं और सुविधाओं की अन्देखी होती रही है। मगर तब कभी-कभार यह देखकर आश्चर्य और अफ़सोस भी होता है कि जिन महिलाओं को समाज मे आगे बढने का सुअवसर प्राप्त होता भी है तो उनकी मानसिकता भी पुरुष वर्ग से ज्यादा भिन्न नही होती। वे भी उस महिला समाज की घोर अनदेखी करने लगती है, जिसका वे खुद एक अंग है।
अभी हम सभी ने देखा कि कौमन वेल्थ के नाम पर किस हद तक इस देश के धन की लूट मची। यहां तक कि सौन्दर्यीकरण के नाम पर दिल्ली की सड्कों पर पहले से लगे दिशा सूचक होर्डिंग्स, लाईटों, बिजली के खम्बों और फुटपाथ पर लगी टाइलों को हटाकर सब कुछ नया लगाया गया। ये बात और है कि अभी इस आयोजन को हुए चार महिने ही गुजरे है कि सब कुछ उखड्ने लगा है, या फिर धीरे-धीरे उखाडा जा रहा है। सड्के फिर से गड्डों मे तब्दील हो गई है और आरटीआई से यह खुलासा भी हुआ कि दो सप्ताह के इस आयोजन मे कुल चौदह करोड रुपये सिर्फ़ विदेशी मेहमानों की मेडिकल सेवाऒं पर ही उडा दिये गये। हसीं आती है कि ये विदेशी मेहमान यहां खेलने आये थे या फिर अपना उपचार कराने।
यह सब बताने का आशय यह है कि खर्च करने के मामले मे मूंछधारियों का यह देश किस कदर दिलदार है। मगर जब नारी सशक्तिकरण की बात आती है तो हमारे बजट हमे अनुमति नही देते, खजाने खाली-खाली से नजर आने लगते है। देश के ग्रामींण क्षेत्रो मे जहां आज भी महिलाओं का साक्षरता प्रतिशत औसतन दस से भी कम है, जहां आज भी महिलाऒं को मजबूरन सिर्फ़ इसलिये भोर-अंधेरे मे ही जागना पड्ता है कि शौच के लिये खुले मे जाना है। वहां के चाचा-ताऊओं की मूछों की तो खैर, बात ही छोडिये, बात मैं यहां देश की राजधानी जैसी जगहों की करुंगा, जहां आज के इस युग मे, यहां की कुल महिला आवादी की १० प्रतिशत से भी अधिक महिलायें नौकरी-पेशे के सिलसिले मे अमूमन रोज ही घर से बाहर निकलती है।
करीब साल-दो साल पहले भी मैने यह बात अपने ब्लोग पर एक लेख मे उठाई थी, और मुझे उम्मीद थी कि राष्ट्र-मण्डल खेलों की तैयारी के दौरान इस विषय पर हमारे नीति निर्धारक अवश्य विचार करेंगे कि बडे शहरो मे सार्वजनिक जीवन मे बढ्ती महिलाओं की सह्भागिता को ध्यान मे रखते हुए वे उनके लिये शहरो की मुख्य सडकों, बाजारो, बस स्टोपो इत्यादि मे ऐसी बुनियादी जरुरतों का प्रावधान रखेगे, जो काम के सिलसिले में घर से बाहर निकली महिलाओं को, घंटो बस-स्टोपो पर इन्तजार करते हुए जरूरी है। लेकिन इन कर्ता-धर्ताओं के लिए तो अपनी कमाई की चिंता इससे भी अहम बात थी, इसलिये सारे बिजली के खम्बों, फुटपाथ की टाईलों इत्यादि को बदलने के लिये तो इनके पास ढेर सारा पैसा उपलब्ध था, मगर महिलाओं के लिये शौचालयों के निर्माण के लिये कुछ नही बचा था। और वह भी तब जब दिल्ली और पडोसी राज्य उत्तरप्रदेश मे दो महिला मुख्यमंत्रियो का राज था।
मैं समझता हूं कि शायद हमारा मूंछधारी पुरुष प्रधान समाज अपने को शौच के तरीके पर श्वान-प्रजाति से जरूर थोड़ा निकृष्ट समझता होगा, लेकिन क्या कभी इस मूछ्धारी समाज ने यह सोचा कि एक महिला जो घर से बाहर निकलती है, उसे किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है? सच कहूँ तो मुझे अपने इस खोखले मूछ्धारी समाज पर उस समय अत्यंत क्रोध और लज्जा आती है, जब इस इक्कीसवीं सदी में भी मैं अपने घर की महिलाओं को कडाके की सर्दी में भी इस वजह से कि अभी घर से बाहर सफ़र में जाना है, इसलिए टायलेट की दिक्कत होगी, एक कप चाय या कॉफ़ी का पीने से मना करते सुनता हूँ। घर से बाहर निकलने की इन चिंताओं की वजह से महिलाओं द्वारा पानी का उचित सेवन न करना और शौच को बहुत देर तक रोके रखना, उदर की अनेकों बीमारियाँ और वक्त से पहले बुढापे को दावत देता है। हमने कभी सोचा कि एक महिला ट्रैफिक पोलिस जिसकी दिल्ली के भीड़ भरे चौराहे पर ड्यूटी लगी है, या वह कामकाजी महिला जिसे अचानक घर से बाहर कोई उदर-समस्या हो जाए जैसे दस्त की शिकायत , शहर में शौचालयों की उचित व्यवस्था न होने की वजह से वे किन परिस्थितियों से गुजरती होगी ? जितने में ये दुनियाभर के पुराने खम्बे और फुटपाथ की टाईले बदली गई, उतने में पूरी दिल्ली में हर बस स्टॉप के पास टोइलेट का निर्माण किया जा सकता था लेकिन इन मूछवालों ने तो श्वानो से काफी कुछ सीख रखा है, इसलिए इन्हें इसकी जरुरत कभी महसूस ही नहीं हुई।
महिला दिवाली के एक दिन पहले अच्छी पोस्ट आपकी।
ReplyDeleteमनन करने योग्य विषय।
बधाई हो आपको।
shukriyaa is post kae liyae
ReplyDeleteविचारणीय आलेख्।
ReplyDeletenakli munchho par gaharee chot...badhiya post.
ReplyDeleteफिर एक और महिला दिवस मना लिया जाएगा ।
ReplyDeleteलेकिन रहेंगे तो वही ढाक के तीन पात ।
Gondiyal Sir,
ReplyDeleteBEHAD SATIK AALEKH...
THANKS
@डाई की हुई मूछें रौबदार चेहेरों पर ठीक वैसी ही जंचती है, जैसी कौमन-वेल्थ खेलों के उपलक्ष मे दिल्ली सजी-धजी।
ReplyDeleteवाह गोदियाल साहब बढिया चुटकी ली है आपने। सत्ता में बैठे लोगों को डाई कराने से फ़ुरसत मिले तब न आगे सोचेगें।
सार्थक लेख के लिए आभार
achchha aalekh aur tagdi chot. ...... par isse kisi neta ya officer kee moonchh neechi ho jay to tabhee sarthakta hai.. aabhar.
ReplyDeleteआपका यह लेख गहन शोद्ध पर आधारित है और इस पर तुरन्त अमल कराये जाने की आवश्यकता है.परन्तु करेगा कौन ?
ReplyDeleteअत्यंत ही सार्थक आलेख.
ReplyDeleteरामराम.
आपको बधाई सारगर्भित पोस्ट के लिए
ReplyDeleteनारी के नाम पर घड़ियाली आँसू।
ReplyDeleteमहिला दिवस मनाने का कारण क्या हे? जो हम इतनी धुम धाम से इस दिवस को मनाते हे, अमेरिका ओर युरोप मे तो इस दिन को मनाने के खास कारण हे, लेकिन हमारे देश मे तो महिला सदियो से पुजनिया रही हे.इस दिवस को मनाने से अच्छा हे जो बाते आप ने ऊपर बताई उन पर गोर करे... धन्यवाद इस अति सुंदर लेख के लिये
ReplyDeleteएक अच्छी पोस्ट
ReplyDelete.
विवाह से पूर्व लड़की से राय अवश्य लें. Womens Day special
बहुत सार्थक आलेख ....एक सटीक व्यंगात्मक पोस्ट ....
ReplyDelete"बच्चों की तरफ़ से अगर विरोध के स्वर उठने लगे तो मूंछधारी महाशय उन्हें यह कहकर झिडक देते है कि गाडी की किश्त चुकता करने के लिये दूध के बिल मे कटौती जरूरी है।"
ReplyDelete"उधारी में हाथी बाँधने" का यही नतीजा होता है।
ऐसे दिन तभी सार्थक हैं जब इस विषय पर कोई सार्थक काम हो ... आपकी पीड़ा जायज है ...
ReplyDeleteकिसे फुर्सत है इन फालतू चीजों पर माथा फोड़ने की!
ReplyDeleteमूंछ हो....... तो नाथुलाल जैसी :)
ReplyDeleteबहुत ही शानदार और विचारणीय लेख...
ReplyDeleteअत्यंत ही सार्थक आलेख|धन्यवाद|
ReplyDeletesaarthak lekh
ReplyDelete:) क्या कहें, उम्दा चिन्तन कह दें. :)
ReplyDelete