Wednesday, October 28, 2009

इस नये ’वाद’ के मायने ?

इतिहासकारों की मानें तो पन्द्र्हवी-सोलहवीं सदी मे हमारे इस देश में कुछ गिने-चुने ही ’वाद’ मौजूद थे। जिनमे प्रमुख थे, सगुणवाद, निर्गुणवाद तथा रूढिवाद। यहां से शुरु हुआ इस “वाद” रूपी संक्रामक रोग का सफ़र उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक पहुचते-पहुंचते सामन्तवाद, जातिवाद, नस्लवाद, राष्ट्रवाद, अहिंसावाद और न जाने किन-किन वादों की अपनी अनेको मंजिले तय करता हुआ, आज एक्कीसवीं सदी के प्रारम्भिक पडाव मे क्षेत्रीयवाद, स्वायतवाद, स्वतन्त्रतावाद, मार्क्सवाद, मावोवाद और नक्सलवाद तक जा पहुंचा है। जहां एक ओर भयावह होती यह स्थित दिनो-दिन चिन्ता का विषय बन गई है, वहीं पिछ्ले कुछ सालों से एक और नये किस्म का वाद भी उभरकर सामने आया है, और वह है, नपुंसकतावाद। विदित रहे कि नपुंसक व्यक्ति प्रायः सभी उच्चगुणों के अभिवर्धन और साहस भरे पुरुषार्थी के सम्पादन में असमर्थ रहते हैं। और यहाँ इस वाद का उल्लेख मैं किसी व्यक्तिगत क्षमता के सन्दर्भ में नहीं कर रहा अपितु राष्ट्रीय हितों के सन्दर्भ में कर रहा हूँ।

हांलाकि, अगर हम अपने अतीत को गौर से देखे तो इस बीमारी का कीटाणु भी हमारे शरीर मे सदियों पूर्व से विद्यमान रहा है। ऐसा नही होता तो शायद विदेशी आक्रांता उस वक्त, जिस वक्त कि यातायात का साधन सिर्फ़ दुर्गम पैदल यात्राएं ही हुआ करती थी, इतनी दूर-दूर से चलकर यहां नहीं आते और न ही यहां आकर इस पूरे उप-महाद्वीप पर ही कब्जा कर पाते। मगर पिछ्ले कुछ सालो से इस संक्रामक रोग का असर, हमारी भोग-विलासिता की तथाकथित उन्नत जीवन शैली और हावभावों मे तेजी से स्पष्ठ रूप से दीखने लगा है, और इसकी मौजूदगी का अहसास हर किसी को है। इस देश में आज का इंसानी नेतृत्व नपुंसकता की पराकाष्ठा पर पहुँच चुका है। इस विरादरी के कुछ नपुंसक यहाँ इस बात पर भी नुक्ताचीनी कर सकते है कि ऐसा क्यों कहा जा रहा है, क्या हम सामने मौजूद दुश्मन का मुकाबला नहीं कर रहे? तो मै यह भी स्पष्ट करना चाहूँगा कि नपुंसकता रूपी इस बीमारी का जिक्र मै नेतृत्व के बारे में ही कर रहा हूँ, उस योद्धा के बारे में कदापि नहीं कर रहा, जो कदम-कदम पर उन दुश्मनों का मुकाबला कर रहा है, वह चाहे एक सुरक्षा बल का जवान हो अथवा एक आम नागरिक। बात यहाँ उस नेतृत्व की हो रही है जो सिर्फ कुछ चिकने-चुपड़े बयान दे, अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ रहे है।

इनकी सोच सिर्फ यहाँ तक सीमित होकर रह गई है कि इस देश से सिर्फ उसे और उसके परिवार को सुरक्षा मिल जाए, यह देश सिर्फ उसका अच्छा लालन-पालन कर ले, इस देश से वह सिर्फ इतना धन बटोर ले कि कल अगर देश छोड़कर भागना भी पड़े तो विदेश स्थित अपने सगे-समबन्धी के पास बैठ आराम की जिन्दगी गुजार सके, बाकी देश गया भाड़ में, मैं क्यों फालतू का टेंसन लू। और जब सोच सिमटकर यहाँ तक पहुच जाती है तो नपुंसकतावाद वहा खुद व खुद घुस जाता है! "वीर भोग्य वसुंधरा" की उक्ति आज सिर्फ वहाँ तक सिमट कर रह गई है, जहां तक कि 'मै कितना इस देश को लूट सकता हूँ, बस' । कान पक जाते है उस तथाकथित बुद्दिजीवी वर्ग की ये युक्तियाँ सुनकर कि जो कुछ हो रहा है, हमें यह भी देखना होगा कि उसके पीछे कारण क्या है ? अब इन महानुभावो को कौन बताये कि सिर्फ कारणों को देखने भर से या उसके बारे में चिंतन भर कर लेने से कुछ नहीं हो जाता, वास्तविक धरातल पर हमने उसे कितना उतारा, उसके लिए इमानदारी से कितने प्रयास किये, यह भी देखिये।

अब इस नक्सलवाद या मावोवाद को ही ले लीजिये, ये कौन लोग है जो हथियार उठाये हुए है ? सीधा जबाब है, बिहार, बंगाल, उडीसा, आंध्रा के जंगलो में रहने वाले वे आदिवासी जिनके पास दो जून का भोजन भी उपलब्ध नहीं। जिनका राजसत्ता ने खूब शोषण किया । दूसरा सवाल कि उन्हें हथियार पकडाए किसने ? सीधा जबाब, कोबाड गांधी और उसके जैसे उसके विरादारो ने, जिनका इन आदिवासियों से कहीं दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं, उन्हें इन आदिवासियों के सामजिक, आर्थिक उत्थान से दूर तक का कोई वास्ता नहीं। तो अब सवाल उठता है कि ये है कौन ? इसका जबाब जानने से पहले दूसरा पक्ष देखिये; एक तरफ वे भूखे नंगे, अशिक्षित आदिवासी है जिन्हें खाना खिला जबरदस्ती बन्दूक पकडा दी गई और दूसरी तरफ सुरक्षा बालो के वे जवान है, जिन्हें रोजी रोटी के नाम पर, परिवार के उचित पालन-पोषण के नाम पर, देश रक्षा के जज्बे के नाम पर उनकी भावनाओ से खिलवाड़ करके उसे सरकारी जामा पहना कर उन आदिवासीयो के सामने उनके दुश्मन के तौर पर खडा कर दिया जाता है। तुम लड़ो और मरो, बस हम सुरक्षित रहने चाहिए! और उन्हें लड़ाने वाला है कौन ? कोबाड गांधी और देश की सत्ता में बैठा उसका सौतेला भाई ! इस लडाई से दोनों ही अपनी रोटिया सेक रहे है। गर ऐसा नहीं है तो कोई कोबाड गांधी को पूछे कि उसकी लड़ाई तो सत्ता में बैठे लोगो से थी, फिर हरवक्त क्यों निर्दोष लोग ही उनका निशाना बनते है? उसने अब तक कितने नेतावो को निशाना बनाया? जबाब, एक भी नहीं , क्योंकि वह जानता है कि अगर उसने ऐसा किया तो दूसरी तरफ भी तो उसका सौतेला भाई ही बैठा है।

उधर अगर सौतेले भाई को देश तथा इन आदिवासियों की जरा भी चिंता होती तो जो हजारो करोड़ रूपये का नुकशान रेल पटरियों, स्कूलों, अस्पतालों सरकारी भवनों इत्यादि को उडाकर हर साल कर दिया जाता है, क्या उस धन से उन आदिवासियों को सरकार की तरफ से एक रिजर्व बटालियन बनाकर वैधानिक तौर पर राष्ट्र की मुख्यधारा में नहीं लाया सा सकता है ? ऐसे प्रावधान भी तो किये जा सकते थे कि कुछ न्यूनतम तनख्वाह देकर इन्हें बजाये कोबाड गाँधी द्वारा खरीदे गए हथियारों की जगह सरकारी हथियारों को हाथ में पकड़ने में गर्व महसूस होता ! मगर चोर-चोर मौसेरे भाई वाली कहावत की तरह कोबाड गांधी और उसका सौतेला भाई यह नहीं चाहता, अगर ऐसा होगा तो फिर इनकी रोजे रोटी कैसे चलेगी? सरकार के पास धन का अभाव महज एक बहाना है, मै पूछता हूँ कि देश यदि इस कदर गरीबी से जूझ रहा है कि पेट के लिए ये आदिवासी कुछ भी करने को तैयार है तो फिर क्या जरुरत है, उस भारी-भरकम दस हजार करोड़ से अधिक के कॉमन वेल्थ गेम के दिखावे की ? देश और राज्यों में बैठे ये सत्ता के ठेकेदार एक साल में देश के कितने धन का दुरुपयोग करते है उसका कोई लेखा जोखा है ? यह नहीं भूलना चाहिये कि आज जिस तरह की मानसिकता देश में पल बढ़ रही है, वह आने वाले समय में हमारे लिए भी पाकिस्तान की आज की तरह की स्थिति पैदा कर सकती है , और देश एक बार फिर अनेक टुकडो में विभाजित हो सकता है। क्या विभिन्न स्तरों पर मौजूद आज का हमारा नेतृत्व देश के भीतर हो रही इन नैतिक मूल्यों की निर्मम हत्या से कुछ पाठ सीखेगा ?

11 comments:

  1. wah ji, yah bhi ek umda soch he/ WAD../ BLOGWAD ke jariye WAD ki behatreen POST.
    aapka yah lekh sngrahniya he, aour mene ise apne dastavejo me sahej liya he.

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  2. उम्दा सोच वाद के लिये धन्यवाद

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  3. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

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  4. bबहुत अच्छी प्रस्तुति। धन्यवाद्

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  5. aapka yeh lekh bahut kuch sochne par majboor kar de raha hai........ system ki problem bahut hai....

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  6. sahee kaha aapne . shoshit ko shoshit se maro marvao aur khud aish karo.
    nayee vishwa vyavastha me yahee ho raha hai . amerika ke liye bhee ladne walon me kisee leader,senator ya congressman kee koyee aulad naheen hai .

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  7. बहुत सही दर्शाया आपने...बढ़िया प्रस्तुति...बधाई

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  8. अच्छा विषय उठाया था आपने, नया वाद-'नपुसंकता वाद' मगर आगे जाकर लेख माओवाद पर सिमट गया।
    निःसंदेह आज के भौतिकतावाद ने हमें नपुसकतावाद की ओर तेजी से ढकेल दिया है। पहले जिस दृश्य को देखकर रोआँ-रोआँ खड़ा हो जाता था अब वही दृश्य हमें जरा भी विचलित नहीं कर पाते। एक सिनेमा को ही लें-पहले अभिनेत्री के सर से घूंघट का गिरना ही हमें रोमांचित कर देता था आज.....?
    इस विषय पर और लिखे जाने की जरूरत है।

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  9. सर्वप्रथम उत्साहवर्धन के लिए आप सभी लोगो का हार्दिक धन्यवाद अदा करना चाहूँगा !
    @devendra ji
    आप ने बिलकुल सही कहा और अच्छा लगा की आपने पूरे लेख को गौर से पढा ! मई भी लेख को लंबा खीचना चाहता था मगर दो कारणों से नहीं खीच पाया ;
    १. समयाभाव( बहुत मुश्किल से समय निकल पाता हूँ, फिर भी ब्लॉग लिखने के लिए रोजी रोटी के आवश्यक काम को छोड़कर बाकी सभी कामो को सिर्फ ब्लॉग के वास्ते दरकिनार कर देता हूँ !)
    २. लंबा लेख यहाँ ब्लोग्गर मित्र समयाभाव के कारण ही पढ़ भी नहीं पाते, जब तक की वह बहुर अधिक रोचक न हो !

    खैर, मेरा उद्देश्य मुद्दे को उठाने के साथ-साथ हाल ही में घटित राजधानी एक्सप्रेस की घटना की आतंरिक कुंठा थी, अन्य लिखक बंधुओ से उम्मीद करूंगा कि इस विषय को वे आगे ले जायेंगे !

    आपका एक बार पुनः धन्यवाद !

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  10. hamare vicharo ko jhhakjhhor diya. napunsaktabad ki nai paribhasha hi bana di. bhai sab paise aur takat ka khel hai. pista to garib aur aam aadmi hai. apne hi desh me apne hi sipahi, apne hi logon ko maar rahe hai... adbhud lekh... mera aapko salam.....

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।