Saturday, October 31, 2009

अब चित्रकार द्बारा भयादोहन ( ब्लैक मेलिंग ) !

पता नहीं, इस देश में इन तथाकथित अल्पसंख्यको की भयादोहन की मानसिकता कब सुधरेगी ! पता चला है कि एक खबरिया टीवी चैनल को दिए अपने साक्षात्कार में, कानून से बचकर भागते हुए पिछले चार सालों से विदेश में रह रहे वरिष्ट चित्रकार ९४ वर्षीय श्री मकबूल फिदा हुसैन ने इस शर्त पर तत्काल देश लौटने की इच्छा जाहिर की है कि यदि सरकार उन्हें संरक्षण और सुरक्षा मुहैया कराये तो वो तुंरत ही स्वदेश आने को बेताव है, और आकर तुंरत चिदम्बरम साहब का आदाब भी करेंगे !

जहाँ तक कला की बात है, मैं चित्रकारी के विषय में बहुत ज्यादा ज्ञान तो नहीं रखता, मगर जितना कुछ रखता हूँ उसके आधार पर कह सकता हूँ कि निसंदेह हुसैन साहब एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त चित्रकार है, चाहे वो जिस आधार पर भी बने हो! चूँकि आज स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी की पुण्य तिथि है, इसलिए मुझे याद आ रहा है कि एक जमाना था, जब ये हुसैन साहब स्वर्गीय गांधी को खुश करने हेतु और खुद को प्रकाश में लाने हेतु उनकी भिन्न-भिन्न दुर्गा रूपी तस्वीरे बनाया करते थे, और जब थोडा सा प्रसिद्धि पा ली, तो इन्होने दुर्गा को किस रूप में पेंट किया, किसी को बताने की जरुरत मैं नहीं समझता! अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देकर अगर इस तरह दूसरे धर्मो की अवमानना की जाती है, उन्हें ठेस पहुंचाई जाती है, और साथ में यह भी कहते है कि लोगो को आधुनिक कला का ज्ञान नहीं है, इसलिए वे इन कलाकृतियों की महता नहीं समझ सकते, तो जनाव, आपके अपने धर्म में ही सुधार रूपी ऐसी कई कलाकृतियों की बहुत ज्यादा गुंजाइश है आप उस पर क्यों नहीं अपना हुनर दिखाते ? आपने एक पिक्चर भी बनाई थी, मुल्लाओ के ज़रा से विरोध के बाद उसे क्यों वापस ले लिया ? सीधा सा जबाब है कि जनाव दोगले है! ये जनाब जो आज वतन लौटने के लिए इतने बेताब है, इनसे पूछा जाए कि ये अगर इतने ही महान थे, और अपने वतन से प्यार करते थे, तो भागकर गए ही क्यों थे ?

खैर, इस बारे में तो पहले ही बहुत बहस हो चुकी, अत: मैं जो कहना चाहता था, वह यह कि ये जैसे भी हो, मगर अगर सरकार अपनी तुष्टीकरण निति के अन्दर इनकी मांगे मानती है, तो सार्वजनिक तौर पर उसका विरोध किया जाना चाहिए ! ये अपने वतन लौटे और कोई अपराध किया है तो यहाँ के कानूनों का सामना एक आम नागरिक की भांति करे, इनको स्पेशल दर्जा किस बात का ? जहां तक व्यक्तिगत सुरक्षा का सवाल है, इन्होने करोडो रूपये पेंटिंग बेच कर कमाए है, और इतनी हैसियत रखते है कि गार्डो की एक पूरी फौज अपने घर में रख सके, सरकार के खाते में सुरक्षा की जरुरत क्या है ?

Friday, October 30, 2009

तेल का खेल !

एक झटके में करीब पांच सौ करोड़ की भैंस गई पानी में, जिनको जीवन की हानि हुई वह अलग ! जब हादसा हो जाता है अधिकारीगण तब पूछते है कि अब क्या करना है ? मंत्री जी झट से जांच कमेटी बिठा देते है, अपने कंधे का भार उतारने के लिए ! और बस, हो गई इनके कर्तव्य की इत्श्री ! जांच करने वाले भी दो-चार करोड़ का बिल बिठा देंगे, सो अलग !

२०२० तक एक विकसित राष्ट्र बनने को छटपटा रहे इस देश के नेता और अफसरगण इतनी भी सम्बेदंशीलता नहीं रखते कि यह सोच पाए कि आपातकाल के लिए हमारे पास क्या प्रावधान है ? आज दुनिया तरक्की कर कहाँ से कहाँ पहुँच गई, विकसित देशों में रोबोट सैनिक युद्घ लड़ने को तैयार हो रहे है, और हमारे इस देश के ये कर्णधार इतनी सामान्य सी व्यवस्था नहीं कर पाते कि जहां पर इस तरह के भण्डारण की व्यवस्था की गई है वहाँ पर पहले तो ऐसी घटना ही न हो, अगर पूरी सजगता बरती जाए, लेकिन, यहाँ तो सब चलता है, हर कोई ड्यूटी के वक्त पर भी सो रहा होता है, या फिर पैसा कमाने का वैकल्पिक जुगाड़ तलाशने में लगा रहता है!

बहुत सामान्य से बात है कि जहां पर इस तरह के संवेदनशील भण्डारण की व्यवस्था है उससे कुछ दूर हटकर जमीन के अन्दर उतनी ही क्षमता के और टैंक बनाके रखे जाए, जो हर दम खाली रहे, और ज्यों ही ऐसी कोई आपातकालीन घटना मुख्य भंडारण की जगह पर होती है, स्वचालित स्विच उन पाइप लाईनों के सील खोल दे जो खाली टैंको की और जाते है, ताकि दुर्घटना वाली जगह से तेल को यथा शीघ्र दुसरे भण्डारण में पहुंचा दिया जाए और कम से कम नुकशान हो ! लेकिन उसके लिए तो कुछ करोड़ रूपये खर्च करने के लिए इनके पास धन उपलब्ध नहीं रहता, हाँ ऐसी घटना हो जाए तो ५०० करोड़ तो क्या, ये हजारो करोड़ का नुकशान सहने के लिए तैयार है !


और अंत में : आदरणीय अवधिया साहब की शैली से प्रेरित हो दो फुट नोट आज मैं भी प्रस्तुत कर रहा हूँ ;
१. शायद आपने भी सूना हो,चींटियों का सम्मेलन चल रहा था, आपसी परिचय के बाद तीन चींटियों, लाल, काली और सफ़ेद में खुसुर-फुसुर शुरू हुई ! लाल चींटी को पुछा गया की भाई तुम इतनी लाल क्यों हो ? वह बोली, मैं लोगो का खून चूसती हूँ इसलिए लाल हूँ ! काली को पुछा गया कि तू काली क्यों है ? वह बोली, भाई मै ठहरी काम-काजी, सो धूप में मेहनत करती हूँ, इसलिए काली हूँ ! अब सफ़ेद की बारी आई, उससे पूछा गया कि तू सफ़ेद कैसे है ? तो वह बोली, मैं हराम का खाती हूँ, इसलिए सफ़ेद हूँ !
२. सुबह सबेरे दफ्तर पहुंचा तो चपरासी परेशान सा दिखा, कभी टेबल पर कपडा मरता, कभी कुर्सी पर, कभी फाइले साफ़ करता तो कभी किताब ! मैंने पानी मंगाया तो जल्दी-जल्दी गिलास रखकर जाने लगा, मैंने उसे रोककर उसकी परेशानी का कारण पूछा तो वह बोला, साब मिस कॉल आ रही है ! मैंने कहा, तो इसमें परेशान होने की क्या बात है ? अगर बार-बार आ रही है तो थोड़ी देर के लिए मोबाईल स्विच ऑफ कर दे ! वह बोला, नहीं साहब, मिस कॉल आ रही है, बड़े साहब( ए.के. कौल) की बेटी !

वो कुर्ता-पजामा !



पिछली होली के बाद के एक कवि सम्मलेन की यादे;
कवि महोदय जगह-जगह पर सुई धागे से भद्दे ढंग से तुल्पे, सफ़ेद कुर्ता-पजामा पहने, चेहरे पर काफी खिन्नता लिए, गुस्से में मंच पर आये, और माथे का पसीना फोंझते हुए माइक थाम कर कविता गायन करने लगे;

फाड़ दिया....
फाड़ दिया.....
फाड़ दिया सालों ने ......
"अरे कविवर, क्या फाडा ? आगे भी बढो, आप तो यही पर अटक गए", दर्शक दीर्घा से एक आवाज आई तो कविवर आगे बढे ;

याद है, जब तुम
पिछली बार,
मायके से आयी थी,
वह गिफ्ट मेरे लिए लाई थी,
सुन्दर, सफ़ेद चटकीला था.
न ज्यादा टाइट था,
और न ही ढीला था,
मगर इस होली पर उसे,
जो दिया था तुम्हारे मायके वालो ने !
मुझपर रंग मलने के बहाने,
फाड़ दिया.....
फाड़ दिया.....फाड़ दिया सालो ने !!


कितना निखरता था,
मेरे गठीले बदन पर,
और तुम कहती थी ,
जब आप उसे पहन कर,
किसी कवि सम्मलेन में जाते हो,
सच में,
तुम मंच पर,
और कवियों से,
एकदम अलग नजर आते हो,
मगर इस होली पर,
गली-मोहल्ले, ठेके  के दलालों ने!
मुझपर रंग मलने के बहाने,
फाड़ दिया.....
फाड़ दिया.....फाड़ दिया सालो ने !!

मुझे याद है तुमने,
कितने प्यार से,
वो मुझे दिया था,
और तुम्हारी उस भेंट को,
मैंने भी खुशी -खुशी कबूल किया था,
दिल नहीं लगता,
जबसे तुम फिर से मायके गई हो,
ख़त लिखकर बताना
अबके कब लौट रही हो ?
अपने पापा, यानी
मेरे ससुर जी को भी बता देना,
कि इस होली पर,
इस बस्ती के कंगालों ने !
मुझपर रंग मलने के बहाने,
फाड़ दिया.....
फाड़ दिया.....फाड़ दिया सालो ने !!

Thursday, October 29, 2009

खाए-अघाये लोग और 'आम-धन का खेल' !

जाहिर है कि यह बात उन लोगो के लिए कोई मायने नहीं रखती जो कामरेड के कहने पर दो किलो चावल के लिए पुलिस गश्ती दल के वाहन के नीचे विस्फोटक लगा कर उसे उड़ा देते है, यह बात उन लोगो के लिए कोई मायने नहीं रखती जो कुछ कम्बलों और रोटियों के लिए पूरी ट्रेन का ही अपहरण कर बैठते है ! यह बात उन लोगो के लिए भी मायने नहीं रखती, जो चूहे मारकर उनका गोश्त खाने को मजबूर है, घास खाने को मजबूर है! यह बात मायने रखती है उनके लिए जो ठेकेदार है, और कॉमन वेल्थ खेलों के नाम पर कही किसी प्रोजक्ट से संबद्ध है, यह बात मायने रखती है, सरकारी मशीनरी के उन इंजीनियरों और प्लानिंग से सम्बंधित अफसरों के लिए, जो इन खेलो की ढाचागत सुविधाओं के निर्माण के लिए जिम्मेदार है, यह बात मायने रखती है उस खेल सस्था से जुड़े लोगो के लिए, जिसके ऊपर इसके आयोजन की जिम्मेदारी है, यह बात मायने रखती है उन नेतावो के लिए जिनके कंधो पर सफल आयोजन का सेहरा बाँधने का हक़ और खराब आयोजन के लिए दोषारोपण का भार दूसरो के ऊपर डालने का जिम्मा है, यह बात मायने रखती है यातायात और सुरक्षा से जुड़े लोगो के लिए, और अंत में यह बात मायने रखती है उस आम जनता के लिए, जो इन आयोजनों से पूर्व की असुविधाये भुगतने को मजबूर है और जिनपर आयोजन के दौरान और तत्पश्चात आने वाली असुविधाये और टैक्स तथा करो को भुगतने के लिए अपनी कमर को दुरस्त रखने का जिम्मा है!

यह बात मैंने शायद बहुत पहले भी कहीं पर कही थी कि जब हमारे पास वक्त था, तब हमारे इन रणनीतिकारों ने जान-बूझकर सारे प्रोजक्ट को देर किया, कभी यमुना बेड का मुद्दा उछालकर, कभी आयोजन की ढाचागत सुविधावो को विश्वस्तरीय बनाने हेतु अपने बीबी बच्चो समेत चीन, जापान और एथेंस घूमने के नाम पर, कभी पुरात्व की धरोहरों के नीचे से सुरंग ले जाने के नाम पर और न जाने किस-किस बात पर! वह भी एक सोची-समझी रणनीति का ही हिस्सा थी! हमारे ये कुछ मातहत common weath game को "come on wealth" game मानकर चल रहे है, हिंदी में ये उसे ये 'आम-धन का खेल' कहते है! यानी कि तुम भी खावो, हम भी खाए ! इसका एक उदाहरण यह दे सकता हूँ कि नेहरु स्टेडियम के जीर्णोधार के लिए तकरीबन ८०० करोड़ रूपये का बजट रखा गया है, जिसके पीछे तर्क यह है कि चूँकि अब समय बहुत कम रह गया है, इसलिए कार्य को निर्धारित समय पर ख़त्म करने के लिए अधिक धन की जरुरत है ! अब कोई सोचे कि ८०० करोड़ रूपये सिर्फ जीर्णोधार के लिए ? इतनी राशि में तो पुराने स्टेडियम को तोड़कर एक नया स्टेडियम बन सकता था, मगर पूछेगा कौन? यह तो सिर्फ इस कड़ी के एक छोटे से हिस्से का उदाहरण मैंने दिया ! टार्गेट तो सिर्फ इतना सा है कि आखिरी समय में निचले दर्जे का मटीरियल लगा, लीपा-पोती कर खेल का शुभारम्भ हो जाए, बस उसके बाद कौन पूछता है? भीड़ जुटाने की जुरुरत पडी तो एक-आदा किसी फिल्म स्टार को बुला लेंगे! प्लानिग इनकी इतनी उम्दा है कि एक रेड लाईट पर फ्लाय ओवर बनाते है तो यह नहीं सोचते कि अगली रेड लाईट पर जाकर भी तो ट्राफिक इकठ्ठा हो जाएगा, उसका क्या हल है ? जीता जागता उदाहरण है, मुनिरका में आई-आई टी के सामने बना फ्लाय-ओवर और गाजीपुर चौक पर बन रहा फ्लाय ओवर! सार्वजनिक धन का जो दुरुपयोग हो रहा है, उसकी मार आख़िरी में उस इन्सान को झेलनी है जो सड़क पर चलता है ! टैक्स का बोझ उसे झेलना है जो दिन-भर मेहनत कर कुछ कमाता है! इनका तो बस यही रोना रहेगा कि सरकार के पास फंड नहीं है !

Wednesday, October 28, 2009

इस नये ’वाद’ के मायने ?

इतिहासकारों की मानें तो पन्द्र्हवी-सोलहवीं सदी मे हमारे इस देश में कुछ गिने-चुने ही ’वाद’ मौजूद थे। जिनमे प्रमुख थे, सगुणवाद, निर्गुणवाद तथा रूढिवाद। यहां से शुरु हुआ इस “वाद” रूपी संक्रामक रोग का सफ़र उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक पहुचते-पहुंचते सामन्तवाद, जातिवाद, नस्लवाद, राष्ट्रवाद, अहिंसावाद और न जाने किन-किन वादों की अपनी अनेको मंजिले तय करता हुआ, आज एक्कीसवीं सदी के प्रारम्भिक पडाव मे क्षेत्रीयवाद, स्वायतवाद, स्वतन्त्रतावाद, मार्क्सवाद, मावोवाद और नक्सलवाद तक जा पहुंचा है। जहां एक ओर भयावह होती यह स्थित दिनो-दिन चिन्ता का विषय बन गई है, वहीं पिछ्ले कुछ सालों से एक और नये किस्म का वाद भी उभरकर सामने आया है, और वह है, नपुंसकतावाद। विदित रहे कि नपुंसक व्यक्ति प्रायः सभी उच्चगुणों के अभिवर्धन और साहस भरे पुरुषार्थी के सम्पादन में असमर्थ रहते हैं। और यहाँ इस वाद का उल्लेख मैं किसी व्यक्तिगत क्षमता के सन्दर्भ में नहीं कर रहा अपितु राष्ट्रीय हितों के सन्दर्भ में कर रहा हूँ।

हांलाकि, अगर हम अपने अतीत को गौर से देखे तो इस बीमारी का कीटाणु भी हमारे शरीर मे सदियों पूर्व से विद्यमान रहा है। ऐसा नही होता तो शायद विदेशी आक्रांता उस वक्त, जिस वक्त कि यातायात का साधन सिर्फ़ दुर्गम पैदल यात्राएं ही हुआ करती थी, इतनी दूर-दूर से चलकर यहां नहीं आते और न ही यहां आकर इस पूरे उप-महाद्वीप पर ही कब्जा कर पाते। मगर पिछ्ले कुछ सालो से इस संक्रामक रोग का असर, हमारी भोग-विलासिता की तथाकथित उन्नत जीवन शैली और हावभावों मे तेजी से स्पष्ठ रूप से दीखने लगा है, और इसकी मौजूदगी का अहसास हर किसी को है। इस देश में आज का इंसानी नेतृत्व नपुंसकता की पराकाष्ठा पर पहुँच चुका है। इस विरादरी के कुछ नपुंसक यहाँ इस बात पर भी नुक्ताचीनी कर सकते है कि ऐसा क्यों कहा जा रहा है, क्या हम सामने मौजूद दुश्मन का मुकाबला नहीं कर रहे? तो मै यह भी स्पष्ट करना चाहूँगा कि नपुंसकता रूपी इस बीमारी का जिक्र मै नेतृत्व के बारे में ही कर रहा हूँ, उस योद्धा के बारे में कदापि नहीं कर रहा, जो कदम-कदम पर उन दुश्मनों का मुकाबला कर रहा है, वह चाहे एक सुरक्षा बल का जवान हो अथवा एक आम नागरिक। बात यहाँ उस नेतृत्व की हो रही है जो सिर्फ कुछ चिकने-चुपड़े बयान दे, अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ रहे है।

इनकी सोच सिर्फ यहाँ तक सीमित होकर रह गई है कि इस देश से सिर्फ उसे और उसके परिवार को सुरक्षा मिल जाए, यह देश सिर्फ उसका अच्छा लालन-पालन कर ले, इस देश से वह सिर्फ इतना धन बटोर ले कि कल अगर देश छोड़कर भागना भी पड़े तो विदेश स्थित अपने सगे-समबन्धी के पास बैठ आराम की जिन्दगी गुजार सके, बाकी देश गया भाड़ में, मैं क्यों फालतू का टेंसन लू। और जब सोच सिमटकर यहाँ तक पहुच जाती है तो नपुंसकतावाद वहा खुद व खुद घुस जाता है! "वीर भोग्य वसुंधरा" की उक्ति आज सिर्फ वहाँ तक सिमट कर रह गई है, जहां तक कि 'मै कितना इस देश को लूट सकता हूँ, बस' । कान पक जाते है उस तथाकथित बुद्दिजीवी वर्ग की ये युक्तियाँ सुनकर कि जो कुछ हो रहा है, हमें यह भी देखना होगा कि उसके पीछे कारण क्या है ? अब इन महानुभावो को कौन बताये कि सिर्फ कारणों को देखने भर से या उसके बारे में चिंतन भर कर लेने से कुछ नहीं हो जाता, वास्तविक धरातल पर हमने उसे कितना उतारा, उसके लिए इमानदारी से कितने प्रयास किये, यह भी देखिये।

अब इस नक्सलवाद या मावोवाद को ही ले लीजिये, ये कौन लोग है जो हथियार उठाये हुए है ? सीधा जबाब है, बिहार, बंगाल, उडीसा, आंध्रा के जंगलो में रहने वाले वे आदिवासी जिनके पास दो जून का भोजन भी उपलब्ध नहीं। जिनका राजसत्ता ने खूब शोषण किया । दूसरा सवाल कि उन्हें हथियार पकडाए किसने ? सीधा जबाब, कोबाड गांधी और उसके जैसे उसके विरादारो ने, जिनका इन आदिवासियों से कहीं दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं, उन्हें इन आदिवासियों के सामजिक, आर्थिक उत्थान से दूर तक का कोई वास्ता नहीं। तो अब सवाल उठता है कि ये है कौन ? इसका जबाब जानने से पहले दूसरा पक्ष देखिये; एक तरफ वे भूखे नंगे, अशिक्षित आदिवासी है जिन्हें खाना खिला जबरदस्ती बन्दूक पकडा दी गई और दूसरी तरफ सुरक्षा बालो के वे जवान है, जिन्हें रोजी रोटी के नाम पर, परिवार के उचित पालन-पोषण के नाम पर, देश रक्षा के जज्बे के नाम पर उनकी भावनाओ से खिलवाड़ करके उसे सरकारी जामा पहना कर उन आदिवासीयो के सामने उनके दुश्मन के तौर पर खडा कर दिया जाता है। तुम लड़ो और मरो, बस हम सुरक्षित रहने चाहिए! और उन्हें लड़ाने वाला है कौन ? कोबाड गांधी और देश की सत्ता में बैठा उसका सौतेला भाई ! इस लडाई से दोनों ही अपनी रोटिया सेक रहे है। गर ऐसा नहीं है तो कोई कोबाड गांधी को पूछे कि उसकी लड़ाई तो सत्ता में बैठे लोगो से थी, फिर हरवक्त क्यों निर्दोष लोग ही उनका निशाना बनते है? उसने अब तक कितने नेतावो को निशाना बनाया? जबाब, एक भी नहीं , क्योंकि वह जानता है कि अगर उसने ऐसा किया तो दूसरी तरफ भी तो उसका सौतेला भाई ही बैठा है।

उधर अगर सौतेले भाई को देश तथा इन आदिवासियों की जरा भी चिंता होती तो जो हजारो करोड़ रूपये का नुकशान रेल पटरियों, स्कूलों, अस्पतालों सरकारी भवनों इत्यादि को उडाकर हर साल कर दिया जाता है, क्या उस धन से उन आदिवासियों को सरकार की तरफ से एक रिजर्व बटालियन बनाकर वैधानिक तौर पर राष्ट्र की मुख्यधारा में नहीं लाया सा सकता है ? ऐसे प्रावधान भी तो किये जा सकते थे कि कुछ न्यूनतम तनख्वाह देकर इन्हें बजाये कोबाड गाँधी द्वारा खरीदे गए हथियारों की जगह सरकारी हथियारों को हाथ में पकड़ने में गर्व महसूस होता ! मगर चोर-चोर मौसेरे भाई वाली कहावत की तरह कोबाड गांधी और उसका सौतेला भाई यह नहीं चाहता, अगर ऐसा होगा तो फिर इनकी रोजे रोटी कैसे चलेगी? सरकार के पास धन का अभाव महज एक बहाना है, मै पूछता हूँ कि देश यदि इस कदर गरीबी से जूझ रहा है कि पेट के लिए ये आदिवासी कुछ भी करने को तैयार है तो फिर क्या जरुरत है, उस भारी-भरकम दस हजार करोड़ से अधिक के कॉमन वेल्थ गेम के दिखावे की ? देश और राज्यों में बैठे ये सत्ता के ठेकेदार एक साल में देश के कितने धन का दुरुपयोग करते है उसका कोई लेखा जोखा है ? यह नहीं भूलना चाहिये कि आज जिस तरह की मानसिकता देश में पल बढ़ रही है, वह आने वाले समय में हमारे लिए भी पाकिस्तान की आज की तरह की स्थिति पैदा कर सकती है , और देश एक बार फिर अनेक टुकडो में विभाजित हो सकता है। क्या विभिन्न स्तरों पर मौजूद आज का हमारा नेतृत्व देश के भीतर हो रही इन नैतिक मूल्यों की निर्मम हत्या से कुछ पाठ सीखेगा ?

Monday, October 26, 2009

लघु कथा- वह एक नर्स थी !

डा० मार्क, डा० श्रीवास्तव के एक अजीज मित्र थे, और डा० श्रीवास्तव के ही आमत्रण पर अमेरिका से भारत आये थे। डा० मार्क से डा० श्रीवास्तव की जान पहचान तब हुई थी, जब डा० श्रीवास्तव अमेरिका मे डाक्टरी कोर्स कर रहे थे। कोर्स खत्म होने के उपरान्त देश सेवा और खासकर ग्रामीण समाज की सेवा का जज्बा डा० श्रीवास्तव को स्वदेश खींच लाया था। यहां लौटकर उन्होने सरकारी नौकरी ज्वाइन की और राज्य सरकार के दूर-दराज के ग्रामीण अस्पतालों मे मरीजो को अपनी सेवायें प्रदान करने लगे। उस वक्त तक उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश से अलग राज्य नही था, अत: डा० श्रीवास्तव का तबाद्ला पहाडो की तलहटी मे बसे उस कस्बे के एक सरकारी अस्पताल मे हो गया था, जिसमे केरल की रहने वाली जैनी बतौर नर्स पिछले चार-पांच सालो से कार्यरत थी।

हालांकि तब मै बहुत छोटा था, और शायद छठी कक्षा में पढता था। मुझे याद है कि सुन्दर और चुलबुले किस्म की जैनी स्वभाव से बहुत मिलनसार और भावनात्मक तौर पर दिल खोलकर दूसरों की मदद करने वाली थी। वह भारत के केरल प्रान्त के कोच्चि से करीब साठ किलोमीटर दूर अथीरापल्ली इलाके की मूल निवासी थी, और वाईएमसीए दिल्ली से प्रशिक्षित थी। उस कस्बे और आस-पास के गांवो के जरुरतमंद लोगो की मदद के लिये वह हमेशा तत्पर रहती थी। अस्पताल के आस-पास के इलाके मे और उस से सठे आस-पास के गांवो मे जब भी कोई प्रसव का इमरजेंसी केस होता, जैनी बिना देरी किये मदद के लिये वहां पहुंच जाती। धीरे-धीरे जैनी उस पूरे इलाके मे एक लोकप्रिय हस्ती बन गई थी। वह किसी से भी अपनी सेवाओं का कोई शुल्क नही लेती थी, अत: इलाके के जिन लोगो के यहां प्रसव के वक्त जैनी अपनी सेवायें देती, वे लोग उस वक्त जैनी को अपनी हैसियत के मुताविक इक्कीस अथवा इक्कावन रुपये तिलक के तौर पर भेंट और एक लड्डू का डब्बा पकडाने मे अपनी शान समझते थे। कम हिन्दी जानने वाली जैनी मरीज को अपने हिन्दी के रटे-रटाये दो वाक्य कि तुम चिन्ता नही करते, गौड सब ठीक करता जी , और फिर सब ठीक-ठाक निपट जाने पर खुशी-खुशी शुक्रिया और थैंकयू बोल लौट आती।

डा० मार्क को डा० श्रीवास्तव के पास आये तीन रोज हो गये थे कि अचानक डा० श्रीवास्तव को जिला मुख्यालय से सी एम ओ (चीफ़ मेडिकल आफिसर) का फोन आया और उन्हे एक जरूरी मीटिंग के लिये राज्य मुख्यालय, लखनऊ तलब किया गया। डा० श्रीवास्तव ने डा० मार्क की आवाभगत का भार जेनी के ऊपर डालते हुए, उसे कुछ जरूरी निर्देश दे, लखनऊ के लिये प्रस्थान किया। जैनी, मार्क के साथ व्यस्थ हो गई। चुंकि जैनी उस इलाके मे पिछ्ले चार-पांच सालो से रह रही थी, अत: वहां के कुछ जाने माने दर्शनीय इलाकों मे डा० मार्क को घुमाने ले गई। मार्क जिज्ञासू था और जैनी ज्ञाता, दोनो को एक दूसरे से जानकारी लेने और उसे समझने मे एक असीम किस्म का आनंद प्राप्त होता था। और इस समझने-समझाने के चक्कर मे कब दोनो एक दूसरे के इतने नजदीक आ गये , इसका अह्सास दोनो को ही तब हुआ, जब डा० मार्क के प्रस्थान का समय नजदीक आया। “मै तुम्हे छोड्कर नही जा सकता” डा० मार्क ने कहा। “मै भी तुम्हारे बगैर नही रह सकती” जैनी ने धीरे से गम्भीर स्वर मे कहा। “एक साथ रहने के लिये हममे से किसी एक को अपना देश छोडना पडेगा और मुझे तुम्हारा देश पसन्द है “ डा० मार्क ने कुछ सोचते हुए कहा ।

और फिर कुछ दिनो की छुट्टी लेकर जैनी और मार्क ने शहर आकर एक चर्च मे शादी रचा ली। शादी के बाद दोनो ही बहुत खुश थे, उनकी इस शादी से बस अगर खुश नही थे तो सिर्फ़ उस इलाके के लोग। न जाने उन्हे क्यो यह एक गोरे और एक काले का मेल पच नही रहा था। दो साल तक तो सब कुछ ठीक-ठाक ही चला, इस दर्मियान जब डा० श्रीवास्तव का वहां से तवाद्ला हो गया और महिनों तक जब रिक्त स्थान के लिये कोई डाक्टर उस अस्पताल मे नही आया तो डा० मार्क ही स्थानीय मरीजो की चिकित्सकीय मदद करते। और फिर वह हो गया जिसका अन्देशा कुछ स्थानीय लोग पहले ही जतला चुके थे।

जैनी करीब पांच-छ: माह के गर्भ से थी, काफ़ी दिनो से बात-बात पर जेनी और डा० मार्क्स के बीच खट-पट चल रही थी, और उनकी बातों से ऐसा लगता था कि उनके बीच गलत फहमी की कोई दीवार खडी हो गई थी। उस दिन सुबह-सबेरे भी उनकी किसी बात पर बहस हो गई थी। उनकी बातों से लगता था कि मानो डा० मार्क्स जेनी से नर्स की नौकरी छोड्ने की बात कह रहा था। जेनी गुस्से मे डा० मार्क को कह रही थी “आई हैडन्ट एक्स्पेक्टेड यू टु से इट वज औल राइट फ़ौर अ मैन टु गो आउट ऐन्ड अर्न हिज लिविंग, बट नौट अ ओमन” (मैने तुमसे यह उम्मीद नही की थी, आदमी के लिये तो बाहर जाकर नौकरी करना ठीक है, लेकिन एक औरत के लिये नही ) डा० मार्क ने भी उसी अन्दाज मे फिर जबाब दिया था “आइ डिडन्ट से इट. ऐज फार ऐज आइ एम कन्सर्न्ड,वोमन कैन डू व्हट एवर दे वान्ट” ( अर्थात मैने यह तो नही कहा। जहा तक मेरा सवाल है, औरत वह सब कर सकती है जो वह करना चाहे ) फिर ज्यों ही मार्क अपना बैग उठा चलने को हुआ, जेनी ने लगभग चिल्लाते हुए पूछा था “ व्हेन आर यू कमिंग बैक टु इन्डिया मार्क ?” (तुम वापस भारत कब आ रहे हो मार्क्स ?), डा० मार्क ने हल्के स्वर मे बुद-बुदाते हुए छोटा सा जबाब दिया था ’आई डोन्ट नो’ (अर्थात मुझे नही मालूम) ।

डा० मार्क के अचानक जैनी को ऐसे वक्त पर जिस वक्त पर कि जैनी को उसके सहारे की सख्त जरुरत थी,ऐसी परिस्थितियों मे इस तरह छोड्कर चले जाने से, वह टूटकर रह गई थी। नतीजन दिन प्रतिदिन उसकी हालत गिरती चली गई। और फिर वह एक दिन भी आया जब कस्बे के बीचों-बीच स्थित अस्पताल के ठीक बगल पर बने उस मकान की उपरी मंजिल से, जिस पर जैनी पिछले पांच सालो से किराए पर रह रही थी, रुक-रुककर असहाय अबला के छटपटाने की कराहे और दर्द भरी चीखे उस सुनशान कस्बे को हिलाने लगी। लेकिन इलाके के जिन लोगो की उसने लग्न और मेह्नत से पिछले छह सालो से सेवा की थी, जो लोग कल तक उसे जैनीजी-जैनीजी कहकर पुकारते थे, वहीं आज मदद करना तो दूर, उधर से गुजरते हुए जैनी पर फब्तियां कसने से तनिक भी नही हिचकिचा रहे थे। उसकी बदकिस्मती देखो कि हाल ही में उस अस्पताल में नया आया डाक्टर भी हफ्ते रोज की छुट्टी पर अपने गाँव गोरखपुर गया था। कस्बे में एक छोटा सा निजी चिकित्सालय भी था, मगर जैनी को वहाँ पहुंचाता कौन ? और हद तो तब हो गई जब ६५ वर्षीय मकान मालकिन, जिसे जैनी रमा चाची कह कर पुकारती थी, उसके दरवाजे के समीप गई और जब जैनी अपने बिस्तर पर लेटे-लेटे अपने दोनों हाथ ऊपर उठा, उस रमा चाची से मदद की गुहार लगा रही थी, तभी उसके यह कटु बोल जैनी के कानो में पड़े कि रांड, चली थी अंग्रेज बनने, अब मर, सड यहीं पर। यह सुनकर जैनी करीब १५ मिनट के लिए अपने ओठों को चबाकर कसकर बंद करके एकदम खामोश सी हो गई थी। मानो इस बीच सोच रही हो कि इन लोगो को, जिन्हें वह अपना समझकर, सुख-दुःख में इनकी इतनी सेवा करती रही, क्या उनसे उसे इसी सिले की उम्मीद थी? माना कि डा० मार्क के साथ उसका शादी रचाना लोगो को पचा न हो, लेकिन वह उसका अपना, अपनी निजी जिन्दगी के बारे में लिया गया फैसला था, उसे सही या गलत ठहराने वाले ये लोग होते कौन है ?

किसी अनजान भय की लकीरे उसके चेहरे पर साफ़ दिखाई देती थी । लोग अपने घरो-गलियों में तरह-तरह की बाते करते रहे, मगर एक भी माई का लाल ऐसा न निकला जो उसकी मदद के लिए आगे आ सके। रात करीब एक डेड बजे तक जैनी की दर्द भरी कराहे वातावरण में गूंजती रही, और फिर कुछ पल बाद एक नन्हे मेहमान की रूंधन भी वातावरण में गूंजी । मगर जब कुछ जिज्ञासू तमाशबीन सुबह जैनी की देहरी पर अन्दर झाँकने के लिए पहुचे तो जैनी और उसका नन्हा मेहमान बिस्तर पर शांत सो चुके थे, सदा के लिए !

Friday, October 23, 2009

यह ऐसा अद्धभुत देश हमारा !


इस पावन धरती ने कितने ,
भांति-भांति के जीव जने,
कुछ गुल्फामों ने चमन उजाडे ,
कुछ गुलशन की नींव बने। 



राम,कृष्ण और बुद्ध की भूमि,
बाह्य-धावों,जुल्मों  ने चूमी ,
कहीं पोषे जयचंद बहुतेरे,
कहीं वीर पृथ्वी जैसे वक्ष तने।

कहीं बहती है प्यार की गंगा ,
कहीं नफरत करती है नंगा ,
कहीं खाप-पंच के पहरे होते  ,
और कहीं रांझा -हीर घने।  



यह ऐसा अद्धभुत देश हमारा ,
हर बेबस को मिले सहारा ,
कहीं रंगों,कही खून की होली, 
कहीं दीवाली और ईद मने।  

Friday, October 16, 2009

दीवाली पर एक ब्लॉगर भारतीय बच्चे का पटाखा मैनेजमेंट !

सर्वप्रथम आप सभी को एक बार फिर से दीपावली की हार्दिक शुभकामनाये ! मन के अन्दर एक बच्चा है, जिसे बहुत रोकने की कोशिश करता हूँ मगर वह है कि कभी- कभार कीडे की तरह उछल पड़ता है ! नहीं मालूम कि जो लिखने जा रहा हूँ उसे आपलोग किस तरह से लेंगे! लेकिन यही कहूंगा कि दिवाली के इस सु-अवसर पर यह हल्का फुल्का हास्य-विनोद है, इसलिए आप उसे अन्यथा न ले ,और अगर किसी भी सज्जन को यह शोभनीय न प्रतीत हो, तो मैं उनसे अग्रिम तौर पर क्षमा प्राथी हूँ !

यह बच्चा जो कि दिनभर इस हिन्दी बलोग जगत में ही उलझा रहता है, आज दिवाली के अवसर पर किस तरह अपने पटाखों का मैनेजमेंट कर रहा है, आये देखे :

पापा ने पांच सौ रूपये दिए थे पटाखे खरीदने के लिए, लेकिन पांच सौ के तो कुछ भी नहीं आये ! दो सौ का तो एक ही अनार का डब्बा आया ! चलो ऐसा करता हूँ कि इसकी स्टॉक लिस्ट बनाता हूँ ;

१. सुतली वाले समीर अंकल - चार
( चिंटू बोल रहा था कि जब ये फूटते है तो आईटम बम की तरह आवाज करते है, इन्हें तो मै देर रात को जब पडोसी सो जायेंगे, तब उनके गेट पर जाके फोडूगा )

२.डबल सौट वाले ताऊ रामपुरिया - दो
(चिंटू बोल रहा था कि ये दो बार आसमान की तरफ गोले छोड़ते है, एक करीब तीन बजे और दूसरा छः बजे शाम को ! इनको तो मै छत पर जाकर तेल के खाली कनस्तर के अन्दर रखकर फोडूंगा ! देखता हूँ कि कहा गोले छोड़ते है आज! कनस्तर लेकर ही उडे ,तो वो और बात है )

३.चिपलूनकर अंकल - दो
( चिंटू ने बताया कि पिछले साल उसके बड़े भैया ने आसमान में खूब छोडे थे, ये सूऊऊऊऊ करके ऊपर जाते है और फिर जब फूटते है तो बहुत सारे चमचमाते सितारों की बौछार ऊपर से करते है )

४. अरे मेरे पास धमाकेदार एक अवधिया चचा भी तो है, ऐसा करूंगा कि अवधिया चचा को चिपलूनकर अंकल के साथ बांधकर बोतल का मुह गली के नुक्कड़ में रहने वाले अंजुमन मिंया के घर की तरफ करके छोडूंगा ! अगर चिपलूनकर अंकल, अवधिया चचा के साथ सीधे जाकर खिड़की के रास्ते अंजुमन मिंया के घर में घुसकर जोरदार ढंग से फूट पड़े, तो सच में बहुत मजा आयेगा !

५. महफूज भाई - चार
( यार, ये तो बड़े काम की चीज है, इनको तो महफूज ही रखना पडेगा, अभी नहीं फोडूंगा, न्यू इयर का जश्न भी तो मनाना है )

६.कलर छोड़ने वाली अदा दी - पूरा एक पैकेट है
(खूब रंग-विरंगी चिंगारिया छोड़ती है, इसे तो मै छोटी बहन को दे दूंगा )

७. अर्शिया फूल्झडी- ये भी दो पैकेट है दोनों छोटी बहन को दे दूंगा, वह भी खुश हो जायेगी !

८. भाटिया अंकल - दो
(चिंटू कह रहा था कि ये स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्ससीसी की आवाज करके जाते है, मगर फूटते वक्त धमाका नहीं करते, इन्हें भी छत से उड़ाउंगा )

9.अब बचे ये शास्त्री अनार- पूरा एक डब्बा है, बड़ा कीमती है, दो सौ का आया, खैर ये जब जलते है तो खूब झिलमिल-झिलमिल रोशनी करते है, सबसे पहले मै इन्ही ही से गली रोशन करूंगा !

अरे, मेरे पास चार पैकेट कोकाश अंकल भी तो है, मुर्गा छाप है, इन्हें तो मै पूरी की पूरी लड़ी एक साथ फोडूंगा, गली में अगर कोई रात को ओवरकोट पहने निकला तो एक लड़ी चुपके से सुलगाकर उसकी जेब में भी डाल दूंगा, सच में बहुत मजा आयेगा !

यह तो थी एक भारतीय ब्लॉगर बच्चे की पठाखा मैनेजमेंट, इनकी खुशिया एक पडोसी मुल्क के ब्लॉगर बच्चे से देखी नहीं जा रही, अतः वह भी अपनी माँ से जिद कर रहा है, कह रहा है कि मैं भी बम फोडूंगा ! क्या कह रहा है आये देखे ;

अम्मी देख वहाँ दीवाली आई
हर घर में है खुशिया छाई,
बंट रहे है कही पर तोहफे
और कहीं बंट रही मिठाई !

छत पर सबके लडिया साजी
बच्चे कर रहे आतिशबाजी,
बड़े-बूढे सज-धजकर घूमे है
वस्त्र-आभूषण पहन रिवाजी !

जगमग-जगमग दीप जले है
हर रोशन घर लगे भले है,
दिये में टिम-टिम जलती बाती
खुसी उनकी मुझसे देखी न जाती !

किसी आतंकी से मुझे मिला दे
थोडा आरडीएक्स मुझे दिला दे,
उसे तो मैं हरगिज यूँ ना छोडूंगा
उसके घर जाकर मैं भी बम फोडूगा !

Wednesday, October 14, 2009

सभी ब्लॉगर मित्रो के लिए एक आवश्यक सूचना !

आज इस सांसारिक जगत की बारह महान विभूतियाँ आप सभी के मोबाइल नंबर मुझ से मांग रही थी , मैंने उन्हें आपके मोबाईल नंबर तो नहीं दिए, मगर आपके घर के पते, जो भी मेरे पास उपलब्ध थे, उन्हें दे दिए है ! वे अगले एक-दो दिनों में आपके घर पधारने वाले है !

उनके नाम इस तरह से है :
१.सुख
२.शान्ति
३.समृधि
४.सफलता
५.संस्कार
६.स्वास्थ्य
७.सरलता
८.सम्मान
९.संयम
१०.सजगता
११.सम्पूर्णता
१२. सादगी


मैने इन सभी विभूतियों से आग्रह किया है कि वे आपके घर में सदा के लिए ठहर जाए ! अतः आप उनका जोर-शोर से स्वागत करे !

साथ ही आपको तथा आपके समस्त पारिवारिक जनों को मेरी तरफ से दीपावली की हार्दिक शुभकामनाये !

शुभम करोति कल्याणं, आरोग्यम धन संपदा !
शत्रु, बुद्धि, विनाशाय, दीपम् ज्योति नमस्तुते !!


आपका
-पी. सी. गोदियाल


इल्तजा



दगा  दिल से किसी के
मत कर , ऐ यार,
सलवटों में ही दबकर 
न रह जाए प्यार। 

निश्छल मन 
न छल चेहरे पर,
यूं हो किसी से, 
मुहब्बत का  इजहार।  

घर के द्वारे आये,
झुकी पलकें, मुस्कुराये, 
तभी चाँद का 
तू कर  दीदार।  

कदर फूल की ,
फिर  मोल-भाव क्यों ?
गुल-ऐ-गुलशन 
मत कर जीना दुश्वार।  

Tuesday, October 13, 2009

चोरो के पैसो पर ऐश करता एक देश !

ऐसा अनुमान है कि १९४७ में आजादी के तुंरत बाद से अब तक हम भारतीय, जिनमे हमारे नेता, अफसर और कुछ व्यावसायिक घराने शामिल है, अपने देश का धन चुराकर तकरीबन बारह खरब रूपये अकेले सिर्फ स्विस बैंक के खातो में जमा कर चुके है ! यूँ तो समय-समय पर इस देश में यह मांग उठती रही है कि विदेशी बैंको में पडा इस देश का काला धन वापस देश में लाया जाए और इस देश के विकास कार्यो में लगे, मगर यह बात भी किसी से छुपी नहीं कि हम लोग और हमारी सरकारे इस दिशा में कितनी ईमानदारी से पहल करने की कोशिश करते है ! अभी हाल के चुनावों से पहले भी यह मुद्दा खूब उछला लेकिन उसके बाद क्या हुआ ? वही ढाक के तीन पात ! सबके पास रटा-रटाया एक ही एक्सक्यूज होता है कि स्विस राष्ट्रीय बैंक अपनी गुप्त नीति के तहत इन खातो के आंकडे मुहैया नहीं करा सकती ! दुनिया भर में लोगो के बढ़ते विरोध के बाद स्विस बैंकर एसोशियेसन ने एक नया सगूफा छोड़ दिया है ! अब वे कहते है कि इस बर्ष दिसम्बर माह से वे खातेदार का अता-पता बताये बगैर जिन देशो के साथ उनकी दोहरी कर संधि है उन देशो के खाता धारियों की आय पर वे टैक्स लगाकर उस पैसे को उस देश को दे देंगे जिसके ये खाते है ! अकेले अमेरिका के खाताधारियों के ही स्विस बैंक में ४४५० खाते इस वक्त है !

कितनी हास्यास्पद बात है कि हम लोग अपने देश से धन चोरी करके ले जाकर एक विदेशी देश के हवाले कर देते है और वह मजे में बैठकर हमारे उस चोरी के माल से अर्जित कमाई से ही मोटा सेठ हुए जा रहा है और ऐश कर रहा है ! आइये एक नजर कुछ उन आंकडो पर डाले !
२००६ में प्रकाशित कुछ आंकडो के हिसाब से स्विस बैंक में शीर्ष पांच चोरो में से भारत के चोर सबसे ऊपर थे :

स्विट्जरलैंड में जमा शीर्ष पांच देशो के खाताधारियों का धन :

India-------$1456 billion (यानी करीब सात खरब तीस अरब रूपये)
Russia------$ 470 billion
UK----------$ 390 billion
Ukraine-----$ 100 billion
China-------$ 96 billion


यानी भारत से ही करीब सात खरब तीस अरब रूपये खातेदारों द्बारा स्विस खाते में जमा थे, और ८ % साधारण ब्याज की दर से भी स्वीटजरलैंड साल के ५६ अरब रूपये सिर्फ हमारे चोरो द्बारा जमा किये गए काले धन में से ही कमा लेता है ! तो अब आप ही बतावो कि जब बैठे -बिठाये उनकी इतनी कमाई हो जाती है तो उन्हें और कुछ करने की जरुरत क्या है ? हम दुनिया में तरह-तरह के अपराधो की बात करते है और उन देशो पर पश्चिमी राष्ट्र कारवाही करने की कोशिशे भी करते रहते है जो इन अपराधो को बढावा देते है ! मगर जो एक देश खुले आम आर्थिक अपराधो को इस तरह बढावा दे रहा है, उसके खिलाप कार्यवाही की कोई बात नहीं करता !

Monday, October 12, 2009

ये सरकारे दोस्त है या फिर दुश्मन ?

आज के अखबारों में प्रमुखता से छपी यह खबर आपने भी पढी होगी कि केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने कहा है कि भविष्य की और टकटकी लगाए युवाओं को यदि नौकरी चाहिए तो वे शिक्षक बने, क्योंकि इस वक्त देश में करीब बारह लाख से अधिक शिक्षको के पद रिक्त है! अभी कुछ दिन पहले आपने यह भी खबर अखबारों में पढी होगी कि देश भर के पुलिस महकमे में इस वक्त लाखो पद खाली पड़े है ! अब सवाल यह है कि जब एक तरफ देश का युवा वर्ग बुरी तरह बेरोजगारी की मार से जूझ रहा है, वहाँ दूसरी तरफ ये सरकारे यह कहकर क्या जतलाना चाहती है कि इस वक्त देश में इतने रोजगार के साधन उपलब्ध है? ये इतने सारे पद रातो-रात तो खाली नहीं हुए, सालो से यह रिक्तता चली आ रही है, और मंदी भी तो पिछले एक-डेड साल पहले ही आयी थी! और क्या मंदी में इन सरकारों के धर्ता-कर्ता अपने शानो-शौकत के खर्चो में कमी लाये ? यदि देश के पास प्रयाप्त धन उपलब्ध नहीं था, इन पदों के अभ्यर्थियों को वेतन देने के लिए तो क्या इन्होने अरबो रूपये अपनी मूर्तियों और अन्य तरह के बेफजूल बातो पर नहीं खर्च किया ? फिर क्यों नहीं, इन सरकारों ने इस और ध्यान दिया कि इस देश के हर एक शिक्षित युवा को अपने पालन पोषण के लिए एक नौकरी की जरुरत है? अगर इतने पद शिक्षको के खाली है तो देश के सरकारी स्कूलों में इन्होने आजतक हमारे बच्चो को पढाया क्या, सिवाय लोगो की आँखों में धूल झोकने के? और अब अगर ये इन पदों पर हमारी वर्तमान युवा पीढी को नियुक्त होने का अवसर देते भी है तो इतने सालो तक पदों को खाली रखकर क्या इन्होने उस शिक्षित युवा पीढी के साथ अन्याय नहीं किया, जिनकी अब इन पदों के लिए आवेदन भरने की उम्र गुजर चुकी ? मै पूछता हूँ कि उस पढ़े-लिखे युवा का क्या कसूर था, जिसे आपने उसका हुनर दिखाने का मौका ही नहीं दिया ? क्या ये उन हजारो माता-पिताओं की संतान लौटा सकते है जिनके मासूम युवाओं ने बेरोजगारी से तंग आकर इन सालो में अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर दी ?

अभी कुछ दिनों पहले झारखंड में जब एक पुलिस इंसपेक्टर को नक्सलियों ने सर कलम कर उसकी ह्त्या की तो टीवी चैनलों पर आपने भी यह खबर देखी होगी, जिसमे दिवंगत इस्पेक्टर का मासूम बेटा यह कहते बताया गया था कि वह पिता की अर्थी पर रोते हुए नक्सलियों को सन्देश दे रहा था कि बड़ा होकर मैं तुमसे अपने पिता की मौत का बदला लूंगा ! अब उस मासूम को कौन समझाए कि ये नक्सली तो एक नंबर के कायर है, यदि ये कायर नहीं होते तो जंगलो में छुपकर इस तरह निहत्थो को अपना शिकार बनाते? अतः इन कायरो को मारकर तुम भी सिर्फ पेड़ की शाखाओं को ही काटोगे, पेड़ की जड़ नहीं ! अगर तुमने बदला लेने की ठानी ही है तो देश की राजधानी और राज्यों की राजधानियों में बैठे और पसरे पड़े इनकी जड़ो को काटने की कोशिश करना !

Saturday, October 10, 2009

नोबेल वाली रेवड़ियां !

नोबेल शान्ति पुरुष्कार २००९ अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा को देने की घोषणा की खबर जनमानस के लिए यदि आश्चर्यजनक नहीं थी, तो सहज पचने योग्य भी नहीं थी ! एक वक्त था ,जब इस पुरुष्कार की सही मायने में एक अलग प्रतिष्ठा थी ! इंसान जिसे पाने के लिए अपने हुनर को तन-मन से अपने उद्देश्य में झोंक देता था, मगर कड़ी प्रतिस्पर्धा के बीच इसे बामुश्किल ही प्राप्त कर पाता था! हो सकता है कि बराक हुसैन ओबामा आगे चलकर अंतर्राष्ट्रीय शान्ति के एक प्रमुख दूत उभर कर आये, लेकिन यह बात गले नहीं उतरती कि महज अपने ९ महीने के शासन काल में उन्होंने ऐसा क्या कर दिखाया है, जो इस पुरुष्कार की चयन समिति द्बारा उन्हें इस योग्य समझ लिया गया ? अगर अमेरिकी डेमोक्रेतिवे पार्टी उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार नहीं बनाती तो २ साल पहले तक उन्हें जानता कौन था ? सवाल यह नहीं है कि उन्हें यह पुरुष्कार क्यों मिला, सवाल यह है कि क्या इस इतनी बड़ी दुनिया में उनके अलावा एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो अन्तराष्ट्रीय शान्ति का दूत कहलाने के काबिल हो ? अगर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने कुछ आक्रामक नीतिया अपने शासन काल में नहीं अपनाई होती तो बराक ओबामा को किस आधार पर ये शान्ति दूत कहते ?

समय के साथ-साथ जिस तरह इस प्रतिष्ठित पुरुष्कार की चयन समिति के लोगो द्वारा संकीर्ण मानसिकता के चलते इसकी अहमियत का ह्रास किया गया है वह निंदनीय है ! जरुरत है आज रेवड़ियों की तरह इसके वितरण पर रोक लगाने की , ताकि यह अपनी साख जन मानस के बीच बचाए रख सके !

Friday, October 9, 2009

हे खुदा, चलो आपने किसी को तो अक्ल बख्शी !


खबर :Burqas banned at al-Azhar University CAIRO: Egypt’s top Islamic cleric said Thursday that students and teachers will not be allowed to wear face veils in classrooms and dormitories of Sunni Islam’s premier institute of learning, al-Azhar, part of a government effort to curb radical Islamic practices.The decision announced by Sheik of al-Azhar Mohammed Sayyed Tantawi came days after he said the face veil, or niqab, ‘has nothing to do with Islam.’

तंतावी जहां अपना पक्ष इस तरह रखते है कि ‘face of a woman is not a shame.’

वहीं मुस्लिम जमात के ठेकेदार भी तैयारी करने लगे है " The media arm of the group accused Tantawi of ‘declaring war on the niqab, and facilitating matters of vice’ in a statement posted on its Web site,".


एक और खबर : Canadian Muslim group calls for burqa ban OTTAWA: A Muslim group on Thursday called for a ban on the wearing of burqas in public in Canada, saying it ‘marginalizes women.’
The burqa has absolutely no place in Canada,’ said Farzana Hassan of the Muslim Canadian Congress.
‘In Canada we recognize the equality of men and women. We want to recognize gender equality as an absolute. The burqa marginalizes women.’
Many Muslim women in this country are being forced to wear the loose robe and veil by their husbands and family, setting them apart from other Canadian women who are living freely, she claimed.

यही कहूँगा कि हे खुदा, चलो आपने किसी को तो अक्ल बख्शी, इनको भी बख्शना !
और अंत में :
पक्के तौर पर तो नहीं कह सकता, मगर शायद इस लेख के बाद मेरे इस ब्लॉग पर कुछ "ख़ास मेहमान" भी आएँगे, तो उनको अपनी तारीफ़ में पहले से ही कुछ कहना चाहता हूँ !
क्या करू, मुझे अपनी तारीफ़ ठीक से करनी भी नहीं आती, जब करने लगता हूँ तो कुछ भी उटपटांग बोल जाता हूँ अब इस शेर को ही देख लीजिये:

हूँ तो बहुत कुछ, मगर जो हूँ वो मैं दिखता नहीं,
खूब लिखना भी जानता हूँ, मगर मैं लिखता नहीं !


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Wednesday, October 7, 2009

करवाचौथ की हार्दिक शुभकामनाये !

सभी जीजावो-बहनों, भाइयो और भाभियों को मेरी तरफ से करवाचौथ की हार्दिक शुभकामनाये, इन दो पंक्तियों के साथ :

ऐ चाँद तू भी क्या  सितम  ढाता है !
बचपन में मामा,
और जवानी में सनम नजर आता है !!



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ऐ मुए चाँद ,
तेरी वजह से बचपन में 
मैंने भी खूब डांट खाई है,
करवाचौथ के दिन तुझे निहारते हुए 
मम्मी से पूछ बैठा था 

कि क्या ये मामू आपका भाई है।     

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Monday, October 5, 2009

डूब मरो बेव्डो कहीं चुल्लू भर दारू मे !

पव्वे पर पंद्रह रुपये, अद्धे पर बीस  रुपये और पूरी बोतल पर तीस  रुपये अतिरिक्त वसूला जा रहा है, पिछले एक अर्से से उत्तम  प्रदेश के फुट्कर शराब बिक्रेताओ द्वारा इन बेव्डो से  मगर अब तक किसी भी माई के लाल की इतनी हिम्मत नही हुई कि जरा सा चूं भी कर सके इस हो रहे अन्याय के प्रति, इसे कहते है प्रशासन का खौप। बात सिर्फ़ दस-बीस अथवा तीस रुपये की नही, बात है इस देश के कायदे- कानूनों की , जो कहते है कि आप किसी भी ग्राहक से वस्तु पर प्रिन्टेड रेट; खुदरा अधिकतम मूल्य (MRP ) से अधिक नही वसूल सकते। वहाँ  के शराब विक्रेताओं से इस बात पर विरोध दर्ज करो तो उनका टका सा जबाब होता है “हम क्या करे, ऊपर से आदेश हैं !” !

८५ रूपये एम् आर पी छपा है, मगर बोतल  सौ  रूपये की बिक रही है !

ऐसा अनुमान है कि उत्तम परदेश मे प्रतिदिन तीन लाख शराब की बोतलों की खपत होती है, और पव्वे, अद्धे और पूरी बोतल के औसतन  के हिसाब से दस रुपये प्रति बोतल भी अतिरिक्त वसूली का सीधा मतलब हुआ कि प्रतिदिन तीस लाख रुपये और साल के करीब सवा अरब रुपये की वसूली ! और भगवान के सिवाय शायद ही और कोई बता पाए कि यह अन्धी कमाई आखिर जा कहां रही है ? बेव्डो को तो सरकार और दारू  एजेंट, कम्पनियां वैसे ही पागल समझती है, तभी तो सिर्फ़ इनके लिये परोसी जाने वाली खुराक १७५ मिलीलीटर की बोतल को पौवा (जबकि होना चाहिए था २५० मिली लीटर ) , ३५० मिली लीटर की बोतल को अद्धा(होना चाहिए था ५०० मिली लीटर) और ७५० मिली लीटर की बोतल को लीटर (लीटर मतलब १००० मिली ळीटर) बताकर बेचा जाता है और आज तक किसी बेव्डे ने यह नही पूछा कि उनके साथ यह भेदभाव क्यों ? और तो और, बेवजहो की बातों पर बेफालतू उछलने वाले इस देश के तमाम तथाकथित सामाजिक संघठनो और मानवाधिकार संस्थाओ  एवम हर जगह अपने स्टिंग आपरेशन  का कैमरा घुमाने को तत्पर रहने वाले हमारे खोजी पत्रकारों ने भी इन बेव्डों के दुख-दर्द को जरा सी भी अहमियत नही दी ।

जागो बेव्डो जागो !!! वरना डूब मरो, कहीं चुल्लू भर दारू मे !


दुनियादारी मे  दिल को

जब कुछ भी न भाने लगे,
जिन्दगी मौत को गले

लगाने को उकसाने लगे,
अन्दर से जज्बाती

तूफ़ानो का शोर बडा हो,
दिल  टूटकर सारा का सारा 

इधर-उधर बिखरा पडा हो,
ख्वाईशें सिमटकर किसी

संदूकची में  पडी  हों ,
मुसीबतें दर पर हरवक्त 

मुह-बाये  खडी  हों ,
लेनदार उगाही को रोज

घर पर आने लगे,
घर-मालिक घर खाली

कराने को धमकाने लगे,
तब तुम  झूमते हुए 

मेरे पास आ जाना बेव्डो,
मै धर्मार्थ मयखाना खोलने की

सोच रहा हू, तुम्हारे लिये !! :) :)

Saturday, October 3, 2009

आके तो देख, साबरमती के संत !




चौक-चौराहों पे लटका के तेरा बुत,
बनाते  उसे अपने तिजारत की ढाल !
आके तो देख साबरमती के संत,
तेरे ये भक्त, क्या-क्या कर रहे कमाल !!

पब्लिक को सरे-आम मूर्ख बनाते, 
थोक ,फुटकर दोनों ही में कमाते ,
बदन पर अपने ओढ़कर खादी,
इन्होने देश की तिजोरी खा दी ,

अपने लिए क्या-क्या नहीं जोड़ा,
मवेशियों का चारा भी नहीं छोडा,
खेल, टूजी ,कोलगेट सब  छा गए ,
तोपे, शहीदों के कफ़न भी खा गए,

रोडपति से चलकर करोड़पति की चाल !
गए कई क्वात्रोक्की होकर माला-माल,
आके तो देख साबरमती के संत,
तेरे ये भक्त, क्या-क्या कर रहे कमाल !!

कुछ इस तरह भी ;

लूट खा गए देश तिजोरी, 
मिलकर राजा रंक दे नाल,
साबरमती के संत देख, 
तेरे पूतों ने क्या किया कमाल !

मंदी में भी खूब लहराया, 
२जी,सीडब्ल्यूजी मायाजाल,
साबरमती के संत देख, 
तेरे पूतों ने क्या किया कमाल !


लोकतंत्र की आड़ में, 
राजनीति इन्होने अजब चलाई,
प्रजा को  दे दी दरिद्रता,
और खुद खा रहे है रस-मलाई !

लुच्चे-लफंगे, चोर-उचक्के, 
हो गए हैं सबके सब मालामाल,
साबरमती के संत देख, 
तेरे पूतों ने क्या किया कमाल !

शतरंज बिछाकर बैठा है , 
वर्षों से इक बाहुबली घराना,
मुश्किल सा लगता है, 
उस कुटिल फिरंगी को हराना !

सोची-समझी होती है, 
उसके चमचों की हर  चाल,
साबरमती के संत देख, 
तेरे पूतों ने क्या किया कमाल !

मन शठता से भरा  है,  
तन पर पहने रहते है खादी,
निहित स्वार्थ पूर्ति हेतु। 
लिख रहे हैं ये देश बर्बादी !

कुत्सित कृत्य देखकर इनके, 
मुंह फेरे इनसे  महाकाल,
साबरमती के संत देख, 
तेरे पूतों ने क्या किया कमाल !!

प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।