Wednesday, October 14, 2009

इल्तजा



दगा  दिल से किसी के
मत कर , ऐ यार,
सलवटों में ही दबकर 
न रह जाए प्यार। 

निश्छल मन 
न छल चेहरे पर,
यूं हो किसी से, 
मुहब्बत का  इजहार।  

घर के द्वारे आये,
झुकी पलकें, मुस्कुराये, 
तभी चाँद का 
तू कर  दीदार।  

कदर फूल की ,
फिर  मोल-भाव क्यों ?
गुल-ऐ-गुलशन 
मत कर जीना दुश्वार।  

8 comments:

  1. फ़ुर्सत के उन हसीं लमहो में,
    जीना दुष्वार मत करना
    kya baat hai

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  2. मन निश्छल न हो,
    छल चहरे पे नजर आये !
    इस तरह के प्यार का ,
    तुम इजहार मत करना !!

    बहुत बढिया !

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  3. बहुत ही सुंदर कविता.
    धन्यवाद
    आप को ओर आप के परिवार को दीपावली की शुभ कामनायें

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  4. सलवटों में दबके रह जाए,
    वह प्यार मत करना !!
    बहुत भावमय रचना और खूबसूरत एहसास

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  5. वाह!! बहुत खूब!

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  6. फूलो को तेरे कदरदान,
    खरीदने पर उतर आयें !
    गुल-ऐ-गुलशन को यों ,
    सरेआम बाजार मत करना !!!!

    wah! bahut khoob..........

    bada achcha laga padh kar..........

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  7. गफलतों में भी दगा दिल से,
    ऐ यार मत करना !
    सलवटों में दबके रह जाए,
    वह प्यार मत करना !!

    वाह क्या बात है....
    बहुत बढ़िया लिखा है।
    धनतेरस, दीपावली और भइया-दूज पर
    आपको ढेरों शुभकामनाएँ!

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  8. वाह, क्या बात है... आपका ऐसा मिजाज़ तो शायद पहली बार देख रहा हूँ... बहुत सुन्दर ..

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।