अंध,मूक,वधिर,अहमक़,खोटा,
न कोई ठठोल,ऊल-जुलूल बैठे ,
भीड़-तन्त्र की डाल पर मित्रों,
अब और न कोई "फूल" बैठे।
न किसी और को तोहमत देना,
सोच-समझकर तुम मत देना,
वरना उसने जो खर्चा है खुद पर,
कहीं तुम्ही से न सब वसूल बैठे।
स्पर्धी सब हैं बड़े खुदगर्ज ये,
बनकर भूल जाते है फर्ज ये,
वरण का दौर गुजरने के बाद,
वो कहीं तुम्हे ही न भूल बैठे।
गिद्ध बैठे है गोश्त की चाह में,
फूंक कर रखो कदम तुम राह में,
तरजीह हरगिज न ऐसी हो
कि अपने ही पांव शूल बैठे।
अच्छी रचना !!
ReplyDeleteराम जाने..
ReplyDeleteखरी खरी .... बहुत खूब ।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट 31 - 01- 2013 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
ReplyDeleteकृपया पधारें ।
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राम ही जाने क्या होगा?
ReplyDeleteरामराम.
अभी वो कर-बद्ध होकर, दर-दर माँगता तुमसे घूम रहा,
ReplyDeleteज़रा तिजोरी उसे मिल जाने दो,गले तुम्हारे झूल बैठेगा।
बिलकुल सही लिखा है...
बहुत अच्छी रचना..
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