वैरियों से जुडे हों जिनके तार ऐसे,
कृषक भेष मे लुंठक, बटमार ऐसे,
कापुरुष किसान परेड की आड मे,
कर रहे है, देश-छवि शर्मशार ऐसे।
इधर ये, वीरों के शौर्य को सलाम करके
लोग करते गणतंत्र पर्व को साकार ऐसे ,
उधर वो, लालकिले को रौंदने मे लगे हैं,
कुछ फसादी, तुच्छ-स्वार्थी मक्कार ऐसे।
नेताओं की महत्वाकांक्षा ने कर रखा
सम्पूर्ण व्यवस्था के तंत्र को लाचार ऐसे,
कापुरुष किसान परेड की आड मे,
कर रहे है, वतन-छवि शर्मशार ऐसे।
सभी ब्लॉग मित्रों को गणतंत्र दिवस की
हार्दिक शुभकामनाएं।🙏
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (27-01-2021) को "गणतंत्रपर्व का हर्ष और विषाद" (चर्चा अंक-3959) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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त्वरित सृजन सामायिक सुंदर।
ReplyDeleteमन की अपार पीड़ा को आपने शब्दों में उंडेल दिया.धन्यवाद.
ReplyDeleteकल के शर्मनाक घटनाक्रम से अब तक स्तब्ध है जन मानस.
आभार, आप सभी का🙏
ReplyDeleteबहुत सुन्दर समसामयिक रचना सटीक प्रश्न उठाती हुई..
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