रातोरात अमीर बन जाने के लिए "मधु कोड़ा" प्रजाति के तमाम सफ़ेद पोश देश को बेच डालने की फिराक में है! आरक्षण और डोनेशन की कृपा से पैदा हुए इंजिनीयर ऐसे ढांचागत निर्माण खड़े कर रहे है जो बनने से पहले ही टूट जा रहे है! सड़के है नहीं और देश में नित नयी कार के मॉडल आ रहे है, घर में खाने को भले ही आटा न हो, सड़क पर चलने की जगह न मिले, लेकिन लोग घर बाहर लोन लेकर कार जरूर खडी कर रहे है! हर तरफ कुशासन, अराजकता, बेरोजगारी, महंगाई , भुखमरी, भ्रष्टाचार और ऊपर से घटती कृषी योग्य भूमि और तेजी से फैलता कंक्रीट के जंगलो का सैलाब ! किसी की कोई जबाबदेही नहीं, सब कुछ छिन्न-भिन्न!
कृषि योग्य भूमि और खाद्यान उत्पादन निरंतर घट रहा है, बढ़ती जनसंख्या जब महंगाई से त्रस्त होकर अपनी आवाज उठाने की कोशिश करती है तो बार-बार १०% विकास दर का झुनझुना देश के प्रधानमंत्री जी लोगो के कानो में बजा डालते है ! मगर देश की यह दुर्दशा क्यों हो रही है कोई देखने वाला नहीं ! अपने देश में कारखानों को बिजली नहीं मिलती, इसलिए देश नित विदेशी सामान पर निर्भर होता जा रहा है! जहाँ देश में खाद्यान्न "आत्म निर्भरता" का श्रेय शास्त्री जी को जाता है, वहीं अब लगता है कि देश की खाद्यान्न "आयात निर्भरता" का मुकुट मनमोहन सिंह जी पहनेगे !
मेरे जैसा इंसान बस यही सोच दिल को तसल्ली देता है कि
पंछी फिर लेंगे हवाइयाँ गगन में,
फिर उडेंगी पुरवाइयाँ वन-वन में,
फूलों से लहलहाते फिर खेत होंगे,
ख्वाइशें लेगी अंगडाइयां मन में !
मगर वह है कि उसे इन बातों पर अब ज़रा भी भरोंसा नहीं रहा और
एक दौर था जब उनकी ख्वाइशे हम, हर हाल में पूरी करते थे,
मगर आजकल तो वो भी हमसे ज्यादा, खुदा से मांगने लगे है !
कृषि योग्य भूमि और खाद्यान उत्पादन निरंतर घट रहा है, बढ़ती जनसंख्या जब महंगाई से त्रस्त होकर अपनी आवाज उठाने की कोशिश करती है तो बार-बार १०% विकास दर का झुनझुना देश के प्रधानमंत्री जी लोगो के कानो में बजा डालते है ! मगर देश की यह दुर्दशा क्यों हो रही है कोई देखने वाला नहीं ! अपने देश में कारखानों को बिजली नहीं मिलती, इसलिए देश नित विदेशी सामान पर निर्भर होता जा रहा है! जहाँ देश में खाद्यान्न "आत्म निर्भरता" का श्रेय शास्त्री जी को जाता है, वहीं अब लगता है कि देश की खाद्यान्न "आयात निर्भरता" का मुकुट मनमोहन सिंह जी पहनेगे !
मेरे जैसा इंसान बस यही सोच दिल को तसल्ली देता है कि
पंछी फिर लेंगे हवाइयाँ गगन में,
फिर उडेंगी पुरवाइयाँ वन-वन में,
फूलों से लहलहाते फिर खेत होंगे,
ख्वाइशें लेगी अंगडाइयां मन में !
मगर वह है कि उसे इन बातों पर अब ज़रा भी भरोंसा नहीं रहा और
एक दौर था जब उनकी ख्वाइशे हम, हर हाल में पूरी करते थे,
मगर आजकल तो वो भी हमसे ज्यादा, खुदा से मांगने लगे है !
"सड़के है नहीं और देश में नित नयी कार के मॉडल आ रहे है, घर में खाने को भले ही आटा न हो, सड़क पर चलने की जगह न मिले, लेकिन लोग घर बाहर लोन लेकर कार जरूर खडी कर रहे है! हर तरफ कुशासन, अराजकता, बेरोजगारी, महंगाई , भुखमरी, भ्रष्टाचार और ऊपर से घटती कृषी योग्य भूमि और तेजी से फैलता कंक्रीट के जंगलो का सैलाब ! किसी की कोई जबाबदेही नहीं, सब कुछ छिन्न-भिन्न!"
ReplyDeleteबहुत बड़ा दुर्भाग्य है यह इस देश का।
बहुत ही चिंतनीय विषय है। चारों तरफ़ मंहगाई का तांडव हो रहा है, सरकार उदासीन हैं, चारों तरफ़ लुट मची है, निम्न मध्यम वर्ग पिस रहा है दो पाटों के बीच लेकिन ये प्रजातंत्र है आज नही तो कल जवाब देना ही पडेगा।
ReplyDeleteकभी हंसता हुआ मधुमास भी तुम देखोगे।
कभी समंदर सी प्यास भी तुम देखोगे
कलमुही सत्ता के मद मे ना झुमो इतना
कल जनता का दिया बनवास भी तुम देखोगे
nice
ReplyDeleteगंभीर प्रश्न। शोचनीय स्थिति। समस्या का हल ... भगवान जाने ..।
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा ..
इक दौर था जब उसकी ख्वाइशे हम, हर कीमत पे पूरी करते थे,
मगर आजकल तो वो भी, मुझसे ज्यादा खुदा से मांगने लगी है !
श्वानो को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं..
ReplyDeleteमाँ की हड्डी से चिपक ठिठुर, जड़ो की रात बिताते हैं
युवती के लाजा बसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं
मालिक जब तेल फुलेलो पर पानी सा द्रव्य बहते हैं
पापी महलो का अहंकार तब देता मुझको निमंत्रण
---- दिनकर
आप ने सही सवाल उठाया, ऎशो आराम की चीजे कोडियो के भाव मिल रही है... ओर आम जरुरत की चीजे हद से भी महंगी, ओर सरकार कहती है हम क्या करे, अरे जब कुछ नही कर सकते तो अपना मुंह काला कर के भाग जाओ, हम खुद सम्भाल लेगे इस देश को अब भी तो भुखे मर रहे है, कारे चलायेगे कहां? कोई एक सडक भी ढंग की हो...
ReplyDeleteसच कहुं; तो इस देश को इन कमीने नेताओ के नाम की दीमक लग चुकी है, अगर इस दीमक को समय रहते दुर नही किया तो देश चरमरा जायेगा.
बहुत अच्छा लिखा आप ने
एक बात भारत मै खाने पीने की चीजे यूरोप से मंहगी है, ओर कमाई अफ़्रिका से भी कम पर व्यक्ति
Green Revolution का नारा फ्लॉप हो गया... सब ढकोसला था.... पब्लिक के हाथ में झुनझुना पकडाया गया... ऐसा झुनझुना जो बजता नहीं था..... बेसिक अमेनिटिस अभी तक नहीं है... तो १०% का विकास लेकर क्या करेंगे...? बहुत उम्दा और सोचनीय पोस्ट....
ReplyDeleteमैं तो बस बनारसी अंदाज में बस यही कहूँगा -
ReplyDeleteकाहे हौवा हक्का-बक्का
छाना राजा भांग मुनक्का
भ्रस्टाचार में देश धँसल हौ
का दुक्की का चौका-छक्का
जानते हैं गोदियाल जी , किसी फ़िल्म में कोई डायलाग सुना था कि, लिखने से कब कोई क्रांति आई है जो अब आएगी , एक पल को लगा ठीक ही तो कहा है , मगर फ़िर दो ही रास्ते बचते हैं या तो चुपचाप तमाशा देखो , या घुस के सब बदल डालो कम से कम कोशिश तो करो ,मगर चुप रहने से तो बेहतर यही है कि कम से कम इसका विरोध लिख कर पढ कर तो कर ही सकते हैं , जाने कौन कब पढते लिखते इस कारवां में शामिल हो जाए , वैसे आपका क्षोभ तो अपनी जगह ठीक ही है
ReplyDeleteअजय कुमार झा
बहुत सही मुद्दा उठाया है आपने .. आखिर जनता बेबस होकर ये सब कैसे देख रही है .. उसे अपनी शक्ति का अहसास कब होगा !!
ReplyDeleteहालात जैसे दिखाई दे रहे है...वास्तव में स्थिति उससे कहीं अधिक शोचनीय है.. लेकिन इसे देश के निम्न एवं मध्यमवर्गियों का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि सब कुछ जानते बूझते भी शासनतंत्र बिल्कुल उदासीन बैठा है ।
ReplyDeleteहर तरफ कुशासन, अराजकता, बेरोजगारी, महंगाई , भुखमरी, भ्रष्टाचार और ऊपर से घटती कृषी योग्य भूमि और तेजी से फैलता कंक्रीट के जंगलो का सैलाब !
ReplyDeleteगोदियाल जी, हमने तो ढूंढ निकाला एक ओअसिस इस कंक्रीट जंगल में।
लेकिन ज़रुरत तो है सुधार की।
एक बहुत ही छोटा सा आंकड़ा सब कुछ दिखा रहा है.................
ReplyDeleteबी एस एन एल की एक सिम ४ रुपये में और अरहर की दाल..??????
बी एस एन एल के टॉप अप पर फुल टाक वेल्यु और चीनी ?????
इस तरह के बहुत आंकड़े हैं जो सरकारी नियति को दिखाते हैं..........
बहुत अच्छा पोस्ट। बहुत-बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteसही मुद्दा लेकर मंथन किया है...
ReplyDeleteपंछी फिर लेंगे परो से हवाइयाँ गगन में,फिर उडेंगी पुरवाइयाँ वन में,
फूलों से लहलहाते फिर खेत होंगे, तमन्ना लेगी फिर अंगडाइयां मन में !
ये ही सही है...आशा और विश्वास!!
देख तेरे इंसान की हालत क्या हो गई भगवान,
ReplyDeleteकितना बदल गया इंसान...
जय हिंद...
गंभीर लेख!
ReplyDeleteयह शेर पसंद आया..स्थिति को साफ साफ बताता हुआ-:
-इक दौर था जब उसकी ख्वाइशे हम, हर कीमत पे पूरी करते थे,
मगर आजकल तो वो भी, मुझसे ज्यादा खुदा से मांगने लगी है !
बहुत ही सही सवाल पर मंथन किया है आपने |
ReplyDeleteबहुत सटीक और सामयिक मुद्दा उठाया है आपने. लेकिन एक बात समझ लिजिये कि अब महंगाई का भूत किसी भी सरकार के बस का नही रहा. ये तो ग्लोबलाईजेशन के चक्कर मे चढ गये.
ReplyDeleteग्लोबलाईजेशन का फ़ायदा भारत मे चंद लोगों को मिला और बाकी सभी इसकी भेंट चढ गये.
लगता है फ़िर कोई जेपी अवतार लेगा.
रामराम.
सवाल वाजिब है ........ उत्तर नज़र नही आ रहा .......... क्या कोई क्रांति आने वाली है .......... लगता तो नही ...... देश की जनता रबर से भी ज़्यादा लचीली होती जा रही है ..... जितना दबाओ दब्ती ही जा रही है ..... जाती, धर्म और ना जाने कितनी छोटी छोटी बातों में फँसे समाज को फ़ुर्सत ही किधर है ये सब समझने की ........
ReplyDeleteआपका भी जवाब नहीं है, ऐसे मुद्दे को ठेलते है जहाँ तक हम सोच ही नही पाते । बहुत खूब
ReplyDeleteजायज चिंता है , देश की दुर्दशा हो रही है लेकिन जिन्हे कुछ कदम उठाना चाहिये वो खामोश हैं ।किसी शायर ने ठीक कहा है-
ReplyDeleteहम को है उनसे वफा की उम्मीद
जो नही जानते वफा क्या है
बहुत शुक्रिया मेरा हौसला बढ़ाने के लिये!
ReplyDeleteहालात तो वाकई विस्फोटक हैं, पर आश्चर्य है कि फिरभी कहीं विस्फोट नहीं होता।
ReplyDelete--------
अपना ब्लॉग सबसे बढ़िया, बाकी चूल्हे-भाड़ में।
ब्लॉगिंग की ताकत को Science Reporter ने भी स्वीकारा।
bilkul sahi baat kahi aapne magar jawaab to wo hi hai zero........kisi kokoi fark nhi padta desh jaye bhad mein sirf apni jeb bharni chahiye bas dikhavti aansoo aur hamdardi hai in netaon ki baki inhone kuch nhi karna ab ki baar desh ko aise bechenge ki phir aazad nhi ho payega kyunki is baar to desh ki soch hi bech di jayegi to phir is kuntha se ahar kaise aur kaun nikalega..........aap aur hum kitna bhi dukhi ho lein ya kitna bhi likh lein magar inhein koi fark nhi padna kyunki inki khal ab pak chuki hai.
ReplyDeletevery nice!
ReplyDeleteबात तो सच है .....पर करें क्या ? देश तो ४० साल समाजवाद और गरीबी हटाओ के २० साल ' विश्व वाद ' के घुन्घुने से बहलाया जा रहा है ..........................और बहल भी रहा है पुनि पुनि .
ReplyDeleteअमेरिकी एक कहावत कहते हैं .अगर तुमने मुझे बेवकूफ बना कर धोखा दिया तो तुम्हें शर्म आनी चाहिए ...............और दूसरी बार फिर धोखा दे सके तो मुझे अपनी अक्ल पर शर्म आनी चाहिए ......तो पुश्तों द्वारा ,पुश्तों से , पुश्तों तक बनाना और बनते जाना अब तो भारतीय परंपरा हो गया है ....
हमारा यही दुर्भाग्य है कि हम आम आदमी है, खास आदमी को तो ना भाव का पता है और ना ही जनता के ताव का। वे तो ना दाल खाते हैं और ना ही शक्कर। उनके पास तो खाने के लिए सोना है, रूपया है और ना जाने क्या क्या है।
ReplyDeleteबड़ा बुरा हाल है।
ReplyDeleteआपने बिल्कुल सच बयान किया।
बहुत सटीक लिखा है जी।
ReplyDeleteलोहिड़ी पर्व और मकर संक्रांति की
हार्दिक शुभकामनाएँ!