Wednesday, January 11, 2012

नसीहत


फैसला  हुकूमत का 
फर्ज है प्रजा के लिए 
मगर,अज्ञ कारिंदे*
यह भी तो देखें ,
कि उड़ता है क्यों 
सरेआम  मजाक 
उनके फरमान का।


जिन्दगी  तो तमाम हुई
'कर' भरते -भरते  ,
हुकूमते  हिन्द  !
कुछ ऐंसा  न करना कि
खुद ही  अपना 
महसूल* भी
हमें चुकाना पड़े 
अंत में शमशान का।


इज़हार-ऐ-बेकसी
मन की कोई 
तब करे  भी तो 
करे  किससे,
अजनबियों के देश में
जब न हो कोई 
अपनी पहचान का।



उसे इंसान क्या कहना
जो पीड़ा का मर्म
ही न समझे , 
अरे खिजां* में  तो डाली भी
समझती है दर्द
नख्ल़*से बिछड़े 
किसी ख़ेज़ान*का।


रिश्तों के
क़त्ल को खुदगर्ज 
देकर नाम लोकशाही का
खाप-पंचायत,
चौपालों में 
रोज हाट सजाते है 
झूठी शान का।


सुकून-ए-दिल
मिलता है महत* यथेष्ठ 
मार्ग -दर्शन करके ,
अंतर्द्वंद्व में गुम्फित,
कुंठित और
दिग्भ्रमित 
किसी नादान का।

शिक्षा की उपादेयता
तब विघ्नित मानिए,
शत-प्रतिशत
कतिपय जब
व्यावहारिक न हो
उपयोग अर्जित ज्ञान का।



कारिंदे=कर्ता-धर्ता , महसूल = शुल्क (टैक्स) , ह्रस्व = छोटे , खिजां = पतझड़ ,नख्ल़ = पेड़ , ख़ेज़ान= पत्ता, महत = बहुत

9 comments:

  1. अर्थभरे सुन्दर शेर..

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  2. जिन्दगी तमाम हुई
    कर निस्तारण में ,
    सरकार !
    कुछ करो ऐंसा कि
    मुर्दे को खुद ही
    महसूल* भी
    चुकाना पड़े शमशान का।

    ....बहुत खूब! हरेक पंक्ति गहन अर्थ समाये...बहुत उत्कृष्ट प्रस्तुति..

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  3. आपका पुराना तेवर दिख रहा है इन रचनाओं में!!बहुत खूब!!

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  4. बहुत अच्छी है. कविता की दृष्टि से भी और उसमें समाहित व्यंग्य, आज के हालात पर टिप्पणी की वजह से भी..

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  5. इब्तेदाए-इश्क है रोता है क्या
    आगे आगे देखिए होता है क्या।

    शायद मुर्दे को शमशान तक खुद ही जाना पडे :)

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  6. सर जी को राम राम...

    बहुत अच्छी कवितायेँ हैं... बहुत दिनों बाद आना अच्छा...

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  7. बहुत कुछ कह गए भाई जी आप, और खूब कहा!

    इज़हार-ऐ-बेकसी
    मन की
    कोई तब
    करे किससे,
    अजनबियों के देश में,
    न हो कोई अपनी पहचान का।

    वाह....

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  8. सॉरी, महफूज जी , कल पिकासा एल्बम डिलीट हो गई गलती से दो दिनभर उसी पर लगा रहा ! हाँ, मैंने परसों आपकी एक पोस्ट देखी थी मगर चूँकि टिपण्णी ओपसन बंद था इसलिए कुछ कह नहीं पाया, ब्लॉगजगत में पुन : स्वागत !

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