उधर सामने खडे थे संस्कार,
बनकर के मेरे पहरेदार,
संकुचायी सी मैं कुछ बोली नहीं,
तुम हरगिज़ इसे गलत मत समझना,
इत्तेफ़ाक़न, मैं इतनी भी भोली नहीं।
तुम्हारे जैसे बहुतेरे मिले हमको,
जिंदगी की राह मे मन डुलाने वाले,
किन्तु, फिर भी कभी मैं डोली नहीं,
तुम हरगिज़ इसे गलत मत समझना,
इत्तेफ़ाक़न, मैं इतनी भी भोली नहीं।
शक्ल से भले ही कोई बांके लगे हो,
बेकार है, बांकी जो अगर उसकी,
अपनी खुद की भाषा-बोली नहीं,
तुम हरगिज़ इसे गलत मत समझना,
इत्तेफ़ाक़न, मैं इतनी भी भोली नहीं।
अरे वो तमाम पैमानों के पैरवीकारो,
नापने से कद कभी बढता नहीं, गर
मनसाही जो कभी अपनी तोली नहीं,
तुम हरगिज़ इसे गलत मत समझना,
इत्तेफ़ाक़न, मैं इतनी भी भोली नहीं।
वाह
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteमकर संक्रान्ति का हार्दिक शुभकामनाएँ।
आपको भी🙏
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज शनिवार 16 जनवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,
नश्तर सम सृजन ... प्रभावी ।
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