फर्ज है प्रजा के लिए
मगर,अज्ञ कारिंदे*
यह भी तो देखें ,
कि उड़ता है क्यों
सरेआम मजाक
उनके फरमान का।
जिन्दगी तो तमाम हुई
'कर' भरते -भरते ,
हुकूमते हिन्द !
कुछ ऐंसा न करना कि
खुद ही अपना
महसूल* भी
हमें चुकाना पड़े
अंत में शमशान का।
इज़हार-ऐ-बेकसी
मन की कोई
तब करे भी तो
करे किससे,
अजनबियों के देश में
जब न हो कोई
अपनी पहचान का।
उसे इंसान क्या कहना
जो पीड़ा का मर्म
ही न समझे ,
अरे खिजां* में तो डाली भी
समझती है दर्द
नख्ल़*से बिछड़े
किसी ख़ेज़ान*का।
रिश्तों के
क़त्ल को खुदगर्ज
देकर नाम लोकशाही का
खाप-पंचायत,
चौपालों में
रोज हाट सजाते है
झूठी शान का।
सुकून-ए-दिल
मिलता है महत* यथेष्ठ
मार्ग -दर्शन करके ,
अंतर्द्वंद्व में गुम्फित,
कुंठित और
दिग्भ्रमित
किसी नादान का।
शिक्षा की उपादेयता
तब विघ्नित मानिए,
शत-प्रतिशत
कतिपय जब
व्यावहारिक न हो
उपयोग अर्जित ज्ञान का।
कारिंदे=कर्ता-धर्ता , महसूल = शुल्क (टैक्स) , ह्रस्व = छोटे , खिजां = पतझड़ ,नख्ल़ = पेड़ , ख़ेज़ान= पत्ता, महत = बहुत
अर्थभरे सुन्दर शेर..
ReplyDeleteजिन्दगी तमाम हुई
ReplyDeleteकर निस्तारण में ,
सरकार !
कुछ करो ऐंसा कि
मुर्दे को खुद ही
महसूल* भी
चुकाना पड़े शमशान का।
....बहुत खूब! हरेक पंक्ति गहन अर्थ समाये...बहुत उत्कृष्ट प्रस्तुति..
लाजवाब .. बहुत खूब
ReplyDeleteआपका पुराना तेवर दिख रहा है इन रचनाओं में!!बहुत खूब!!
ReplyDeleteबहुत अच्छी है. कविता की दृष्टि से भी और उसमें समाहित व्यंग्य, आज के हालात पर टिप्पणी की वजह से भी..
ReplyDeleteइब्तेदाए-इश्क है रोता है क्या
ReplyDeleteआगे आगे देखिए होता है क्या।
शायद मुर्दे को शमशान तक खुद ही जाना पडे :)
सर जी को राम राम...
ReplyDeleteबहुत अच्छी कवितायेँ हैं... बहुत दिनों बाद आना अच्छा...
बहुत कुछ कह गए भाई जी आप, और खूब कहा!
ReplyDeleteइज़हार-ऐ-बेकसी
मन की
कोई तब
करे किससे,
अजनबियों के देश में,
न हो कोई अपनी पहचान का।
वाह....
सॉरी, महफूज जी , कल पिकासा एल्बम डिलीट हो गई गलती से दो दिनभर उसी पर लगा रहा ! हाँ, मैंने परसों आपकी एक पोस्ट देखी थी मगर चूँकि टिपण्णी ओपसन बंद था इसलिए कुछ कह नहीं पाया, ब्लॉगजगत में पुन : स्वागत !
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