इश्क जिस रोज हुस्न की मजबूरी समझ लेगा,
प्रेम उस रोज अपनी तपस्या पूरी समझ लेगा।
छलकते लबों से कभी कोई तबस्सुम न बहे,
पैमाना प्यार का इसको रूरी समझ लेगा।
मन ख्वाइशों को मचलने की गुंजाइश न दे,
पलकें झुकाना भी हवस मंजूरी समझ लेगा।
तसदीक प्यार में हुस्न, अंजाम से क्या डरे,
धड़कन जवाँ दिलों की हर दूरी समझ लेगा।
हुस्न जागता रहे अगर इंतज़ार-ए-इश्क में,
प्रीत की गजल 'परचेत', अधूरी समझ लेगा।
इरशाद! इरशाद !!
ReplyDelete@अगर हुस्न जागता रह गया इंतज़ार-ए-इश्क में,
ReplyDeleteप्रीत की ये गजल 'परचेत', अधूरी समझ लेगा।
वाह गोदियाल साहब! बहुत दिनों के बाद यह रंग देखने मिला।
अब लगा कि वास्तव में बसंत आ गया है।
आभार
बेहद खूबसूरत... बेहतरीन!
ReplyDeleteगर दिल,ख्वाइशों को मचलने की वजह ही न दे,
ReplyDeleteपलक झुकाने को ना हवस मंजूरी समझ लेगा।
वाह... बेहतरीन...
behad sunder..
ReplyDeleteयही मजबूरी तो समझ से निकल जाती है,
ReplyDeleteक्या कहें, आते आते शाम ढल जाती है।
प्रवीण जी, आज ड्राई-डे नहीं है :)
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (10/2/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
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ReplyDeleteवाह गोदियाल साहब वाह, मजा आगया.
ReplyDeleteरामराम
गर दिल,ख्वाइशों को मचलने की वजह ही न दे,
ReplyDeleteपलक झुकाने को ना हवस मंजूरी समझ लेगा।
बेहद खूबसूरत... बेहतरीन!
गर दिल,ख्वाइशों को मचलने की वजह ही न दे,
ReplyDeleteपलक झुकाने को ना हवस मंजूरी समझ लेगा।
क्या बात है गोदियाल जी ।
एक अलग अंदाज़ ।
बेहतरीन गजल। इस गजल को पढकर दो लाईनें याद आ गईं,
ReplyDelete'या रब मुझे महफूज रख उस बुत के सितम से,
मैं उसकी इनायत का तलबगार नहीं हूं।'
वाह-वाह...
ReplyDeleteबहुत खुबसुरत गजल जी धन्यवाद
ReplyDeleteइश्क जिस रोज हुस्न की मजबूरी समझ लेगा,
ReplyDeleteप्रेम उसी रोज अपनी तपस्या पूरी समझ लेगा।
बेहतरीन गज़ल
वाह वाह , क्या मजेदार भाव हैं,
ReplyDeletewah wah.....
ReplyDeleteगंभीर बात को सहज ढंग से अभिव्यक्त किया है.
ReplyDeletebehad khubsurat....abhiwyakti,,aabhar
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