Thursday, January 10, 2013

रास आता नहीं हमको, ये आलम तन्हाइयों का।










पीछा करें भी तो कहाँ तक भला,ये नयन परछाइयों का
रास आता नहीं अब और हमको, आलम तन्हाइयों का।

डरी-डरी सी बहने लगी है, हर बयार मन की गली से , 
ख्वाब भी आते नहीं अब,खौफ खाकर रुसवाइयों का।

हमें शुष्क दरिया समझ बैठे हैं, समंदर की चाह वाले,  
सीपियों को भी इल्म नहीं,इस दिल की गहराइयों का।

दौर -ए- पतझड़ सूखकर गिरने लगे हैं आशा वरक़,       
सहमा-सहमा है ये दिल दरख्त, डर है पुरवाइयों का।  
वरक़=पत्ते    
मुरादें करने लगी प्रणय पत्थरों से मंगल सूप धारण,  
कौन जाने,क्या पता कब बनेगा,योग शहनाइयों का।

11 comments:

  1. शुष्क दरिया समझ रहे, समंदर की चाह वाले,
    अंदाजा नहीं उन्हें, इस दिल की गहराइयों का ..

    बहुत खूब ... डूब के देखेंगे तो अंदाज़ हो जायगा इन गहराइयों का ...

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  2. आदरणीय गोदियाल जी
    नमस्कार !
    .........
    कोई जाकर ये कह दे,तनिक तूफानों से'परचेत,'
    करना लिहाज वो सीखे, गूंजती शहनाइयों का।
    ..........बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल !!

    ....लम्बे समय बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ कुछ जरूरी कार्यो से ब्लॉग जगत से दूर था

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  3. वाह.बेह्तरीन अभिव्यक्ति .

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  4. प्रभावशाली ,
    जारी रहें।

    शुभकामना !!!

    आर्यावर्त (समृद्ध भारत की आवाज़)
    आर्यावर्त में समाचार और आलेख प्रकाशन के लिए सीधे संपादक को editor.aaryaavart@gmail.com पर मेल करें।

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  5. मन की गली से बह रही,हर बयार डरी-डरी सी,
    खाए क्यों न दीवाना यहाँ, खौफ रुसवाइयों का।

    ...बहुत खूब! बेहतरीन ग़ज़ल...

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  6. शुष्क दरिया समझ रहे, समंदर की चाह वाले,
    अंदाजा नहीं उन्हें, इस दिल की गहराइयों का।

    वाह वाह अतिउत्तम

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  7. बहुत ही बढ़ियाँ गजल.....

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।