पीछा करें भी तो कहाँ तक भला,ये नयन परछाइयों का
रास आता नहीं अब और हमको, आलम तन्हाइयों का।
डरी-डरी सी बहने लगी है, हर बयार मन की गली से ,
ख्वाब भी आते नहीं अब,खौफ खाकर रुसवाइयों का।
हमें शुष्क दरिया समझ बैठे हैं, समंदर की चाह वाले,
सीपियों को भी इल्म नहीं,इस दिल की गहराइयों का।
सहमा-सहमा है ये दिल दरख्त, डर है पुरवाइयों का।
वरक़=पत्ते
मुरादें करने लगी प्रणय पत्थरों से मंगल सूप धारण,
कौन जाने,क्या पता कब बनेगा,योग शहनाइयों का।
शुष्क दरिया समझ रहे, समंदर की चाह वाले,
ReplyDeleteअंदाजा नहीं उन्हें, इस दिल की गहराइयों का ..
बहुत खूब ... डूब के देखेंगे तो अंदाज़ हो जायगा इन गहराइयों का ...
बहुत खूब..
ReplyDeleteआदरणीय गोदियाल जी
ReplyDeleteनमस्कार !
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कोई जाकर ये कह दे,तनिक तूफानों से'परचेत,'
करना लिहाज वो सीखे, गूंजती शहनाइयों का।
..........बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल !!
....लम्बे समय बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ कुछ जरूरी कार्यो से ब्लॉग जगत से दूर था
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवार के चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteवाह.बेह्तरीन अभिव्यक्ति .
ReplyDeleteप्रभावशाली ,
ReplyDeleteजारी रहें।
शुभकामना !!!
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सार्थक अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteमन की गली से बह रही,हर बयार डरी-डरी सी,
ReplyDeleteखाए क्यों न दीवाना यहाँ, खौफ रुसवाइयों का।
...बहुत खूब! बेहतरीन ग़ज़ल...
बढ़िया ग़ज़ल कही है
ReplyDeleteशुष्क दरिया समझ रहे, समंदर की चाह वाले,
ReplyDeleteअंदाजा नहीं उन्हें, इस दिल की गहराइयों का।
वाह वाह अतिउत्तम
bahut achchhi lagi gazal ...
ReplyDeleteबहुत ही बढ़ियाँ गजल.....
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