Wednesday, January 30, 2013

सावधान !




अंध,मूक,वधिर,अहमक़,खोटा,

न कोई ठठोल,ऊल-जुलूल बैठे ,

भीड़-तन्त्र की डाल पर मित्रों,

अब और न कोई "फूल" बैठे।






न किसी और को तोहमत देना,

सोच-समझकर तुम मत देना,

वरना उसने जो खर्चा है खुद पर,

कहीं तुम्ही से न सब वसूल बैठे।




स्पर्धी सब हैं बड़े खुदगर्ज ये,

बनकर भूल जाते है फर्ज ये,

वरण का दौर गुजरने के बाद,

वो कहीं तुम्हे ही न भूल बैठे।





गिद्ध बैठे है गोश्त की चाह में,

फूंक कर रखो कदम तुम राह में,

तरजीह हरगिज न ऐसी हो

कि अपने ही पांव शूल बैठे।

7 comments:

  1. आपकी पोस्ट 31 - 01- 2013 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें ।
    --

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  2. राम ही जाने क्या होगा?

    रामराम.

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  3. अभी वो कर-बद्ध होकर, दर-दर माँगता तुमसे घूम रहा,
    ज़रा तिजोरी उसे मिल जाने दो,गले तुम्हारे झूल बैठेगा।

    बिलकुल सही लिखा है...

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  4. बहुत अच्‍छी रचना..

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।