Wednesday, February 9, 2011

इश्क जिस रोज हुस्न की मजबूरी समझ लेगा !
















इश्क जिस रोज हुस्न की मजबूरी समझ लेगा,
प्रेम उस रोज अपनी तपस्या पूरी समझ लेगा।


छलकते लबों से कभी कोई तबस्सुम न बहे,
पैमाना प्यार का इसको  रूरी समझ लेगा। 


मन ख्वाइशों को मचलने की गुंजाइश न दे,
पलकें झुकाना भी हवस मंजूरी समझ लेगा। 


तसदीक प्यार में हुस्न, अंजाम से क्या डरे,
धड़कन जवाँ दिलों की हर दूरी समझ लेगा। 


हुस्न जागता रहे  अगर  इंतज़ार-ए-इश्क में,
प्रीत की  गजल 'परचेत', अधूरी समझ लेगा।




20 comments:

  1. @अगर हुस्न जागता रह गया इंतज़ार-ए-इश्क में,
    प्रीत की ये गजल 'परचेत', अधूरी समझ लेगा।

    वाह गोदियाल साहब! बहुत दिनों के बाद यह रंग देखने मिला।
    अब लगा कि वास्तव में बसंत आ गया है।

    आभार

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  2. बेहद खूबसूरत... बेहतरीन!

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  3. गर दिल,ख्वाइशों को मचलने की वजह ही न दे,
    पलक झुकाने को ना हवस मंजूरी समझ लेगा।

    वाह... बेहतरीन...

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  4. यही मजबूरी तो समझ से निकल जाती है,
    क्या कहें, आते आते शाम ढल जाती है।

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  5. प्रवीण जी, आज ड्राई-डे नहीं है :)

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  6. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (10/2/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
    http://charchamanch.uchcharan.com

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  7. वाह गोदियाल साहब वाह, मजा आगया.

    रामराम

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  8. गर दिल,ख्वाइशों को मचलने की वजह ही न दे,
    पलक झुकाने को ना हवस मंजूरी समझ लेगा।
    बेहद खूबसूरत... बेहतरीन!

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  9. गर दिल,ख्वाइशों को मचलने की वजह ही न दे,
    पलक झुकाने को ना हवस मंजूरी समझ लेगा।
    क्या बात है गोदियाल जी ।
    एक अलग अंदाज़ ।

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  10. बेहतरीन गजल। इस गजल को पढकर दो लाईनें याद आ गईं,
    'या रब मुझे महफूज रख उस बुत के सितम से,
    मैं उसकी इनायत का तलबगार नहीं हूं।'

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  11. बहुत खुबसुरत गजल जी धन्यवाद

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  12. इश्क जिस रोज हुस्न की मजबूरी समझ लेगा,
    प्रेम उसी रोज अपनी तपस्या पूरी समझ लेगा।
    बेहतरीन गज़ल

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  13. वाह वाह , क्या मजेदार भाव हैं,

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  14. गंभीर बात को सहज ढंग से अभिव्यक्त किया है.

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  15. behad khubsurat....abhiwyakti,,aabhar

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