Thursday, October 29, 2009

खाए-अघाये लोग और 'आम-धन का खेल' !

जाहिर है कि यह बात उन लोगो के लिए कोई मायने नहीं रखती जो कामरेड के कहने पर दो किलो चावल के लिए पुलिस गश्ती दल के वाहन के नीचे विस्फोटक लगा कर उसे उड़ा देते है, यह बात उन लोगो के लिए कोई मायने नहीं रखती जो कुछ कम्बलों और रोटियों के लिए पूरी ट्रेन का ही अपहरण कर बैठते है ! यह बात उन लोगो के लिए भी मायने नहीं रखती, जो चूहे मारकर उनका गोश्त खाने को मजबूर है, घास खाने को मजबूर है! यह बात मायने रखती है उनके लिए जो ठेकेदार है, और कॉमन वेल्थ खेलों के नाम पर कही किसी प्रोजक्ट से संबद्ध है, यह बात मायने रखती है, सरकारी मशीनरी के उन इंजीनियरों और प्लानिंग से सम्बंधित अफसरों के लिए, जो इन खेलो की ढाचागत सुविधाओं के निर्माण के लिए जिम्मेदार है, यह बात मायने रखती है उस खेल सस्था से जुड़े लोगो के लिए, जिसके ऊपर इसके आयोजन की जिम्मेदारी है, यह बात मायने रखती है उन नेतावो के लिए जिनके कंधो पर सफल आयोजन का सेहरा बाँधने का हक़ और खराब आयोजन के लिए दोषारोपण का भार दूसरो के ऊपर डालने का जिम्मा है, यह बात मायने रखती है यातायात और सुरक्षा से जुड़े लोगो के लिए, और अंत में यह बात मायने रखती है उस आम जनता के लिए, जो इन आयोजनों से पूर्व की असुविधाये भुगतने को मजबूर है और जिनपर आयोजन के दौरान और तत्पश्चात आने वाली असुविधाये और टैक्स तथा करो को भुगतने के लिए अपनी कमर को दुरस्त रखने का जिम्मा है!

यह बात मैंने शायद बहुत पहले भी कहीं पर कही थी कि जब हमारे पास वक्त था, तब हमारे इन रणनीतिकारों ने जान-बूझकर सारे प्रोजक्ट को देर किया, कभी यमुना बेड का मुद्दा उछालकर, कभी आयोजन की ढाचागत सुविधावो को विश्वस्तरीय बनाने हेतु अपने बीबी बच्चो समेत चीन, जापान और एथेंस घूमने के नाम पर, कभी पुरात्व की धरोहरों के नीचे से सुरंग ले जाने के नाम पर और न जाने किस-किस बात पर! वह भी एक सोची-समझी रणनीति का ही हिस्सा थी! हमारे ये कुछ मातहत common weath game को "come on wealth" game मानकर चल रहे है, हिंदी में ये उसे ये 'आम-धन का खेल' कहते है! यानी कि तुम भी खावो, हम भी खाए ! इसका एक उदाहरण यह दे सकता हूँ कि नेहरु स्टेडियम के जीर्णोधार के लिए तकरीबन ८०० करोड़ रूपये का बजट रखा गया है, जिसके पीछे तर्क यह है कि चूँकि अब समय बहुत कम रह गया है, इसलिए कार्य को निर्धारित समय पर ख़त्म करने के लिए अधिक धन की जरुरत है ! अब कोई सोचे कि ८०० करोड़ रूपये सिर्फ जीर्णोधार के लिए ? इतनी राशि में तो पुराने स्टेडियम को तोड़कर एक नया स्टेडियम बन सकता था, मगर पूछेगा कौन? यह तो सिर्फ इस कड़ी के एक छोटे से हिस्से का उदाहरण मैंने दिया ! टार्गेट तो सिर्फ इतना सा है कि आखिरी समय में निचले दर्जे का मटीरियल लगा, लीपा-पोती कर खेल का शुभारम्भ हो जाए, बस उसके बाद कौन पूछता है? भीड़ जुटाने की जुरुरत पडी तो एक-आदा किसी फिल्म स्टार को बुला लेंगे! प्लानिग इनकी इतनी उम्दा है कि एक रेड लाईट पर फ्लाय ओवर बनाते है तो यह नहीं सोचते कि अगली रेड लाईट पर जाकर भी तो ट्राफिक इकठ्ठा हो जाएगा, उसका क्या हल है ? जीता जागता उदाहरण है, मुनिरका में आई-आई टी के सामने बना फ्लाय-ओवर और गाजीपुर चौक पर बन रहा फ्लाय ओवर! सार्वजनिक धन का जो दुरुपयोग हो रहा है, उसकी मार आख़िरी में उस इन्सान को झेलनी है जो सड़क पर चलता है ! टैक्स का बोझ उसे झेलना है जो दिन-भर मेहनत कर कुछ कमाता है! इनका तो बस यही रोना रहेगा कि सरकार के पास फंड नहीं है !

11 comments:

  1. आम लोग जो टैक्स देते है उस धन का बन्दर बाँट ये लोग

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  2. "यह बात मायने रखती है उन नेतावो के लिए जिनके कंधो पर सफल आयोजन का सेहरा बाँधने का हक़ और खराब आयोजन के लिए दोषारोपण का भार दूसरो के ऊपर डालने का जिम्मा है,"

    क्या बात कही है गोदियाल जी!

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  3. बस खेल ठीक ठाक हो जाएँ, यही तमन्ना है.
    इसी में देश की इज्ज़त है.

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  4. आमधन का खेल!!!!!!!!यह तो जनता के राम-धुन का खेल है:)

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  5. रम राम जी अब हम क्या कहे सब कुछ तो आप ने लिख दिया.
    धन्यवाद

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  6. बात कडवी है लेकिन सच है ।

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  7. कड़वा सच है भाई मेरे.

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  8. आईना दिखा दिया आपने.........

    सच !
    सच ऐसा ही है ,,,
    अभिनन्दन !

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  9. जीवन की बहुत ही महत्वपूर्ण बातों को आपने बहुत ही सही तरीके से और धारदार शैली के साथ प्रस्तुत किया है। आपकी बातें सोचने के लिए विवश करती हैं। इस अलग को जगाए रखें।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  10. देश के नेताओ के घिनौने चेहरे को बेनकाब करता एक कड़वा सच.

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।